भारत की चित्रकलाओं का इतिहास बहुत पुराना है। डॉ. भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार, यह कहानी आज से करीब पांच हजार साल पहले शुरू होती है, और अगर हम जंगली शिकारियों की तस्वीरों का उल्लेख करें तो दस हजार साल पहले से भी पहले। भारतीय चित्रकला का इतिहास प्राचीन होने के साथ-साथ अत्यंत भव्य भी है। भारतीय चित्रकला को मुख्यतः भित्ति चित्र व लघु चित्रकारी में विभक्त करके देखा जाता है। भित्ति चित्र गुफाओं की दीवारों पर उत्कीर्णित चित्रकारी को कहते हैं तथा लघु चित्र छोटे आकार के बोर्ड आदि पर की जाने वाली चित्रकारी को कहा जाता है।
भित्ति चित्रों के संदर्भ में उदाहरणस्वरूप अजंता की गुफाओं व एलोरा के कैलाशनाथ मंदिर का नाम लिया जा सकता है। अजंता और एलोरा में उकेरे गए भित्तिचित्र, भारतीय चित्रकला की उत्कृष्टता और भव्यता की ही कथा कहते हैं। दक्षिण भारत के बादामी व सित्तानवसाल में भी भित्ति चित्रों के सुंदर उदाहरण मिलते हैं। ये भित्ति चित्र, भारतीय चित्रकला की समृद्ध परंपरा का ही निदर्शन प्रस्तुत करते हैं।
भारत में चित्रकला की अनेक शैलियां यथा- जैन शैली, पाल शैली, राजपूत शैली (मालवा शैली, मेवाड़ शैली, बीकानेर शैली, बूंदी शैली आदि), बंगाल शैली, मैसूर शैली, पहाड़ी शैली, आधुनिक शैली आदि पाई जाती हैं। भारतीय चित्रकला की ये विभिन्न शैलियां भिन्न-भिन्न कालखंडों में पनपी और विकसित हुई हैं तथा इनकी अपनी-अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता भी है। किंतु, इन प्रचलित चित्र-शैलियों से इतर भारतीय लोक की चित्रकला का भी अपना एक समृद्ध संसार है। चित्रकला का ये क्षेत्र कभी लोक के व्रतों-पर्वों के अनुष्ठान का अंग बनकर आकार लेता दिखता है, तो कभी उत्सव और उल्लास की अभिव्यक्ति का कलात्मक विधान प्रतीत होता है। चाहें जिस रूप में देखें, किंतु भारतीय लोक की चित्रकला की मोहिनी ऐसी है कि देखते ही मन को मोह लेती है।
मधुबनी चित्रकला, मिथिला की प्रसिद्ध लोक चित्रकला है। इस चित्रकला के शिल्प-विधान में किंचित शास्त्रीयता का पुट भी पाया जाता है, किंतु इसका वर्ण-विधान पूर्णतः लोक तत्वों पर आधारित है। इस चित्रकला में प्रायः हिंदू देवी-देवताओं यथा, राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, सरस्वती आदि के चित्र बनाये जाते हैं। इस चित्रण में मुख्य चित्र के साथ-साथ रिक्त स्थानों पर पशु-पक्षी, फूल आदि की आकृतियां भी बनाई जाती हैं, जिससे चित्र भरापूरा लगता है। इन चित्रों में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है।
मधुबनी चित्रों के विषय में प्रचलित है कि ये चित्रित नहीं किए जाते, लिखे जाते हैं; इसीलिए इन्हें ‘लिखिया’ कहा जाता है। इस संदर्भ में डॉ. जय शंकर मिश्र ‘भद्रेंद्र’ ने अपनी पुस्तक ‘मिथिला की लोककला शैली’ में एक रोचक प्रसंग का उल्लेख किया है। प्रसंग है कि वाल्मीकि कृत आनंद रामायण में कैकेयी जब सीता से रावण के स्वरूप के बारे में पूछती हैं, तो सीता कहती हैं, मैंने मात्र उसका भयंकर अंगूठा ही देखा। सीता का उत्तर सुन कैकेयी कहती हैं, अच्छा उसके अंगूठे को ही दीवार पर लिख दो। तब सीता दीवार पर उस भयंकर अंगूठे को लिखकर दिखा देती हैं। यहां ‘लिखकर दिखाने’ का अभिप्राय चित्रांकन करना ही है। संभव है, मधुबनी चित्रशैली का ‘लिखिया’ रूप रामायण की मिथिलेशकुमारी से ही आया हो। अब जो भी हो, लेकिन मधुबनी लोक चित्रकला की मोहिनी ने आज अपने आकर्षण में पूरे देश को बांध लिया है।
राजस्थान का एक प्रसिद्ध पर्व है- गणगौर। गण (शिव) और गौरा (पार्वती) के पूजा-विधान से पुष्ट इस पर्व में चित्रकला का भी विशेष स्थान है। इस पर्व में दीवार पर ‘ईसर’ और ‘गवरी’ के चित्र बनाए जाते हैं। ये चित्र शिव-पार्वती के पारंपरिक चित्रों जैसे नहीं होते, अपितु इनमें देवत्व को लोक के रंगों में रंग दिया जाता है। दाढ़ी-मूछ और राजसी परिधान में ईसर यानी शिव का चित्र होता है, तो ‘गवरी’ पारंपरिक भारतीय महिला की तरह सुसज्जित होती हैं। गणगौर के ये चित्र लोक की छटा से भरपूर और अत्यंत मनोहर लगते हैं।
शिव की बात हो रही है, तो उनके गले में लिपटे नाग देवता की चर्चा भी कर ही लेनी चाहिए। नागपंचमी पर देश के विभिन्न क्षेत्रों, विशेषकर उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में दीवारों पर नाग देवता के चित्र बनाने की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। विशेष बात यह है कि ये चित्र किसी रंग आदि से नहीं, गाय के गोबर से बनाए जाते हैं। सबसे पहले तो पूरे घर की दीवार पर नागदेवता के प्रतीक रूप में एक लंबी रेखा खींची जाती है। इसके अलावा पूजास्थल पर गोबर से ही सर्प की आकृति का चित्रण भी किया जाता है। दिलचस्प यह है कि ये चित्र, घर की महिलाएं स्वयं अपने हाथ से बनाती हैं। नागपंचमी का पर्व इन चित्रों के बिना पूर्ण नहीं माना जाता।
इसी क्रम में उत्तर भारत में प्रचलित ‘पीड़िया’ का उल्लेख समीचीन होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में गोवर्धन पूजा के दिन से ही आरंभ होने वाले भाई-बहन के इस पर्व में लड़कियां गोधन के गोबर से पूर्व-निर्धारित किसी घर की दीवार पर गीत गा-गाकर पीड़िया के चित्र बनाती हैं। इस चित्र के लिए दीवार भी पहले से तैयार कर ली जाती है। चूंकि, ये चित्रकला सामान्य लड़कियों द्वारा निष्पादित होती है, अतः अलग-अलग स्थानों के हिसाब से पीड़िया के चित्र भी कलात्मक वैशिष्ट्य से युक्त हो जाते हैं। आकृति तो एक ही होती है, किंतु चित्रकारों के कौशल के अनुरूप भिन्न-भिन्न स्थानों के पीड़िया चित्रों में कलात्मक विशिष्टता आ ही जाती है। प्रतिदिन संध्या के समय इस पीड़िया स्थल पर एकत्रित होकर लड़कियां नाच-गान करती हैं, जिसका समापन पीड़िया विसर्जन के साथ होता है।
इसी प्रकार होली के आठवें दिन पड़ने वाले शीतल अष्टमी के पर्व में महिलाओं द्वारा घर के दरवाजों पर हाथों की छाप लगाने की भी परंपरा है। माना जाता है कि इस छाप के प्रभाव से बुरी दृष्टियों से घर सुरक्षित रहता है।
जनजातीय समाज में प्रचलित ‘वार्ली’ चित्रकला की चर्चा भी उपयुक्त होगी। ये अलंकृत चित्र गोंड तथा कोल जैसी जनजातियों में प्रचलित हैं। इन जनजातियों के घरों की दीवारों और पूजाघर की फर्श पर इन्हें बनाया जाता है। इन चित्रों में प्रकृति और मनुष्य के सम्मिलन को दर्शाया जाता है। वृक्ष, पक्षी, नर तथा नारी से वार्ली चित्र पूर्ण होते हैं। ये चित्र शुभ अवसरों पर आदिवासी महिलाओं द्वारा दिनचर्या के एक हिस्से के रूप में बनाए जाते हैं। इन चित्रों की विषयवस्तु प्रमुखतया धार्मिक होती है और ये साधारण तथा स्थानीय वस्तुओं का प्रयोग करके बनाए जाते हैं। चावल की लेई तथा स्थानीय सब्जियों की गोंद बनाकर उसका उपयोग एक अलग रंग की पृष्ठभूमि पर वर्गाकार, त्रिभुजाकार तथा वृत्ताकार आदि रेखागणितीय आकृतियों के माध्यम से किया जाता है। पशु-पक्षी तथा लोगों का दैनिक जीवन भी इन चित्रों की विषयवस्तु का आंशिक रूप होता है। शृंखला के रूप में अन्य विषय जोड़-जोड़ कर चित्रों का विस्तार किया जाता है। स्पष्ट है कि ‘वार्ली’ चित्र जनजातीय लोकजीवन की छटाओं जिसमें प्रकृति एक अनिवार्य तत्व है, का प्रकटीकरण होते हैं।
व्रतों-पर्वों के अतिरिक्त विवाह के मांगलिक अवसर पर भी भारतीय लोक का कलात्मक स्वभाव चित्रांकन की अपनी प्रवृत्ति को नहीं छोड़ता। विवाह के अवसर पर किसी कक्ष में कोहबर बनाया जाता है, जिसमें वर-वधू परिजनों की देख-रेख में कुछ विशेष रस्में पूरी करते हैं। साफ-सुथरी दीवार पर गोबर, गेरू, चूना, रोली, अनाज जैसी सामग्री से कोहबर बनता है, जिसके अंतर्गत स्वस्तिक, सूर्य, चंद्रमा, ॐ, मछली आदि का चित्रांकन वर-वधू दोनों ही के घरों पर किया जाता है। इन चित्रों से सुसज्जित कोहबर की एक अलग ही शोभा होती है।
यह केवल कुछ उदाहरण मात्र हैं। भारतीय समाज में और भी कई ऐसी चित्रकलाएं मिल जाएंगीं, जिनमें हमारे लोक का सौंदर्यबोध प्रकट होता है। समग्रतः कहा जा सकता है कि भारतीय समाज अपने मूल स्वभाव में उत्सवधर्मी होने के साथ ही कलाप्रेमी भी है। वस्तुतः भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में ही कलात्मक चेतना समाहित है, जिसका प्रभाव यहां के समाज पर पड़ा है। यही कारण है कि भारतीय पर्व चित्र-नृत्य-संगीत जैसे कलात्मक विधानों से युक्त होकर उत्सवधर्मी रूप में संपन्न होते हैं।
पीयूष कुमार दुबे