नृत्य दिव्य कला है भावों की अभिव्यक्ति है

उमा रेळे प्राचार्य – नालंदा कला नृत्य महाविद्यालय

नृत्य भावनाओं की वह अभिव्यक्ति हैं, जिसके लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती। करने वाला और देखने वाला दोनों एक ही समय पर इस आनंद को महसूस कर सकते हैं। भारतीय संस्कृति में मुख्य रूप से शास्त्रीय नृत्य की आठ कलाएं हैं। इसके साथ विदेशों से आए नृत्य के कई प्रकार भारत में भी किए जाने लगे हैं। नृत्य चाहे कोई भी हो वह आनंद की अनुभूति करा कर आत्मा को आनंद विभोर करें, यही अंतिम लक्ष्य होता है। नृत्य के संदर्भ में इन्हीं विचारों का प्रस्तुतिकरण इस साक्षात्कार में किया गया हैं। प्रस्तुत है उसके प्रमुख अंश-

नृत्य की व्याख्या क्या है?

नृत्य भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति है। जब हम अपने दिल की बात एवं भावों को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाते, तब हमारे आंख-हाथ या अन्य अंगों का संचालन शुरू हो जाता है। यह एक प्राकृतिक क्रिया है। जहां पर शब्द समाप्त हो जाते हैं वहां से नृत्य शुरू होता है। यह बहुत ही दिव्य कला है। जो करते हैं उनके लिए और जो देखते हैं उनके लिए भी, यह परमानन्द का स्त्रोत है। नृत्य के माध्यम से हम अध्यात्म एवं जीवन के प्रत्येक पहलू  को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं, क्योंकि बुनियादी रूप से वह भावों से जुड़ा हुआ है।

नालंदा नृत्य कला महाविद्यालय की स्थापना किसने की और इसका मुख्य उद्देश्य क्या है?

नालंदा नृत्य कला महाविद्यालय की स्थापना 1973 में पद्मभूषण डॉ. श्रीमती कनक रेळे जी ने की थी जो देश की बहुत ही प्रख्यात नृत्यांगना रह चुकी हैं। जिन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण और संगीत नाटक पुरस्कार, गुजरात गौरव पुरस्कार, संगीत नाटक फेलोशिप आदि देश के बहुत सारे प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले हैं। उन्होंने सोचा कि क्यों न विश्वविद्यालय में नृत्य हेतु कोई अभ्यासक्रम शुरू किया जाए। उस समय टी. के. टोपे सर मुंबई विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर थे, उन्होंने कहा केवल सर्टिफिकेट और डिप्लोमा ही क्यों? हम विश्वविद्यालय के अंतर्गत पूरा डिग्री कोर्स ही शुरू करेंगे। इसके बाद नालंदा का कोर्स शुरू किया गया। बड़े-बड़े गुरुओं ने नालंदा के पाठ्यक्रम के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। आज इस महाविद्यालय को 50 वर्ष हो गए हैं। मुंबई विश्वविद्यालय के अंतर्गत एकमेव ऐसा महाविद्यालय है जो कि पूरा 5 वर्ष का अभ्यासक्रम (बेचलर कोर्स), 2 वर्ष का मास्टर कोर्स और पीएचडी करवाता है। यह तीनों डिग्रियां मुंबई विश्वविद्यालय के इस महाविद्यालय में मिलती है। हमारा जो अभ्यासक्रम है वह सर्वगुणसंपन्न कहा जा सकता है।

यहां केवल नृत्य नहीं अपितु हमारे हिन्दू सनातन धर्म का दर्शनशास्त्र, हमारे पुरुषार्थ, हमारा समृद्ध इतिहास (जिसमें कला भी सम्मिलित थी) पढ़ाया जाता है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र ग्रन्थ का बहुत ही गूढ़ अभ्यास होता है। हमारी परम्परा नाट्यशास्त्र पर आधारित है। देश के गौरवशाली भव्य-दिव्य मंदिरों से हमारी नृत्य परम्परा उत्पन्न हुई है। दोनों का आदान-प्रदान रहा है। हमारे यहां संस्कृति एवं अभिनय दर्पणम सिखाया जाता है। हमारे महाविद्यालय के लोगो में ‘विना तु नृत्यशास्त्रेण चित्रसूत्रम सुदुर्विदम’ अंकित है जिसका अर्थ है कि बिना नृत्य अभ्यास के हम विविधतापूर्ण कला नहीं सीख सकते।

डॉ. कनक रेळे बुद्ध तत्वज्ञान से बहुत प्रेरित थीं, इसलिए उन्होंने महाविद्यालय का नाम नालंदा क्योंकि उनकी इच्छा थी कि कला का प्रसार करने के लिए हमारी नालंदा नृत्य संस्था इतनी ही बड़ी बने। हमारी संस्कृति एवं नृत्य कला को अत्यंत शुद्धता के साथ विश्वविद्यालय में सिखाया जाता है। इसी हेतु से विश्वविद्यालय में गुरु शिष्य परम्परा को पुनर्स्थापित किया गया है। संस्कृति, कला, परम्परा की शिक्षा देने के कारण ही हम गर्व से कहते हैं कि हम यहां पर सांस्कृतिक राजदूत निर्माण करते हैं। हम भारतीय कला को नृत्य से जोड़ कर किसी भी विषय के साथ पढ़ाई कर सकते हैं।

मैं स्वयं भी डॉ. कनक की छात्रा रही हूं। गुरु शिष्य परम्परा के अनुरूप मैं भी उनके साथ रह कर कला सीखने की इच्छुक थी और सौभाग्यवश उनके पुत्र राहुल रेळे के साथ मेरा विवाह हो गया। हाल ही में डॉ. कनक के देवलोकगमन के उपरांत मुझ पर महाविद्यालय संभालने का दायित्व आया, जिसे मैं उनकी प्रेरणा से संचालित कर रही हूं। मैं, मेरे पति, मेरी बेटी वैदेही, नालंदा परिवार के लोग और मेरे जो शिक्षक-छात्र हैं, हम सभी मिलकर यह संस्था चला रहे हैं।

 गुरु के संदर्भ में आपके विचार स्पष्ट कीजिए?

नृत्य कला हमेशा से गुरु ही सिखाते थे, आश्रमों में भी यह सिखाया जाता था। हम रामायण-महाभारत में देखे या प्राचीन वेदों में देखें तो ध्यान में आएगा कि नृत्य कला पहले भी गहन अभ्यास का विषय था। नृत्य भारतीय कला का बहुत बड़ा अंग है। आज भी किसी को अच्छा लगे न लगे लेकिन बॉलीवुड में नृत्य एक अहम् हिस्सा है। यह कला नाट्यशास्त्र से उपजी है। यह सब आज भी प्रासंगिक है। पहले हमारा डिग्री कोर्स केवल भरतनाट्यम और मोहिनीअट्टम में था। आज हमारे यहां भरतनाट्यम, मोहिनीअट्टम, कथक, और ओडिसी नृत्य भी सिखाया जाता है और हम मास्टर सर्टिफिकेट भी देते हैं।

 लोकनृत्य के प्रति आपके क्या विचार है?

हमने लोकनृत्य को भी बहुत महत्व दिया है। व्यक्तिगत रूप से भी मैं मानती हूं कि अपने देश में लोक नृत्य की इतनी समृद्ध परम्परा है जिसे हमें वैश्विक स्तर पर लाना चाहिए।

 महाविद्यालय में और नया क्या है?

हमारे यहां एक और नया कोर्स शुरू हुआ है मास्टर इन ह्यूमन मूवमेंट। इसमें हमने फिटनेस को केंद्रित किया है। फिजोलोजी, बायो मेकेनिक्स एंड हयूमन मूवमेंट ऐसे विषय उसमें शामिल हैं। डांस मूवमेंट का वैज्ञानिक रूप से कैसे आंकलन कर सकते है, या कैसे हम नियमित नृत्य करके स्वस्थ रह सकते हैं, इत्यादि विषयों पर रिसर्च ओरिएंटेड डांस की दृष्टि से भी हम काम कर रहे हैं।

 एक छात्र के रूप में आपका अनुभव कैसा रहा?

मैं 1984 में एक छात्र के रूप में जब नालंदा में आई तब मैंने यह तय कर लिया था कि नृत्य कला की विविध विधा मैं अवश्य सीखूंगी। यहां रामायण महाभारत आदि हमारे एतिहासिक ग्रंथों के बारे में भी बताते हैं। हमें इन ग्रंथों के बारे में अवश्य जानना चाहिए, क्योंकि यह हमारी धरोहर है। जब मुझे यहां यह सब सीखने मिला तो मेरे अभिभावक भी बहुत खुश हुए और उन्होंने मुझे प्रोत्साहन दिया। मुझे यहां मेरी सोच से अधिक सीखने मिला है।

 नालंदा महाविद्यालय को आप भविष्य में कहां देखती हैं?

यहां आने के बाद ही मुझे हमारे गौरवशाली इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, मंदिरों की स्थापत्यकला, अजंता, एलोरा, आदि भव्य-दिव्य मंदिरों के बारे में जानकारी मिली। यह एक ऐसा अभ्यास है जो वहीं जाकर करना होता है, केवल फोटो देखकर नहीं हो सकता। मेरे लिए यही प्रगति थी। कहते हैं कि भौतिकता के साथ ही हमारे जीवन में आध्यात्मिक अनुभूति होनी आवश्यक होती है। इससे मेरे विचार करने का दायरा बहुत व्यापक हो गया। नालंदा बहुत बड़ी जिम्मेदारी है जिसे इसी पवित्रता से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। जैसे विश्व प्रसिद्ध बिहार नालंदा विश्वविद्यालय में दुनिया के देशों से छात्र पढने-सीखने के लिए आते थे, उसी तरह यह नालंदा भी बनेे, यही मेरा सपना है।

 नालंदा में कितने प्रकार के नृत्य सिखाए जा रहे हैं?

अभी तो चार नृत्य प्रकार हैं। देश में 8 शास्त्रीय नृत्य कलाएं है। मेरा प्रयत्न है कि आठों नृत्य कलाएं यहां सिखाई जाएं। कला के माध्यम से हम अपने विचार लोगों तक आसानी से पहुंचा सकते हैं।

 नृत्य कला की उत्पत्ति कहां से हुई है?

नाट्यवेद जो हमें बाद में नाट्यशास्त्र के रूप में मिला, कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने चारों वेदों से उसका सार निकाल कर नाट्यवेद का निर्माण किया है। जब हम देवों से जोड़ कर देखते है तो हमें समझने की एक नई दृष्टि मिलती है। नाट्यवेद का निर्माण ही उस समय हुआ था जब त्रेता युग में बहुत हाहाकार मच गया था और बहुत ही नकारात्मक शक्तियां हावी हो रही थीं।

नृत्य कला को लोकप्रिय बनाने हेतु आपने कौन से अतिरिक्त प्रयोग किए हैं?

हमें राम, कृष्ण, शिव को अपना आदर्श मानकर उनके बताए पदचिन्हों पर चलना चाहिए। हमारी संत वाणी पर हमने 100 से अधिक प्रयोग किए हैं जो कि महाराष्ट्र के सभी संतों जैसे संत तुकाराम, ज्ञानेश्वर, एकनाथ महाराज के अभंगों-भजनों पर आधारित है। इसे हम नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। वो भी बहुत ही प्रचलित है क्योंकि वह भक्ति से जुड़ा हुआ है और यह लोगों के हृदय को छूता है। रसिकों को ब्रह्मानंद से जोड़ देता है।

 प्रसिद्ध नृत्यांगना सुश्री रोहिणी भाटे का इस वर्ष जन्म शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। नृत्य क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के बारे में बताइए?

सुश्री रोहिणी भाटे के कारण महाराष्ट्र में कथक बहुत ही प्रचलित हुआ है। कथक एक बहुत ही सुंदर शास्त्रीय कला एवं नृत्य है। निस्संदेह कथक को लोकप्रिय बनाने के लिए उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। पहले ऐसा माना जाता था कि अच्छे घर की लडकियां नृत्य नहीं करतीं। लोगों को इसके बारे में वास्तविक जानकारी नहीं थी। लेकिन सुश्री रोहिणी भाटे ने इसे प्रचलित व लोकप्रिय बना दिया और उसका अभ्यास कितना आवश्यक है इस संदर्भ में भी लोगों को जागरूक किया। उन्होंने इस परम्परा को जीवित रखने में अपना योगदान दिया है। इसलिए मैं उन्हें शत शत नमन करती हूं।

 प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की कविताओं पर आधारित नृत्य नाटिका आपने तैयार की है। इस विषय में जानकारी दीजिए?

भारत के आदरणीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की जो काव्य पुस्तक है ‘आंख आ धन्य छे’, उसका अंग्रेजी में अनुवाद पद्मश्री भावना सोमैया ने किया है। यह अनुवाद लेकर वे हमारे पास आईं, इसके बाद काफी सोच विचार के उपरांत हमने उसे नाम दिया ‘स्व अभिव्यक्ति’। हमारे यहां नारायण मणि हैं, जो लगभग 30 सालों से नालंदा से जुड़े हुए है। वे बहुत ही अच्छे वीणावादक और संगीतकार भी हैं। उन्होंने ही इसका संगीत दिया है। जब हमने  भरतनाट्यम, ओडिसी, मोहिनीअट्टम और कथक, इन चारों नृत्य शैलियों में किया। मुझे यह बताते हुए आनंद हो रहा है कि हमने कहीं भी जैसे आजकल लोग फ्यूजन करते हैं, वैसे नहीं किया है।  यदि हमने भरतनाट्यम में किया है तो उसे शुद्ध भरतनाट्यम में ही रखा है। उसके मूलभाव को पकड़ के चले हैं। उसके रस को लेकर चले हैं। नरेंद्र मोदी की प्रत्येक कविता एक अध्यात्मिक यात्रा है। उसमें से बहुत सारी देशभक्तिपूर्ण कविताएं हमने ली हैं। कारगिल और वंदेमातरम् हमने लिया है। उसमें से 10 कविताओं का हमने नृत्य के साथ सुंदर तालमेल बिठाया है। यह सवा घंटे का प्रदर्शन है, जो बहुत ही सुंदर एवं मनमोहक है। कारगिल युद्ध की कविता को हमने इस तरह से दिखाया है कि असल में युद्ध तो धरती पर ही लड़ा जा रहा है और वह हमारी धरती भारत मां है। युद्ध कोई भी करे लेकिन उसका घाव, दुःख, दर्द उसे ही झेलना पड़ता है। उस भाव को लेकर हमने मार्मिक रूप से प्रस्तुत किया है, जिसे देखकर भाव विह्वल होना स्वभाविक है।

 नालंदा नृत्य कला महाविद्यालय के गुरु शिष्य परंपरा की विशेषता क्या है?

नालंदा के बहुत सारे नृत्य कलाकार आज देश दुनिया में अपना नाम रोशन कर रहे है। डॉ. कनक रेळे के अत्यंत आत्मीय शिष्य रहे दीपक मजुमदार एक गुरु हैं और संगीत नाट्य पुरस्कार से सम्मानित भी हैं। हेमा मालिनी जैसी प्रसिद्ध हस्तियों के साथ कोरियोग्राफ करते हैं। इसी तरह बहुत से नृत्य कलाकार हैं जो नृत्य कला के क्षेत्र में अपना उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। हमारी परम्परा से जोड़ कर अनुसंधान आधारित नृत्य कला को समृद्ध करने पर नालंदा में विशेष कार्य चल रहा है। मैं और हमारे गुरु-शिक्षक डॉ. माधुरी देशमुख, डॉ. मीनाक्षी अय्यर, गंगोपाध्याय, मेघा मोहड, राधिका नायर आदि सभी यहीं से सीखे हुए लोग हैं, जो आज यहां एक गुरु के रूप में सिखाते भी हैं। किसी भी गुरु के लिए यह सर्वाधिक सौभाग्य की बात होती है कि उनके द्वारा सिखाए हुए शिष्य आगे जाकर उनके पदचिन्हों पर चलते हुए गुरु की भूमिका का निर्वहन करें।

 अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस को आप किस तरह से मनाती है?

अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस तो वर्ष में एक बार आता है लेकिन हमारे लिए तो रोज ही नृत्य दिवस होता है। हम इसमें इतने डूबे होते हैं कि हमारे लिए यह रोज की चुनौती है। हम तो रोज ही नृत्य की साधना एवं उपासना करते हैं। 29 अप्रैल को मुंबई में हम भी अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस पर नृत्य कार्यक्रमों का आयोजन कर इसे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।

 आज नृत्य क्षेत्र के सामने किस प्रकार की चुनौतियां खड़ी हैं?

हमारे सामने मुख्य चुनौती यही है कि आजकल के लोगों को तुरंत मनचाहा परिणाम चाहिए और पैसा-प्रसिद्धि चाहिए इसलिए उनमें सीखने, साधना-अभ्यास करने और धैर्य-समर्पण की कमी दिखाई देती है। धैर्य नृत्य कला के लिए बहुत ही आवश्यक गुण है। इसलिए हम इस भाव से भी संस्कारित करते हैं ताकि वह टिक पाए। तुरंत परिणाम की अभिलाषा लालसा करना उचित नहीं है क्योंकि कोई भी कला हो वह सर्वप्रथम आपसे त्याग समर्पण और परिश्रम मांगती है।

 नृत्य क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए आपको कौन-कौन से पुरस्कारों से सम्मानित किया गया हैं?

विगत 35 वर्षों से नृत्य क्षेत्र में योगदान देने के लिए मुझे महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार, कनक नर्तन पुरस्कार, वैसाखी नेशनल एक्सीलेंस अवार्ड मिला है। मेरा मानना है कि पुरस्कारों के साथ आपकी जिम्मेदारी भी बढती जाती है। पुरस्कार आपको प्रेरणा एवं प्रोत्साहन देते है कि आप जिस क्षेत्र में कार्यरत है उसे नई ऊंचाइयों पर ले जाए।

 आपकी संस्था पाच दशकों से नृत्य क्षेत्र के विकास के लिए अपना योगदान दे रही है। आज की युवा पीढ़ी को नृत्य संस्कृति से जोड़ने में आप सफल रहे हैं?

हां, जरुर सफल रहे हैं। मैं यह नहीं कहूंगी कि आज कल पश्चिमीकरण की ओर सब झुक रहे है, उसमें कुछ गलत नहीं है, लेकिन हमें अपनी परम्परा और संस्कारों से जुड़ा रहना बहुत जरुरी है। जब बच्चे हमारे पास आते हैं तो उन्हें अपनी परम्परा एवं संस्कृति के बारे में पता नहीं होता तो हम उन्हें इन सबसे जुडी बातों से परिचित कराते हैं। क्योंकि नृत्य केवल नृत्य नहीं है बल्कि वह एक संस्कृति सभ्यता का महत्वपूर्ण हिस्सा है। न्यूक्लियर फैमिली होने के कारण संस्कारों का अभाव हो गया है क्योंकि संयुक्त परिवार में दादा-दादी, नाना-नानी बच्चों को कहानियां सुनाते थे, उससे हमारी संस्कृति के बारे में उन्हें पता होता था, लेकिन अब वह रहा नहीं है। माता-पिता के पास समय ही नहीं होता। भारतीय परम्परा, देवी देवताओं, कला, संस्कृति या उन प्रेरणादायी कहानियों से बच्चे इतने कट गए हैं कि उन्हें कुछ पता ही नहीं होता। अत: हम उन्हें यहां सम्पूर्ण ज्ञान देते हैं जिससे उनके जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। इसलिए बच्चे रूचि पूर्वक इसे समझते भी हैं और तन्मयता से अभ्यास भी करते हैं। इस तरह हम युवाओं को जोड़ने में सफल हुए हैं। इसके साथ ही उनके माता-पिता भी बहुत खुश है। जब उन्हें पता चलता है तो वे कहते हैं कि आप बहुत अच्छा काम कर रही हैं।

 आज के युवाओं को नृत्य से जोड़ने हेतु आप क्या संदेश देना चाहेंगी?

मैं यही कहना चाहती हूं कि किसी न किसी कला से अवश्य जुड़े रहें। भारतीय कला संस्कृति सर्वव्यापी है, यह दुनिया की सबसे सुन्दर कला है। कला मानवीय मूल्यों को विकसित करने में सहायक है, कला आपको तराशती है, निखारती है और व्यक्तित्व विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसलिए भी भारत की गौरवशाली कला परम्परा से अगली पीढ़ी को जोड़े रखना हम सभी की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है।

 

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