लाख दुखों की एक दवा हास्य

तीन संत थे, उन्हें लोग हंसने वाले संत के रूप में जानते थे। वे हमेशा मुस्कुराते रहते थे। साधारणत: संत गंभीर स्वभाव के होते हैं, पर ये संत हमेशा हंसते रहते थे। वे विभिन्न गांवों में घूमते रहते थे। उनका संदेश भी बिल्कुल अलग था। संत गांव के मुख्य चौराहे पर खड़े होकर हंसने लगते थे। एक संत हंसता, उसके बाद दूसरा हंसता था और फिर तीसरा। इस तरह एक-दूसरे के हंसने के कारण हंसी बढ़ती जाती थी और उनके चारों ओर गांव के लोग भी भीड़ इकट्ठा करके खड़े हो जाते थे। फिर धीरे-धीरे गांव वाले भी हंसने लगते थे। पूरे गांव में हंसी की लहर दौड़ जाती थी। गांववाले कहते, “महाराज आप हमें कुछ उपदेश देंगे?” संत कहते, “हंसते रहो, अपना जीवन कुछ इस तरह जियो कि हंसते मुस्कुराते रह सको। इस तरह आनंदित रहो कि दूसरे भी हंस सकें। अपने जीवन को इस प्रकार आनंदित करो कि वह आनंद का स्रोत बन जाए। हमारी कृति से हमने आप तक यह बात पहुंचाई है। हम इस गांव से चले जाएंगे पर आप हंसते रहना। आपके जीवन को आपके हंसते हुए चेहरे का विकल्प बनाइए जिससे दूसरों की जिंदगी में भी हंसी खिलती रहे। जीवन इस तरह आनंद से व्यतीत करो कि वह मुस्कान से खिले हुए फूलों की बगिया बन जाए।”

इसी दर्शन को लोगों तक पहुंचाते हुए और स्वयं उसी प्रकार जीवन व्यतीत करते हुए तीनों संत गांव-गांव घूमते रहते थे। उनके कदम पड़ते ही गांव की हवा ही बदल जाती थी। जगह जगह हंसी के स्रोत बनाकर, जीवन को आनंदित करते हुए वे इस तरह घूमते रहे मानो उन्होंने मानव के जीवन को सुंदर बनाने का बीड़ा ही उठा रखा हो। मनुष्य को ऐसा धर्म चाहिए जो हंसें और हंसाएं। यही संदेश देते हुए वे घूमते रहे।

यह तो हुई किसी समय की बात। परंतु आज सामाजिक परिस्थिति बदलने के कारण मनुष्य की मानसिकता भी बदल गई है। मनुष्य के पास स्वयं का विचार करने का समय नहीं है। खुद की ओर सकारात्मक दृष्टि से देखने का समय नहीं है। जीवित रहने की जद्दोजहद के बीच जिंदगी कुंठित हो गई है। जीवन में कृत्रिमता आ गई है। जीवन में आने वाली प्रसन्नता और आनंद के क्षणों का चिंतन कम होने के कारण उसकी जगह चिंता ने न केवल ले ली है वरन उसे पूरी तरह घेर लिया है। स्वार्थ और आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति के कारण मनुष्य संकुचित होता जा रहा है। हम अपने आस-पास इसके कई उदाहरण देख सकते हैं। आनंद और प्रसन्नता का अभाव हमें हर ओर दिखाई देता है, क्योंकि मनुष्य के चेहरों से प्रसन्नता गुम होती जा रही है।

संसार में केवल मनुष्य को हंसने का उपहार मिला है। यह उपहार प्राप्त करने वाली मनुष्य एक मात्र प्रजाति है। मनुष्य को हंसने और हंसानेवाला प्राणी कहा जाता है। मनुष्य के संदर्भ में अनेक व्याख्याएं की गई हैं। परंतु हंसनेवाला और हंसानेवाला प्राणी यह  एक ही व्याख्या सर्वोत्तम है। हंसनेवाली जितनी क्रियाएं इंसान करता है, उतनी अन्य कोई प्राणी नहीं करता। आनंदित रहना तथा उस आनंद को प्रकट करना यह मानव स्वभाव का मूल स्वरूप है। मनुष्य प्रकृति का ही एक भाग है। अगर हम स्वयं को प्रकृति से जोड़ लें तो हमें अपने-आप ही प्रसन्नता का अनुभव होने लगता है। यह प्रसन्नता धीरे-धीरे हमारे अंदर उतरती जाती है। इस प्रसन्नता तथा आनंद को प्रगट करने का उपहार प्रकृति ने केवल मानव को दिया है। प्रकृति के इस उपहार को प्रकट करने माध्यम ही है ‘हास्य’।

“सर्वेषां औषधानाम हास्य औषध उत्तम।

स्वाधीन, सुलभम चेतद नित्य आनंदनृणाम।

अर्थात- सभी औषधियों में सर्वोत्तम औषधि हास्य है। वह मनुष्य की आत्मचेतना में ही है। उसको प्राप्त करना अत्यंत सुलभ और सरल है। यह हास्य रोज आनंद देनेवाला है। यही इस सुभाषित का अर्थ है जो कि सौ प्रतिशत सही है। सुबह जब पति अपने काम के लिए निकलता है तब अगर पत्नी मुस्कुराते चेहरे से उसे विदा करती है तो पति भी राह में मिलनेवाले हर व्यक्ति से हंसते हुए तथा प्रसन्नचित भाव से मिलता है। जिससे भीड़ में होने वाली धक्का-मुक्की, ऑफिस में होनेवाले तनाव अपने-आप ही टल जाते हैं। जब वही पति शाम को थककर घर आता है, तब भी अगर पत्नी हंसते हुए उसका स्वागत करें तो पति को मंदिर में आने जैसी सात्विक अनुभूति होती है। एक स्मित हास्य के कारण संपूर्ण दिन आनंद से गुजरता है। साथ ही आने वाले अगले दिनों का स्वागत करने के लिए व्यक्ति तैयार हो जाता है।

शिक्षकों के लिए भी अध्यापन करते समय हास्य की अत्यंत आवश्यकता होती है। अगर वे अपने एक कालखंड में बच्चों को किसी तरह हंसा सके और बच्चे खिलखिलाकर हंसे तो वातावरण प्रसन्नचित्त रहेगा। अध्यापक भी अपना तनाव कम कर प्रभावी रूप से अध्यापन कार्य कर सकेंगे। विद्यार्थी भी अध्यापक की राह देखते रहेंगे। उनके मन में अध्यापक के प्रति आदर भाव उत्पन्न होगा। इस तरह एक स्मित हास्य अध्यापक तथा विद्यार्थियों के जीवन में आनंद निर्माण करेगा। कार्यालय तथा प्रशासन में भी अकड़ के साथ काम करने के कारण कई बाधाएं आती हैं; परंतु हास्य वातावरण की सारी बाधाओं को दूर करके स्वस्थ वातावरण का निर्माण करता है। वह आपको कार्यसिद्धि की अनुभूति देता है। हंसने से एकाग्रचित्त होने की क्षमता बढ़ती है। आत्मविश्वास बढ़ता है। पारस्परिक संबंधों में सुधार होता है। उत्साह बढ़ता है। जीवन की ओर सकारात्मक दृष्टि से देखने की आदत पड़ती है। जीवन में आनेवाले तनाव दूर हो जाते हैं। दुखों की तीव्रता भी धीमी पड़ जाती है। हास्य लाख दुखों की एक रामबाण औषधि है तथा स्वास्थ्य का अनूठा मंत्र भी है। इसीलिए महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि अगर मुझ में हास्य का भाव ना होता तो मैं कब का आत्महत्या कर लेता। हमारे संतों ने भी अपनी कृति तथा लेखन के माध्यम से यही बताया है कि अगर आपको दुख में भी सुख की अनुभूति चाहिए तो आप सदैव हंसमुख बने रहें। हंसने की विशेषता केवल मनुष्य में हैं। प्राणी तथा वृक्षों में हास्य भाव नहीं है। हास्य का अर्थ स्वभाव को प्रफुल्लित तथा आनंदित करना है। स्वयं का विस्तार भी हास्य में ही समाहित है।

लंबे समय तक दुख को जाहिर करना तथा उसे सुनते रहना मनुष्य पसंद नहीं करता। हास्य के साथ ऐसा नहीं है क्योंकि हास्य में संवाद होता है जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के हृदय तक पहुंचता है। वह स्वयं के साथ दूसरों को भी आनंदित रहने में सहभागी कर लेता है। हास्य एक सामाजिक क्रिया है। हास्य अर्थात शेयर करना। मनुष्य जितना आनंदित होगा उसे उतने ही सहृदय स्नेही जन मिलते जाएंगे। भगवान महावीर, गौतम बुद्ध, संत रामदास आदि का जीवन क्रम अगर ध्यान से देखें तो ज्ञात होगा कि ज्ञान प्राप्त करने के पूर्व वे संसार की वेदना से गंभीर हो गए थे। परंतु ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनमें परिवर्तन आ गया। वे आनंद से परिपूर्ण हो गए। उनके हृदय आनंद से भर गए। उनके हृदय से बहनेवाले इस आनंद को वे सभी को बांटते रहे। क्या परमात्मा से मिले ज्ञान को संकुचित करके अपने पास रखना उचित है? अपने आनंद में सभी को सहभागी करना चाहिए। इससे संपूर्ण जगत आनंदमय हो जाएगा। सृष्टि का यही तत्व है। लो और दो। आप जितने आनंदी होंगे, आपको दुनिया को उतना ही आनंद देना होगा। वह आनंद फिर आपके पास लौट आएगा। हम जो देते हैं वही हमें वापस मिलता है। हम जो देते हैं उसका झंकार उठता ही है। अतः जीवन को सुंदर बनानेवाले हास्य का अगर विवेचन किया जाए तो ध्यान में आता है कि हास्य दुनिया भर में समान अर्थ पहुंचाने वाली शारीरिक क्रिया है। अगर हम किसी की भाषा नहीं समझते हैं फिर भी उसकी ओर देखकर हम स्मित हास्य करें तो सामने वाले व्यक्ति के चेहरे पर भी स्मित आ जाता है। मित्रता के भाव अपने-आप मन में निर्माण हो जाते हैं। संवाद साधने की शुरुआत अगर मुस्कुराते हुए चेहरे से की जाए तो संवाद जीवंत हो उठता है। फोन पर बात करते समय भी अगर आपकी आवाज में हास्य है तो दूसरी ओर आपकी बात सुनने वाले तक सकारात्मक भाव पहुंचते हैं। अन्यथा संवाद की शुरुआत ही ‘आज आप रोज की तरह बात नहीं कर रहे हैं’ जैसे प्रश्नार्थक वाक्य से होती है। हंसने के लिए केवल एक क्षण ही काफी होता है। परंतु उसका परिणाम लंबी अवधि तक दिखाई देता है।

अतः हमारे पूर्वजों ने कहा है- हंसना पुण्य है, हंसाना महापुण्य है। आज हंसने के लिए अनेक जगहों पर हास्य क्लब अर्थात ‘लॉफिंग क्लब’ शुरू किए गए हैं। रियलिटी शो तथा स्टैंड अप कॉमेडी शो जैसे कार्यक्रम टीवी पर हर रोज दिखाई देते हैं। पहले भी हास्य फ़िल्में बनती थीं परंतु अब उनकी संख्या अधिक हो गई है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि आज जीवन में सहजता कम हो गई है। व्यक्ति के जीवन में हंसने और हंसाने के क्षण कम होते जा रहे हैं। आज हंसने के क्षण हमें प्रयत्नपूर्वक ढूंढ़ने पड़ते हैं। इसका कारण है सामूहिकता का कम होना। व्यक्ति अकेले एक जगह बैठकर हंसना पसंद करता है। और उसका विकल्प टीवी-फिल्मों में ढूंढ़ता है। इसीलिए जीवन में कृत्रिम हास्य निर्माण करने वाले कॉमेडी शो का बाजार बढ़ रहा है। संस्कृत के आचार्य मुख्यतः नौ रस  मानते हैं। श्रृंगार रस, अद्भुत रस, करुण रस, वीभत्स रस, रौद्र रस, वीर रस, शांत रस, भयानक रस और हास्य रस।  मानव जीवन के सभी प्रतिबिंब इन रसों में दिखाई पड़ते हैं। मानव जीवन से ही इन रसों का निर्माण हुआ है। इनका संबंध सत्व, रज और तम इन तीन तत्वों से होता है। हास्य रस का उल्लेख भले ही अंत में हुआ हो परंतु वह जीवन के सभी रसों पर परिणाम करने वाला महत्वपूर्ण घटक है। हास्य के अनेक प्रकार हैं। स्मित हास्य, मंद हास्य,  दंत दर्शन हास्य, गालों पर पड़ने वाला हास्य, मोनालिसा स्टाइल का हास्य, ठहाके लगाने वाला हास्य इत्यादि। हंसी के विभिन्न प्रकार हैं परंतु इन सभी से आनंद की निर्मिति होती है। यही सत्य है।

कभी-कभी हास्य में व्यंग्य भी शामिल होता है। गलतियां देखकर हंसना, कुत्सित रूप से हंसना, किसी के गिरने पर हंसना इत्यादि। इस हास्य दोष को अगर छोड़ दिया जाए तो हास्य के कारण होने वाली आनंद की बरसात जीवन को ताजगी प्रदान करती है। उपहास स्वरूप किया गया हास्य मन को ठेस भी पहुंचाता है। महाभारत में दुर्योधन के पानी में गिरने के बाद द्रौपदी उपहासात्मक हंसी थी। इसी के कारण महाभारत का युद्ध हुआ। संसद में रेणुका चौधरी की गड़गड़ाहट पूर्ण हंसी के कारण ही प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को रामायण सीरियल की याद आ गई। हंसना पूर्ण रूप से व्यक्तिगत होता है। रेणुका चौधरी ने इस हास्य को सार्वजनिक स्वरूप देने का प्रयत्न किया। इसके कारण उनकी ही हंसी हो गई। हंसना एक कला भी है। कहां और किस तरह हंसा जाए इसके लिए यह कला उपयोगी होती है। हंसने की दो पद्धतियां हैं। कुछ लोग सामान्य रूप से हंसते हैं अर्थात हंसने वाली बातों पर हंसते हैं परंतु कुछ लोग हंसने वाली बातों पर भी तर्क ढूंढ़ते रहते हैं। जब तर्क ढूंढ़ा जाता है तो नैसर्गिक हास्य गायब हो जाता है। रामलीला में रावण क्षण-क्षण में ठहाके लगाकर हंसता रहता है। यह सामान्य हास्य नहीं है। इस प्रकार के हास्य को नाट्यमयकहा जाता है। जब एक छोटा बच्चा हंसता है, उस समय उसके दिमाग तथा शरीर का संबंध रुक जाता है। वही उत्तम हास्य है। हंसना एक वर्तमान क्रिया है। हंसते समय व्यक्ति भूतकाल या भविष्य काल में नहीं हो सकत। मुक्त रूप से हंसते समय व्यक्ति निर्विकार-निर्विचार होता है। हास्य एक उपचार पद्धति भी है। कहा जाता है ‘लाफ्टर  इस द चीपेस्ट एंड बेस्ट मेडिसिन।’

आज के इस महंगाई के दौर में कुछ भी सस्ता नहीं है। दवाइयां तो बिल्कुल भी नहीं। परंतु हास्य सस्ती दवा होकर भी मस्त है। यह सभी के पास होता है। परंतु वास्तविक रूप से डॉक्टर के द्वारा दी गई दवाइयों का हम नियमित रूप से सेवन करते हैं परंतु ईश्वर नामक डॉक्टर ने हमें जो हास्य के रूप में निःशुल्क औषधि दी है, उसका सेवन करना हम भूल जाते हैं। प्रत्येक मनुष्य आनंदित रहे यही हास्य भाव का उद्देश्य है। फिर व्यक्ति दुखी क्यों रहता है? यही सबसे बड़ा गहन प्रश्न है। यह पढ़ते समय हम कहां हैं यह प्रत्येक को देखना चाहिए। हंसना जीवंत समाज की पहचान है। एक सर्वेक्षण के अनुसार पहले व्यक्ति दिन भर में लगभग 15 मिनट हंसता था। परंतु आज जीवन का स्तर ऊंचा होने के बावजूद भी व्यक्ति साढ़े चार मिनट से अधिक नहीं हंसता और अगर हंसा भी तो बिना किसी कारण के नहीं हंसता। छोटे बच्चे दिन भर में  300 से 400 बार हंसते हैं। परंतु जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है वे अधिक से अधिक 12 से 15 बार हंसते हैं। छोटे बच्चे केवल किसी चुटकुले पर ही नहीं हंसते उन्हें हंसने के लिए छोटा सा कारण भी काफी होता है। बच्चे दिल से हंसते हैं और बड़े दिमाग से। हम जब किसी चुटकुले पर हंसते हैं तब वह हंसी अधिक से अधिक 2 से 3 सेकंड की होती है। परंतु शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जब हम खुल कर हंसते हैं तब हम ध्यान की अवस्था में होते हैं। हमारी विचार प्रक्रिया रुक जाती है। हंसते हुए विचार करना मुश्किल है। यह दो बातें एक साथ करना संभव नहीं है। या तो आप हंस सकते हैं या फिर विचार कर सकते हैं। आज मनुष्य के पास बहुत कुछ है। परंतु हास्य नहीं है। यह हास्य संपदा उसी को मिलती है जिसका मन निर्मल होता है। अतः हास्य हंसकर टालने वाली बात नहीं है। उसकी ओर गंभीरता से देखा जाना चाहिए। कई बार हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि हंसा कैसे जाए? फिर यही मुद्दा है। हंसने के लिए चुटकुलों पर निर्भर ना रहे। मन को प्रसन्न रखना यही इसका विकल्प है। अगर मन प्रसन्न रहेगा तो व्यक्ति अपने आप हंसमुख रहेगा। कई बार हमारे आसपास विभिन्न घटनाओं में भी हास्य छुपा होता है। हमें बस उस सकारात्मक हास्य को ढूंढ़ना आवश्यक है। हंसने के लिए कोई मूल्य नहीं चुकाना पड़ता। इसके विपरीत हमारी हंसी किसी के लिए अनमोल हो सकती है। सब से अंत में हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इंसान को जीवन में आनंदित रहना चाहिए। जीवन के गणित में हास्य से गुणा करें और दुख से भाग दें। इसके कारण आपके पास आनंदित जीवन का शेष बचेगा। छोटे बच्चों से बड़े लोगों तक के जीवन में आनंदित रहने के लिए हास्य की आवश्यकता है। अगर हम हंसना सीख जाते हैं तो ईश्वर की प्रार्थना करना सीख जाते हैं। यही संदेश आलेख की शुरुआत में तीन संतों द्वारा दिया गया है। लाख दुखों की एक दवा है हंसना! क्यों न आजमा लें?

 

Leave a Reply