पतंजलि वाला कोलगेट

मूल उत्पादों के पर्याय भले ही बाजार में आ गए हैं, लेकिन उनके मूल नामों को लोग आज भी नहीं भूले हैं। पतंजलि वाला कोलगेट,  पतंजलि मैगी, पतंजलि रिन और पतंजति डेटॉल जैसे नाम आप दुकान पर अक्सर सुन सकते हैं। कौन कहता है नाम में कुछ नहीं रखा है?

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर

वाकिये होते गए और मैं हंसता गया….

हां भई शायरी की दूसरी पंक्ति ‘लोग साथ आते गए, कांरवां बनता गया’ ही है। पर वो तो मजरूह सुल्तापुरी साहब ने लिखा था। उनका लिखा मैं क्यों चुराऊं? खैर!

बात दरअसल यह है कि साठ-पैंसठ साल का रिटायर्ड आदमी और आठ-नौ साल का बच्चा घर की औरतों के फेवरेट होते हैं। क्योंकि कुछ ‘खास’ काम न होने के कारण उन्हें कभी भी, कहीं भी दौड़ाया जा सकता है। जरा सामने वाली दुकान से शक्कर ले आना, सब्जी के ठेले से धनिया ले आओ, धोबी के कपड़े दे आओ आदि जैसे काम इन्हें कभी भी करने पड़ जाते हैं। इसलिए हमेशा की तरह आज भी श्रीमती जी की ऑर्डर रूपी बिनती को स्वीकार करते हुए मैंने चप्पल पहनी और मोबाइल अपनी जेब में रखते हुए घर से निकला ही था कि बहू ने वक्त की नजाकत को देखते हुए अपना भी एक काम और झोला मुझे थमा दिया। इन देवियों की एक बात बड़ी अच्छी है कि ये मुझे जब कोई काम बताती हैं तो एक डेढ़ घंटे का मार्जिन जरूर रखती हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि मुझे कदम-कदम पर कोई न कोई मिल ही जाता है। मेरी इसी आदत ने मुंबई जैसे महानगर में भी कम समय और नई जगह होने के बावजूद मेरे कई मित्र बना दिए हैं। क्योंकि हम तो उस शहर से ताल्लुक रखते हैं जहां मोबाइल की जरूरत नहीं होती थी, सब अपने-अपने आंगन में खड़ेे होकर भी घंटों एक दूसरे से बतिया लेते थे।

लिफ्ट से बाहर निकलकर ज्यों ही मैं सोसायटी कम्पाउंड में आया, बड़ी भारी आवाज में मुझे चौकीदार ने चेताया, ‘अंकल, जरा साइड में हो जाओ, सिंटेक्स ऊपर चढ़ा रहे हैं।‘ उसकी चेतावनी सुनकर जब मैंने ऊपर देखा तो एक काली टंकी छत पर चढ़ाई जा रही थी। उत्सुकतावश जब मैंने टंकी के पेपर्स देखे तो मुझे कुछ शक हुआ। मैंने चौकीदार से पूछा ‘सिंटेक्स कहां है?’ वह बोला ‘ऊपर है।’ मैंने कहा, ‘बिल तो हाईटेक नाम से है।’ तो वह बोला, ‘तो ये हाईटेक की ही सिंटेक्स है।’ दिमाग पर थोड़ा और जोर डालने तथा चौकीदार से कुछ और पूछताछ करने पर मेरे भेजे में ये बात उतरी कि बंदे के लिए ‘सिंटेक्स’ किसी कंपनी या ब्रांड का नाम नहीं बल्कि पानी की टंकी का पर्यायवाची शब्द है। उसे उसकी ‘सिंटेक्स’ के साथ छोड़ मैं मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गया क्योंकि मेरी घर की देवियों से मिले एक घंटे की मार्जिन में से 10 मिनट गुजर चुके थे।

श्रीमती जी के सामानों की लिस्ट थोड़ी लंबी थी, अत: मैंने सोचा कि पहले बहू का काम कर लूं। उसने मुझे अपने कुछ कागजों की प्रतियां बनवाने के लिए कहा था। इलाके में नया होने कारण मैंने कुछ लोगों और दुकानदारों से पूछताछ की कि आस-पास फोटोकॉपी की दुकान कहां है? वे लोग मुझे कुछ इस तरह घूर रहे थे जैसे मैंने कुछ अनोखी चीज पूछ ली हो। कुछ ने तो मुझे फोटो स्टूडियो भेज दिया। फिर जब मैंने पेपर्स निकालकर दिखाए और समझाया कि इसकी प्रतियां बनवानी हैं तो दुकानदार झल्लाते हुए बोला, ‘क्या सुबह-सुबह टाइम खोटी कर रहे हो। सीधे-सीधे क्यों नहीं कहते झेरॉक्स करानी है। वो देखो सामने है।’ ठगा सा मुंह लिए मैं उसकी दिखाई दुकान की ओर चल पड़ा। दुकान पर जाकर मेरे ज्ञान में वृद्धि हुई कि फोटोकापी की पहली मशीन ‘झेरॉक्स’ थी इसलिए फोटोकॉपी ने अपना नाम बदलकर ‘झेरॉक्स’ रख लिया है। हंसी तो तब फूट पड़ी जब (शायद) कॉलेज जाने की जल्दी में एक युवक ने बिना बाइक से उतरे दो पेपर दुकानदार को थमाए और बोला ‘जल्दी से दो झेरॉक्स कॉपी’ निकाल दो।

घर लौटते हुए अपनी पर्मनन्ट सब्जी की दुकान पर धनिया, मिर्ची लेने पहुंचा तो देखा सब्जीवाला अपने साथ काम करने वाले लड़के को टैंपो से सब्जी उतारने के निर्देश दे रहा है और खुद आराम से बैठा है। मुझे आता देख उसने कहा, ‘बाबूजी, थोड़ा समय लगेगा, आइए, तब तक भोला खा लें?’ मैंने अभी तक ‘भोला’ या तो अपने गांव के नौकर का नाम सुना था या फिर बैल का। इनके अलावा खाया जा सकने वाला ‘भोला’ मेरी मूढ़ मति से परे था। पर जब उसने अपनी जेब से पोटली निकाली, तब मैं समझा कि जनाब मुझे भोला छाप जर्दा खाने का ऑफर दे रहे हैं। बड़ी शालीनता के साथ उनको मना करते हुए मैंने अपनी धनिया, मिर्ची उठाई और अपने अगले पड़ाव की ओर चल पड़ा।

रास्ते में हमारे परिचित के घर मैंने देखा एक दादी और पोते के बीच संवाद चल रहा था। पोता ऊपर की ओर इशारा करके कहे जा रहा था ‘हाइड एण्ड सीक’ और दादी उससे कह रही थी मैं नीचे ही खड़ी रहकर दस तक गिनती हूं तुम छिप जाओ। फिर भी पोता ऊपर की ओर ऊंगली दिखाकर बार-बार रट लगाए जा रहा था ‘हाइड एण्ड सीक’,‘हाइड एण्ड सीक’। पोता मानने को तैयार नहीं और दादी घुटने के दर्द के कारण ऊपर चढ़ने में असमर्थ। आखिरकार मैंने अंदर जाकर मसला सुलझाना चाहा। दादी को अभिवादन कर जैसे ही मैंने बच्चे को गोद में उठाया उसने लपककर ऊपर की अल्मारी में रखा बिस्किट का डिब्बा निकाल लिया। दादी ने उससे कहा, अभी तो तुम्हें खेलने की पड़ी थी और अब बिस्किट खा रहे हो? तब मुस्कुराते हुए पोता बोला, वही तो मैं इतनी देर से कह रहा था कि मुझे ‘हाइड एण्ड सीक‘ बिस्किट चाहिए। अब तक पोते का मनुहार करने वाली दादी के तेवर अचानक बदल गए। लगभग अपना सिर पीटते हुए वे कहने लगीं, ‘न जाने इन नामों में कब सुधार आएगा और कब मैं समझ पाऊंगी कि छोरा खाना चाहता है कि खेलना।’

अब मेरा आखरी पड़ाव था रामदेव बाबा की दुकान अर्थात पतंजलि स्टोर। घर से निकलते समय श्रीमती जी ने जिन तीन चार सामानों की सूची दी थी वो सब यहां मिल जाने थे। हमारे घर में योगाचार्य से बिजनेसमैन बने रामदेव बाबा के सभी फैन हैं। अब चूंकि हमारी तरह उनके अर्थात उनके ’उत्पादों’ के और भी फैन हैं तो जाहिर सी बात है कि दुकान में भीड़ थी और डिपार्टमेंटल स्टोर न होने के कारण सारी वस्तुएं दुकानदार ही लोगों को निकालकर दे रहा था। अचानक मुझे अपने पीछे से मुझ से भी जरा वयस्क परंतु दमदार आवाज सुनाई दी, ‘अरे जरा वो पतंजलि वाला कोलगेट निकाल देना।’ आवाज सुनकर मेरे मन में एक आश्चर्य मिश्रित आनंद की लहर दौड़ गई कि जिस कोलगेट ने हमारे दातून और लाल दंत मंजन को न सिर्फ हमारे मुंह से बल्कि घर से भी बाहर का रास्ता दिखा दिया था, उसे रामदेव बाबा ने खरीद लिया? योग के कारण रामदेव बाबा पर भले ही इसका कुछ असर न पड़ा हो पर मेरा सीना गर्व से जरूर ‘56 इंच’ चौड़ा हो गया। आखिर कोई तो मिला जिसने कोलगेट को झुकने पर मजबूर कर दिया था। परंतु मेरा यह आनंद ज्यादा देर तक नहीं टिक सका क्योंकि मैंने कई ऐसी आवाजें सुनीं जो पतंजलि मैगी, पतंजलि रिन और पतंजति डेटॉल की मांग कर रहे थे। दुकान से बाहर निकलते समय मैं सोच रहा था कि रामदेव बाबा या अन्य कंपनियां अपने उत्पादों के माध्यम से केवल विकल्प निर्माण कर सके हैं। लोगों के दिमाग में अभी भी पहली बार उत्पाद बनाने वाली कंपनी का नाम ही उस उत्पाद का पर्याय बन गया है। फिर चाहे वो सिंटेक्स हो, झेरॉक्स हो, भोला हो या कोलगेट हो। लोगों ने कंपनियों के नाम से ही उत्पाद की पहचान बना ली है।

एक घंटे के अंदर लौट आने के अपने रिकॉर्ड को बरकरार रखते हुए मैंने घर के अंदर प्रवेश किया तो देखा आज श्रीमती जी के चेहरे पर कुछ अलग ही नूर था। जब उनसे इसका राज पूछा तो उन्होंने शरमाते हुए कहा, ‘आज बहू की लक्मे वाली फेयर एण्ड लवली लगाई है।’

 

 

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