डॉ. भागवत के भाषण पर विवाद का कारण नहीं

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने नागपुर में संघ के प्रशिक्षण शिविर के तृतीय वर्ष के समापन पर जो कुछ बोला उस पर देश में विवाद और बहस चल रहा है। हालांकि उनका भाषण काफी लंबा था जिसका मूल स्वर यही था कि हमारे बीच अलग-अलग प्रकार के भेद हो सकते हैं किंतु सबको राष्ट्र की एकता – अखंडता के साथ इसकी मजबूती के लिए एकजुट होकर काम करना चाहिए। इसी मूल स्वर को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने बहुत सारी बातें बोली। हमारे देश की राजनीति और गैर राजनीतिक एक्टिविज्म की बड़ी समस्या है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता कुछ भी बोलें उनमें से अपने अनुसार कुछ पंक्तियां निकाल कर बवंडर खड़ा करने की हमेशा कोशिश होती है। उन्होंने दुनिया में इस्लाम के विस्तार का इतिहास बताते हुए कहा कि स्पेन से मंगोलिया तक वे गए लेकिन वहां के लोग जागृत एवं संगठित हुए, संघर्ष किए तो वहां इस्लाम उस रुप में नहीं है। भारत ऐसा देश है जहां इस्लाम को अपने मजहब के अनुसार उपासना करने की पूरी स्वतंत्रता है। संभवतः वे यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि जो लोग भारत में इस्लाम खतरे में है कि भयानक तस्वीर पेश कर रहे हैं वे गलत हैं। इससे देश की एकता खंडित होती है। अपने देश का हित चाहने वाला कोई भी बड़ा व्यक्तित्व यही कहेगा कि मजहब आपका जो भी हो ऐसी भाषा मत बोलिए, ऐसी सोच मत फैलाइए जिससे देश के अंदर अविश्वास बढ़े और हमारा विकास बाधित हो।

देखें तो डॉक्टर भागवत ने केवल इतिहास का तथ्य रखा। सच यही है कि इस्लाम का विस्तार तेजी से यूरोप से लेकर एशिया, अफ्रीका आदि में हुआ। इस्लाम के विस्तारकों ने भीषण आक्रमणों की क्रूरता से यहूदी एवं ईसाई धर्म को पूरी तरह खत्म करने की कोशिश की। वे वीजीत होते, आगे बढ़ते गए। इसी के विरुद्ध विद्रोह हुआ और इतिहास में क्रूसेड यानी धर्मयुद्ध  की लंबी श्रृंखला है। लगभग सात धर्म युद्ध का इतिहास 11 वीं सदी के अंत से लेकर 13 वीं सदी के अंत  तक लगातार मिलता है। यूरोप के ईसाइयों ने 1098 और 1291 के बीच अपने रीलीजन की पवित्र भूमि फिलिस्तीन और उसकी राजधानी यरूशलम में स्थित ईसा की समाधि का गिरजाघर मुसलमानों से छीनने और अपने अधिकार में करने के प्रयास में युद्ध किए । यह धीरे-धीरे विस्तारित हुआ। वास्तव में धर्मयुद्ध इतिहास के पश्चिमी काल विभाजन के अनुसार मध्यकाल में  लैटिन चर्च द्वारा आरंभ, समर्थित और कभी-कभी निर्देशित धार्मिक युद्धों की लंबी श्रृंखला थी । 1095  में प्रथम धर्मयुद्ध आरंभ हुआ और 1099 में यरूशलम की विजय हुई। यह युद्ध किसी न किसी तरह 15वीं सदी तक चलते रहे। आप गहराई से देखेंगे तो ईसाइयत और इस्लाम का टकराव पूरी तरह कभी खत्म नहीं हुआ। 19वीं सदी के महाद्वीपीय युद्ध हो या फिर 20 वीं सदी का बाल्कन युद्ध जिसके परिणाम स्वरूप प्रथम युद्ध हुआ उसकी भी छानबीन करें तो मूल कारण आपको यही दिखाई देगा। तो यह सत्य है जो इतिहास का ज्ञान रखने वाले सभी को पता है।

इसका अर्थ यह हुआ कि जिस तरह इस्लाम ने ईसाइयत को खत्म करने और अपने ही मजहब को थोपने की कार्रवाई की उसकी प्रतिक्रिया में ईसाइयों ने वही किया। भारत का चरित्र इससे बिल्कुल अलग रहा। हमले का प्रतिकार एक बात थी, मजहब के रूप में इस्लाम को कभी कोई खतरा भारत में नहीं रहा। ऐसा लगता है डॉक्टर मोहन भागवत ने यही बात समझाने के लिए इसका उल्लेख किया।

आज का भयावह सच यही है कि लंबे समय से संघ विरोधियों तथा राजनीति में भाजपा विरोधियों ने भारत सहित दुनिया भर में दुष्प्रचार किया है। मुसलमानों के अंदर भी ऐसे लोग हैं जिन्होंने यही प्रचारित किया है कि यह संगठन इस्लाम विरोधी है तथा इनकी शक्ति जैसे-जैसे बढ़ेगी ये इस्लाम को मजहब के रूप में खत्म करने की कोशिश करेंगे। अनेक कट्टरपंथी मजहबी इस्लामिक नेता लगातार बोल रहे हैं कि हमारी मस्जिदें छीन  जाएंगी, हमारा नमाज पढ़ना तक रुक जाएगा। ऐसे दुष्प्रचारों से आम मुसलमानों के अंदर गुस्सा बढ़ाया गया है और उन्हें लगता है कि अपने मजहब की रक्षा के लिए किसी सीमा तक जाना चाहिए। आपको हर दिन और किसी दिन न जाने कितनी बार यह सुनने को मिलता है कि भारत की धार्मिक विविधता खतरे में है, संविधान खतरे में है, हिंदुत्ववादी तत्वों ने सारी संस्थाओं को नियंत्रित कर लिया है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नष्ट कर दी गई है आदि-आदि। जिस देश में बड़े नामचीन और प्रभावी लोग इस तरह देश की दिन-रात  डरावनी तस्वीर पेश कर रहे हो वहां किस तरह की मानसिकता तैयार होती होगी इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है । देश की सीमाओं से बाहर भी कुछ लोग इसी तरह की बातें बोल रहे हैं। इन दुष्प्रचारों को कमजोर करना हर भारतीय का दायित्व है।  मोहन भागवत इस समय विश्व के सबसे बड़े हिंदू संगठन तथा व्यापक संगठन समूह के प्रमुख हैं। इस नाते उनका दायित्व सबसे ज्यादा है। सबसे ज्यादा आरोप इस संगठन परिवार पर ही लगता है, इसलिए भी उन्हें समय-समय पर अलग-अलग तथ्यों और तर्कों से अपने स्वयंसेवकों, कार्यकर्ताओं, समर्थकों के साथ सभी भारतीयों एवं दुनिया भर में रहने वाले भारतवंशियों व भारत में रुचि रखने वालों को संदेश देना पड़ता है।

किसी भी संगठन और विचारधारा से असहमत होने में न समस्या है और नय बुराई। एक स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज का यही स्वाभाविक लक्षण है। समस्या तब आती है जब आप दुराग्रह, हठधर्मिता अपनाते हैं और निहित अलग-अलग स्वार्थों के वशीभूत होकर अनर्गल बातें करते हैं। ऐसा नहीं होता तो डॉक्टर भागवत के भाषण का स्वागत होता। आप किसी भी विचारधारा के हों, अंतिम लक्ष्य सबका अपने देश की उन्नति तथा इसकी एकता अखंडता को बनाए रखना ही होगा। भारत का विश्व में सम्मान बढे, गौरव बढ़े,यह अपनी सांस्कृतिक- सभ्यतागत -अध्यात्मिक विरासत एवं हर प्रकार की उपलब्धियों के आधार पर विश्व को दिशा देने वाली भूमिका में आए ऐसा अपने देश से प्रेम करने वाला कौन भारतीय नहीं चाहेगा? किसी को इस महान सोच में भी फासिस्टवाद और सांप्रदायिकता दिखता है तो ऐसे लोगों के बारे में क्या कहा जा सकता है? डॉक्टर भागवत का पूरा भाषण सार्वजनिक है। स्वतंत्रता के अमृत काल में भारत की आंतरिक और बाहरी उपलब्धियों का उल्लेख करते हुए वे हर भारतीय का आत्मविश्वास बढ़ाते हैं, उसे देश के लिए विचारने और काम करने की प्रेरणा देते हुए  दिखते हैं। कोई नहीं कहता कि भारत की सारी समस्याएं दूर हो गई हैं या इस देश के आम व्यक्ति के जीवन में कठिनाइयां और समस्याएं नहीं है। किंतु समग्र रूप में देखें तो विश्व के अनेक देशों की तुलना में भारत की स्थिति संतोषजनक और बेहतर है। जो चुनौतियां हैं उनसे भी देश निपटने के लिए प्रयासरत है। इसी तरह विश्व पटल पर शक्तिशाली विरोधियों द्वारा बाधा डालने के बावजूद भारत का सम्मान एवं विश्वसनीयता लगातार ऊंचाइयां छू रही हैं। इससे हर भारतीय को अपने देश को लेकर गौरव बोध होना चाहिए। जो समस्याएं और चुनौतियां हैं उनसे निपटने के लिए राजनीतिक एवं वैचारिक मतभेद देशहित पर हाबी होने देने से बचाना अपरिहार्य है।

डॉक्टर भागवत के पूरे भाषण की थीम यही है कि आपके मतभेद होंगे लेकिन देश के द हित का ध्यान रखेंगे तो यह अपने आप कम हो जाएंगे और इसकी कोशिश हर भारतीय को करते रहनी चाहिए। इसमें सबसे नकारात्मक भूमिका किसी व्यक्ति या समुदाय में प्रभावी संगठनों या सरकारों को लेकर भय के मनोविज्ञान का है। अगर किसी समाज के अंदर अपने देश की व्यवस्था, यहां के बड़े संगठनों , सरकारों या किसी समुदाय को लेकर भय और गुस्सा पैदा कर दिया गया तो उस समूह में राष्ट्रवाद का भाव हाशिए पर चला जाता है। देश के नेताओं, एक्टिविस्टो एवं मीडिया के कुछ पुरोधा बार-बार यही डर पैदा कर रहे हैं। ऐसे लोगों का केवल विरोध करना पर्याप्त नहीं है। इसके समानांतर व्यापक सकारात्मक परिदृश्य एवं उनको सहमत कराने योग्य तथ्यों एवं विचारों को लगातार अभिव्यक्त करते रहना आवश्यक है। डॉ भागवत के भाषण का सार यही है।

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