राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने कुछ राज्यों में पिछड़ा वर्ग आरक्षण को लेकर जो विसंगतियां और जानकारियां दीं हैं वह हैरत में तो डालती ही है चिंता भी पैदा करती है। इनमें विशेष रूप से चार राज्यों पश्चिम बंगाल, बिहार, राजस्थान और पंजाब की चर्चा है। अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार इन चारों राज्यों में पिछड़ा वर्ग के लोगों को सरकारी अनदेखी, नियमों और नीतियों के कारण नौकरियों तथा शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के लाभ से वंचित होना पड़ रहा है। हैरत की बात है कि सरकारों के पास इसकी सूचना है किंतु वो इस दिशा में कदम उठाने को तैयार नहीं हैं। वास्तव में पिछड़ा वर्ग आयोग ने जब उनके सामने ये बातें रखीं तो राजनीतिक बयानबाजी की जाने लगी है। कहीं सरकारी नियम ऐसे हैं जिनसे आरक्षण के पात्र वंचित हो रहे हैं तो कहीं अन्य कारणों से। कुछ राज्यों में पिछले अनेक वर्षों से कई जिलों में किसी को आरक्षण मिला ही नहीं है। पिछड़ा वर्ग आयोग अगर इनकी ओर ध्यान नहीं देता तो इन राज्यों के रवैये को देखते हुए यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हमारे आपके समक्ष सच्चाई आती।
पहले बिहार की ओर आते हैं। बिहार में क्रीमी लेयर से नीचे आने के लिए आर्थिक प्रमाण पत्र में माता- पिता के साथ भाई बहनों की आय का भी लेखा-जोखा लिखा जाता है। यही नहीं उसमें कृषि से आय भी शामिल है। परिणामतः अनेक लोग जिन्हें आरक्षण मिलना चाहिए वो वंचित रह जाते हैं। नीतीश सरकार में आरक्षण प्राप्तकर्ताओं की सूची या जाति प्रमाण पत्र को गहराई से देखेंगे तो वहां आज भी कुर्मी जाति को कोष्टक में छोटानागपुर लिखा जाता है। झारखंड बिहार से अलग हो चुका है और छोटानागपुर उसका भाग है। स्वयं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुर्मी जाति से आते हैं। यह जाति उनके साथ राजनीति में खड़ी रहती है। क्या वे मानते हैं कि बिहार के कुर्मियों के साथ कोष्टक में छोटानागपुर लिखा जाना चाहिए था। अगर इसकी वैधानिक समीक्षा हो तो इस प्रमाण पत्र पर मिले सारे आरक्षण अवैध करार दिये जा सकते हैं। हैरत की बात है कि सब कुछ जानते हुए इस समाज के पढ़े-लिखे लोग भी ऐसे सर्टिफिकेट प्राप्त करते रहे हैं। वैसे भी कुर्मी जाति के बारे में यह कहना ऐतिहासिक रूप से गलत है कि उनका मूल स्थान छोटानागपुर होगा। कभी अंग्रेजों ने उन्हें इस प्रकार से चिन्हित किया और दुर्भाग्य देखिए आज तक यही चल रहा है।
प्रश्न है कि नीतीश सरकार इस प्रकार क्रीमी लेयर के संदर्भ में आय प्रमाण पत्र का नियम क्यों बनाई हुई है?बिहार में नीतीश कुमार एवं लालू प्रसाद यादव दोनों मंडलवादी राजनीति के कारण शीर्ष पर पहुंचे। यद्यपि वे आपातकाल के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण आंदोलन की उपज हैं पर मंडल आयोग की सिफारिश पर हुई राजनीति ने उन्हें यहां तक पहुंचाया है । पहले काका कालेलकर और फिर मंडल आयोग पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देने की अनुशंसा के लिए गठित हुआ था। दोनों नेता आज भी स्वयं को पिछड़ी जातियों का मसीहा घोषित करते हैं और उनके राजनीतिक शक्ति का मूलाधार यही है। ऐसे लोग अगर अपने सरकारी नियमों से इन्हीं जातियों को आरक्षण से वंचित कर रहे हैं तो इसे क्या कहा जाए? पिछड़ी जाति में आने वाले बिहार के लोगों को इस सच्चाई को समझना चाहिए तथा इसके विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए।
पश्चिम बंगाल की स्थिति ज्यादा चिंताजनक है। यहां कोई 179 जातियों को पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया है। इनमें 118 जातियां मुस्लिम समुदाय से हैं। यानी हिंदुओं की केवल 61 जातियां। मुसलमानों में पिछड़े वर्ग से आने वाले पात्रों को आरक्षण की परिधि में रखना अस्वाभाविक नहीं है। पर यह तो विचार करना पड़ेगा कि आखिर हिंदुओं से ज्यादा मुसलमानों में पिछड़ी जातियां क्यों हैं? इस संदर्भ में जब आयोग ने पूछा तो बताया गया कि अनेक पिछड़ी जातियां हिंदू से मुस्लिम धर्म में परिवर्तित हो गईं। राज्य सरकार से जब इसका आंकड़ा मांगा गया तो उत्तर आया कि कितनी जातियां कितनी संख्या में मुस्लिम धर्म में परिवर्तित हुईं इसका आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। इसके अर्थ क्या है? आप देखेंगे कि पश्चिम बंगाल में 1971 के बाद लगातार मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ी है। ऐसा हिंदू समुदाय की आबादी का प्रतिशत गिरा है और वही लगातार मुस्लिम समुदाय का प्रतिशत बढ़ता गया है। 1981 में बंगाल में मुसलमानों की आबादी 21.5 प्रतिशत थी जबकि 2011 में यह 27.05% हो गई।
जनसंख्या के अनुपात में यह असामान्य वृद्धि है। इस समय अनुमान यह है कि बंगाल में मुसलमानों की आबादी करीब 30 प्रतिशत है। इसका ठीक प्रकार से अध्ययन होना चाहिए कि क्या इसके पीछे आरक्षण की भी भूमिका है? राजस्थान में तो सात जिलों में पिछले अनेक वर्षों से किसी को भी अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रमाण पत्र ही नहीं मिला है। इन जिलों में काफी संख्या में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग रहते हैं। राजस्थान में भी लगभग बिहार की तरह आय प्रमाण पत्र का आधार तय किया गया है और इस कारण भारी संख्या में अन्य पिछड़ा वर्ग में आने वाले पात्र आरक्षण से वंचित हो रहे हैं।
हमारे देश की समस्या यह है कि जैसे ही किसी विषय और मुद्दे में अल्पसंख्यकों यानी मुसलमानों की बात आती है हम चर्चा करने से बचते हैं। थोड़ी भी गहराई से इन तीनों राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण की समीक्षा करेंगे तो साफ दिख जाएगा कि इनमें अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण का लाभ मुस्लिम समुदाय को ज्यादा मिल रहा है। साफ है कि इसके पीछे वोट बैंक की राजनीति है। 2018 में नरेंद्र मोदी सरकार ने जब पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया तो राज्यों को अपने यह छूट मिली कि वे राज्य स्तर पर पिछड़े वर्ग की सूची में जातियों को शामिल कर सकते हैं। इन तीनों सहित कई राज्यों ने भारी संख्या में मुस्लिम समुदाय को इनमें शामिल किया। वैसे तो यह आसानी से गले नहीं उतरता कि जब इस्लाम में जाति की व्यवस्था है ही नहीं तो फिर मुसलमानों को किसी जाति का किस आधार पर माना जाए? किंतु इस प्रश्न को थोड़ी देर के लिए परे रख दें तब भी यह प्रश्न उठता है कि आखिर इतनी संख्या में मुस्लिम आबादी को पिछड़े वर्ग में शामिल करने का कारण क्या हो सकता है?
ध्यान रखिए , पश्चिम बंगाल में 71 जातियों को ममता सरकार ने पिछड़ा वर्ग में शामिल किया जिनमें मुस्लिम समुदाय के हैं। इसके पूर्व वहां 108 जातियां पिछड़े वर्ग में शामिल थे जिनमें 53 मुस्लिम तथा 55 हिंदू समुदाय के थे। यह एक उदाहरण मात्र है कि वोट बैंक की राजनीति ने किस तरह आरक्षण व्यवस्था का घातक दुरुपयोग किया है। राजस्थान में भी हिंदू समुदाय के पिछड़े वर्ग से ज्यादा लाभ पिछले कुछ सालों में मुस्लिम समुदाय का पिछड़ा वर्ग प्राप्त कर रहा है। यह सब सरकारी नीतियों के कारण ही हुआ है। क्या यह ऐसा मुद्दा है जिसे चुपचाप छोड़ दिया जाए? किसी भी समुदाय के पिछड़ों के आरक्षण की व्यवस्था है तो उन्हें अवश्य मिले, किंतु किसी एक समुदाय की कीमत पर वह भी इसलिए कि हमें वोट मिले ।
अगर आरक्षण का आधार संविधान की धारा 16 और 16 ए है तो यह नीति उसके अनुकूल नहीं मानी जा सकती? पश्चिम बंगाल के हिंदू संगठनों तथा अनेक समाज शास्त्रियों ने समय-समय पर यह प्रश्न उठाया कि वहां सरकारी लाभ की लालच में भी धर्मांतरण हो रहा है। मुस्लिम आबादी की बढ़ती संख्या को देखते हुए यह न मानने का कोई कारण नहीं है कि वहां आरक्षण भी धर्मांतरण का एक कारक बना होगा। निस्संदेह, यह भयावह स्थिति है। कम से कम आरक्षण की कल्पना करने वाले हमारे पूर्वजों ने इस स्थिति की कल्पना नहीं की होगी कि वोट के लिए राजनीतिक दल इस तरह इसका दुरुपयोग करेंगे। समय आ गया है कि वस्तुपरक अध्ययन कर इनको दुरुस्त करने के कदम उठाए जाएं। हालांकि जब तक आरक्षण के लाभ से वंचित जातियां उसके विरुद्ध खड़ी नहीं होंगी, सरकारों को मजबूर नहीं करेंगी ऐसा होना असंभव है।