हिंदू रीति-रिवाजों के मुताबिक शादी सात जन्मों तक साथ निभाने का जरिया है। एक लड़की-लड़का जब शादी के सात फेरे लेते हैं, तो सात जन्मों तक साथ रहने की कसमें खाते हैं, लेकिन जिस रिश्ते में प्यार और अपनापन न हो! फ़िर ऐसी कसमें और वादे सिर्फ़ बोझ बनकर रह जाते हैं। मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं के विपरीत जाकर कोई भी जीवन-यापन नहीं कर सकता है। यही वजह है कि संविधान सम्मत इस देश में नागरिकों को कई संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं। ये अधिकार ही व्यक्ति की गरिमा और जीवन जीने की स्वतंत्रता को आधार प्रदान करते हैं। ऐसे में सिर्फ़ सात जन्मों तक साथ निभाने के वचन मात्र से कोई भी पुरुष या स्त्री अपना जीवन जीते-जी नरक नहीं बनाना चाहेगा।
शादी जितना एक स्त्री-पुरुष के जीवन में खुशनुमा पल है। तलाक उससे लाख गुना जटिल, शर्मनाक और तनावग्रस्त होता है। तलाक की पीड़ा वही समझ सकता है, जिसने इस त्रासदी को झेला हो। हमारा समाज पुरूष प्रधान है। जहां इक्कीसवीं सदी में भी पुरूषों का वर्चस्व कायम है। एक स्त्री अपने हक के लिए आवाज उठाए तो उसे उन्मुक्तता का शिकार बताने में समाज लेशमात्र समय नहीं लगाता। पुरूष बड़ी ही आसानी से स्त्री पर लांछन लगाकर या चरित्र पर उंगली उठाकर एक महिला को तलाक दे सकता है, लेकिन स्त्री समाज के लिए तलाक लेना आसान नहीं होता। सोचिए जिस समाज में एक महिला को नौकरी के साक्षात्कार से इसलिए रिजेक्ट कर दिया जाए कि उसका तलाक का केस चल रहा है। फिर स्त्री-पुरुष के बीच समाज में व्याप्त भेद को भलीभांति समझा जा सकता है। दरअसल, आज भी हमारे समाज में तलाक को लेकर लोगों की मानसिकता नहीं बदली है और समाज अभी भी तलाक का दोष सिर्फ महिला के माथे पर मढ़ता है। जो काफी दुःखद और दर्दभरी दास्तां बयाँ करता है।
इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने तलाक को लेकर एक फैसला सुनाया है। जिसके मार्फ़त अब कोई भी रिश्तों के टूटने के दर्द से जल्द छुटकारा पा सकता है। जो कहीं न कहीं महिलाओं के लिए एक सुखद फैसला है। अक्सर हमने देखा है। जब एक स्त्री-पुरुष के तलाक की प्रक्रिया चल रही होती है। तब पुरुष तो दूसरी शादी तक इसी दौरान कर लेता है और बेहतर जिंदगी जीता है, लेकिन स्त्री इसी उधेड़बुन में उलझी रहती है कि उसका निकट भविष्य क्या होगा? ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से यह कहना कि अब तलाक के लिए 06 महीने भी रुकना जरूरी नहीं है! यह दर्द भरे रिश्तों को ढोने से आज़ादी दिलाने वाला एक बड़ा कदम है।
‘शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन’ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि न्यायालय के पास दंपति के बीच सुलह की बिल्कुल भी गुंजाइश न होने की स्थिति के आधार पर विवाह को भंग करने की शक्ति है। गौरतलब है कि भारत में एक आंकड़े के अनुसार साल 2018 में 93 प्रतिशत विवाह अरेंज मैरिज के अंतर्गत हुए, जबकि वैश्विक औसत तकरीबन 55 प्रतिशत था। वहीं भारत में एक हजार विवाह में से 13 विवाहों में तलाक की स्थिति पैदा हुई। तलाक में अक्सर महिलाओं को मजबूर होना पड़ता है और इसके पीछे की सबसे बड़ी वज़ह भारतीय महिलाओं की श्रम-शक्ति में कम भागीदारी है। जिसके कारण उन्हें कई बार समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाना पड़ता है। आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि वैवाहिक संबंध का विघटन असमान रूप से महिलाओं को प्रभावित करता है। जिसमें घरेलू आय में अनुपातहीन नुकसान, गृह स्वामित्त्व खोने का उच्च जोखिम और एकल पालन-पोषण का भारी बोझ शामिल है।
ऐसे में अब हमारी कानून व्यवस्था ने इस त्रासद प्रक्रिया का भी हल निकाल दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि यदि पति-पत्नी का रिश्ता पूरी तरह टूट चुका हो! उसमें सुलह-समझौते की कोई गुंजाइश नहीं बची हो, तो संविधान के अनुच्छेद-142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को दी गई शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए तलाक को बिना इंतजार किए मंजूर किया जा सकता है। इस फैसले का सीधा सा मतलब है कि अब बिगड़े रिश्तों को कानूनी रूप से तोड़ने के लिए 6 महीने का इंतजार करना भी जरुरी नहीं होगा। अब पति-पत्नी आपसी सहमति से तुरंत तलाक ले सकते है। लेकिन, संविधान पीठ ने फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया कि ऐसी स्थिति में तलाक तभी संभव है, जब कोर्ट पूरी तरह आश्वस्त हो कि शादी वास्तव में टूट चुकी है और पति-पत्नी अब किसी भी हालत में साथ रहना नहीं चाहते। लेकिन, यह जांचना आसान नहीं है, कि कोर्ट आखिर कैसे तय करेगा कि अब इस विवाह बंधन में कुछ नहीं बचा और अलग होना ही एकमात्र विकल्प है!
– सोनम लववंशी