मजहब न पूछो अपराधी का

समाज का एक वर्ग, फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ का अंधाधुंध विरोध कर रहा है। तमिलमाडु में जहां सत्तारुढ़ दल द्रमुक के दवाब में प्रादेशिक सिनेमाघरों ने इस फिल्म का बहिष्कार किया, तो प.बंगाल में ममता सरकार द्वारा इसपर प्रतिबंध लगाने के बाद फिल्म देख रहे दर्शकों को सिनेमाघरों से पुलिस घसीटते हुए बाहर निकाल दिया। विरोधियों की मुख्य तीन आपत्तियां है। पहली— यह ‘काल्पनिक’ लव-जिहाद को स्थापित करने का प्रयास है। दूसरी—केरल में मतांतरित मुस्लिम महिलाओं के आतंकी संगठनों से जुड़ने का आंकड़ा, अतिरंजित है। तीसरा— यह फिल्म इस्लाम/मुस्लिम विरोधी है।

‘लव-जिहाद’ शब्दावली विरोधाभासी है। इसमें ‘जिहाद’ का अर्थ ‘मजहब हेतु युद्ध’ है, तो ‘लव’ निश्छल-निस्वार्थ भावना। वास्तव में, यह षड्यंत्र प्रेम के खिलाफ ही जिहाद है, क्योंकि इसके माध्यम से स्वयं को इस्लाम से प्रेरित कहने वाले समूह, छल-बल से गैर-मुस्लिम युवतियों की पहचान और सम्मान छीनने की साजिश करते है। यह कोई कोरी कल्पना नहीं है। चर्च संगठनों के साथ वर्ष 2010 में केरल के तत्कालीन वामपंथी मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंदन और वर्ष 2012 में तत्कालीन कांग्रेस मुख्यमंत्री ओमान चांडी अलग-अलग भाषा में ‘लव-जिहाद’ की वास्तविकता को सत्यापित कर चुके है। ब्रिटेन सहित शेष विश्व में भी ऐसे मामलों की भरमार है।

केरल में कितनी गैर-मुस्लिम युवतियां मजहबी उद्देश्यों हेतु मतांतरित हुई— 3 या 32,000? इसका यथार्थ आंकड़ा मिलना कठिन है। क्या कोई बता सकता है कि 1920-21 के मोपला हिंदू नरसंहार, 1946 के कलकत्ता डायरेक्ट एक्शन डे, 1947 के रक्तरंजित विभाजन और 1984 में सिख-विरोधी दंगे में मारे गए निरापराधों की ठीक-ठीक संख्या कितनी थी? इन मामलों के वस्तुनिष्ठ आंकड़े उपलब्ध नहीं होने से क्या यह हृदय-विदारक घटनाएं झूठ हो जाएंगी?

जब इस फिल्म पर विवाद हो रहा था, तब उत्तरप्रदेश स्थित बरेली से एक खबर सामने आई। पेशे से चिकित्सक और विवाहित डॉ. इकबाल अहमद ने ‘डॉ.राजू शर्मा’ बनकर सहारनपुर की हिंदू निशा को पहले प्रेमजाल में फंसाया, फिर उससे 2012 में हिंदू रीति-रिवाजों के साथ शादी की। जब इकबाल का भंडाफोड़ हुआ, तब उसने निशा पर इस्लाम अपनाने का दवाब डालना शुरू कर दिया। जब निशा मतांतरण के लिए नहीं मानी, तो इकबाल ने 2021 में उसकी हत्या कर दी। 10 मई को समाचारपत्रों में प्रकाशित खबर के अनुसार, स्थानीय अदालत ने 9 वर्षीय बच्ची की गवाही पर इकबाल को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। पूरे देश में ऐसी कितनी ‘निशा’ होंगी?

सामाजिक कुरीतियों पर अक्सर फिल्में बनती है, बननी भी चाहिए। ढेरों फिल्मों में बनियों को ‘कपटी सूदखोर’, ब्राह्मणों को ‘लालची-भ्रष्ट’, क्षत्रियों को अत्यंत ‘क्रूर’ और बिंदी-सिंदूर लगाई महिलाओं को ‘अत्याचारी सास’ के रूप चित्रित किया गया है। क्या इन चलचित्रों में फिल्माए पात्रों ने अपने-अपने समाज का प्रतिनिधित्व किया है या सामाजिक बुराई का? 1957 की चर्चित फिल्म ‘मदर इंडिया’ में अभिनेता कन्हैयालाल ने ‘सुखीलाल’ नाम से ‘मक्कार साहूकार’ का किरदार निभाया था। क्या तब इस फिल्म ने वैश्य समाज का अपमान किया था? ‘द केरल स्टोरी’ में उन मुसलमानों का उल्लेख है, जो विदेशी वित्तपोषित है, इस्लाम के नाम पर तथाकथित जिहाद करते है और मासूम गैर-मुस्लिम युवतियों का मतांतरण करके उन्हें आतंकवाद की आग में झोंकते है। क्या इस तरह के झूठे, बेईमान और दुष्ट लोगों को इस्लाम से जोड़ना उचित है? ऐसा करने वाले ही वास्तव में, मुस्लिम समाज का अपमान कर रहे है।

जो पार्टियां ‘द केरल स्टोरी’ का विरोध करते हुए उसपर घोषित-अघोषित प्रतिबंध लगा रहे है या फिल्म का विरोध कर रहे है, उनका ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ में कोई विश्वास नहीं है। यह कुनबा केवल इस अधिकार की पैरवी अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने हेतु करता है। गत दिनों आम आदमी पार्टी (आप) द्वारा शासित पंजाब में एक महिला पत्रकार और उसके दो सहयोगियों को एक मामले में गिरफ्तार कर लिया गया। आरोप है कि यह पूरी घटना बदले की भावना से प्रेरित है, क्योंकि उनके न्यूज़ चैनल ने कुछ दिन पहले ‘आप’ संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सरकारी आवास के नवीनीकरण पर 45 करोड़ रुपये खर्च करने का खुलासा किया था। ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को रौंदने के ढेरों उदाहरण है, जिसका हालिया शिकार ‘द केरल स्टोरी’ है, क्योंकि यह उनके द्वारा स्थापित नैरेटिव के अनुरूप नहीं।

अक्सर कहा जाता है— “आतंकवादियों का कोई मजहब नहीं होता है, आतंकी केवल आतंकी होता है।” फिर फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ में खलनायकों का मजहब क्यों ढूंढा जा रहा है? यदि कोई पुरुष प्रेम को आधार बनाकर किसी युवती को धोखा दें और जबरन उसका मतांतरण करके शारीरिक शोषण करें, तो वह अपराधी है। क्या समाज किसी अपराध की गंभीरता इस बात से तय करेगा कि अपराधी और पीड़ित का मजहब क्या है? क्या ऐसे मापदंड अपनाने वाले समाज को सभ्य कहा जा सकता है?

– बलबीर पुंज 

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