गीता प्रेस हो या महात्मा गांधी जी का जीवन दर्शन। दोनों ही हमें मानव सेवा और सामाजिक शांति का संदेश देते हैं। गांधी जी ने आज़ादी की लड़ाई के समय आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के जागरण की जो अलख जगाई थी। उस अलख से धर्म और अध्यात्म की ज्योति प्रज्वलित करने वाली संस्था गीता प्रेस है। गीता प्रेस ने अपने सौ वर्षों के कालक्रम के दौरान हिंदू संस्कृति व आध्यात्मिक मूल्यों को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित किया है। साथ ही साथ गीता, रामचरितमानस जैसी धार्मिक पुस्तकों को हर घर तक सुलभ बनाया है। गौरतलब है कि महात्मा गांधी श्रीमद् भगवतगीता को अपनी मां मानते थे, ऐसे में उस श्रीमद् भगवतगीता के नाम पर स्थापित प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देना बहुत ही सटीक निर्णय है। सोचिए जिस संस्थान का उद्देश्य यह हो कि भगवान की सेवा में कभी भी किसी तरह का विघ्न न आए और समाज के अंतिम व्यक्ति तक धर्म की पुस्तकें पहुँचें। उसका बेजा विरोध करना संकीर्ण मानसिकता की देन है। राजनीति करने के कई दूसरे मुद्दे हो सकते है, लेकिन गीता प्रेस पर उंगली उठाकर एक बार फिर कांग्रेसियों ने भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति का अपमान किया है।
कांग्रेसी मौकापरस्त राजनीति और स्वहित के लिए अक़्सर भगवान राम और उनसे जुड़े स्मृति- चिह्नों पर भी सवाल खड़े करते आए हैं। ऐसे में समाज को अब इनकी नीति और नियत दोनों का पता चल चुका है। यही वजह है कि अब कांग्रेस पार्टी और उसके विचार रसातल में जाते दिख रहे हैं। गांधी शांति पुरस्कार गीता प्रेस को दिए जाने का विरोध करने वाले कांग्रेसियों को कोई समझाए कि उन्हें इतिहास पुनः पढ़ने की आवश्यकता है, क्योंकि गांधी जी ने जिस शुचिता, सहिष्णुता, सद्भाव और मूल्यधर्मी चेतना के विकास में अपना सर्वस्य समर्पित कर दिया। उसे शास्वत प्रासंगिक बनाए रखने की वैचारिक यात्रा कोई जारी रखे हुए है तो वह गीता प्रेस ही है। गीता प्रेस की पत्रिका ‘कल्याण’ के संस्थापक संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार और गांधी वर्षों घनिष्ट मित्र रहे हैं। इन दोनों की सोच इतनी मिलती-जुलती थी कि दोनों गोहत्या और धर्मांतरण के विरोधी थे। इतना ही नहीं जब मासिक धार्मिक पत्रिका कल्याण के प्रकाशन की बात चल रही थी तब उसके संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार को महात्मा गांधी ने सुझाव दिया था कि इस पत्रिका में कभी विज्ञापन न छपवाए। आज यह संस्थान गांधी जी की उसी सलाह पर अनवरत चलते हुए धर्म और अध्यात्म रूपी साहित्य की साधना करता आ रहा है।
गीता प्रेस ने सनातन मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाया है। हिन्दू पुनरुत्थान की दिशा में भी कई कदम उठाएं हैं। यही वजह है कि 1992 में पी वी नरसिम्हा की सरकार ने हनुमान प्रसाद पोद्दार की स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया था। आज विश्वभर में अध्यात्म का झंडा बुलन्द करने वाले सनातन विचारकों की अग्रणी संस्था गीताप्रेस है। अपने स्वर्णिम इतिहास के 100 वर्ष पूरे करने में इस संस्थान ने कई उतार-चढ़ाव को महसूस किया, लेकिन भारत और भारतीयता की सेवा सदैव अपने विचारों और मूल्यों के माध्यम से करती रही। सिद्धांतों का जिस दौर में लोप हो रहा है। उस समय भी यह संस्थान लगातार हिंदू धर्म और अध्यात्म की सेवा में रत है। भारतीय संविधान में भी अपने धर्म की रक्षा के प्रबंध की बात कही गई है। फिर भी कांग्रेसी हैं, जो तथाकथित देश-विरोधी विचारों से प्रेरित होकर देश को बौद्धिक और सामाजिक स्तर पर येन-केन प्रकारेण क्षति पहुंचाने की जुगत में लगे रहते हैं।
आख़िर में साल 1936 का एक वाकया जेहन में आता है। जब गोरखपुर में भीषण बाढ़ आई थी, तब नेहरू जी को वाहन की आवश्यकता थी। उस समय नेहरू जी को वाहन उपलब्ध न कराने का ऐलान अंग्रेजों ने किया था। अंग्रेजी हुकूमत की परवाह ना करते हुए मानवता की खातिर गीता प्रेस के श्री पोद्दार जी ने नेहरू जी को वाहन उपलब्ध कराया था। ऐसे में निःसन्देह गीता प्रेस गांधी शांति पुरस्कार के योग्य है और इस पर दलगत राजनीति से इतर होकर सभी को अपनी सहमति जतानी थी, लेक़िन देश और देश की राजनीति का दुर्भाग्य है कि संस्कृति और सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे भी दलगत हो चलें हैं। जो काफ़ी दुःखद है।
-सोनम लववंशी