रंगमंच को जीवित रखना केवल रंगकर्मियों का ही नहीं दर्शकों का भी कर्तव्य है क्योंकि इसमें होने वाले नित नए प्रयोगों के कारण रंगमंच वह प्रयोगशाला बन जाता है जिसके उत्पाद दर्शकों को बड़े पर्दों, टीवी या ओटीटी पर दिखाई देते हैं।
रंगमंच की चर्चा जब राष्ट्रीय स्तर पर की जाती है तो हमारे सामने नगरों और महानगरों का रंगमंच आता है। वस्तुस्थिति यह है कि रंगमंच का कैनवास तो बहुत बड़ा है लेकिन उसमें अगर रंग भरने की बात आ जाए तो एक प्रकार की उदासीनता उभरकर सामने आती है। इस उदासीनता का बोझ सभी रंगकर्मियों को चाहे-अनचाहे उठाना पड़ता है। उदासीनता के इस बोझ को कम करने के लिये रंगकर्मी स्वयं जुटे हुये हैं।
इसके बावजूद कि आज मनोरंजन के बाजार में फिल्मों, सीरियलों, वेब सीरीजों ने जबर्दस्त घुसपैठ मचाकर रखी है, हर नगर और महानगर में रंगमंच ने अपनी एक अलग जमीन तैयार की है। कलाकार रंगकर्म में जी-जान से जुटे हुये हैं। अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने के लिये खून-पसीना बहा रहे हैं। यह एक सुखद संकेत है और साथ ही साथ यह रंगमंच के सुनहरे भविष्य के प्रति आशा की किरण है।
छोटे-मंझले नगरों का रंगमंच
छोटे और मंझले महानगरों की बात की जाए तो देश के लगभग सभी प्रदेशों के कम से कम किसी एक मुख्य शहर में रंगमंच खूब फल-फूल रहा है। अपनी तमाम कठिनाईयों के बावजूद रंगकर्म के प्रति समर्पित कलाकारों का एक अलग ही समूह है जो निरंतर रंगकर्म कर रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि फिल्मों और सीरियलों का अवसर अब केवल महानगरों तक ही सीमित नहीं है। आजकल स्वयं वीडियो बनाकार युट्युब, फेसबुक आदि माध्यमों पर डालना भी एक प्रकार का व्यवसाय बन गया है। कलाकार अपनी मर्जी से कहानी का चुनाव करते हैं फिर उसकी शूटिंग पूरी करते हैं। इस प्रकार एक छोटी-बडी फिल्म बन जाती है, जिसे फिर सोशल मीडिया पर पोस्ट किया जाता है। इस प्रकार का सारा कार्य करनेवाले अधिकांशत: उस क्षेत्र के रंगमंच के कलाकार ही होते हैं। फिल्म छोटी हो या बड़ी हो उसमें कलाकारों को अभिनय तो स्वाभाविक रूप से करना ही पड़ता है। अभिनय का यह अनुभव थियेटर या रंगमंच के अलावा और कहां से आ सकता है? इस प्रकार की छोटी-बड़ी फिल्मों में परिपक्व कलाकारों और शौकिया कलाकारों के अभिनय में अंतर साफ नजर आता है। थियेटर या रंगमंच के नाम पर न जाने कितने ही संगठन हैं जिनका काम हमें सोशल मीडिया पर देखने को मिलता है। इन नगरों में कई नाटय संगठन ऐसे होते हैं जो अपने नाटकों को देखने के लिये सोशल मीडिया पर जानकारी प्रस्तुत करते हैं। यह सब देखकर लगता है कि रंगकर्म तो हर जगह हो रहा है, भले ही कलाकारों का उद्देश्य, हिंदी या अपने-अपने प्रदेश की क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों, सीरियलों या वेब- सीरीजों में काम करना हो। इस प्रकार की हर विधा में अभिनय करनेवाले कलाकारों का अभिनय ही फिल्म, सीरियल या वेब सीरीज को सफल बनाता है। यह भी एक सच है कि इन नगरों में रंगमंच को सहेजकर रखना एक बेहद कठिनतम कार्य है। फिर भी लोग एक विश्वास के साथ अपने कार्य में संघर्ष करते हुये जुटे हुये हैं। दिल्ली स्थित देश के एकमात्र राष्ट्रीय स्तर के नाट्य संस्थान ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ में हर वर्ष नये कोर्स के लिये रंगकर्मी प्रवेश लेते हैं। ये सभी छात्र विभिन्न प्रदेशों के होते हैं जो अपने शहर में लगातार रंगमंच पर सक्रिय रह चुके होते हैं। इस संस्थान में प्रवेश प्रक्रिया की मुख्य शर्त भी यह है कि आपने अपने शहर में कितने स्तरीय नाटक और लोक नाट्य खेले हैं। लखनऊ स्थित भारतेंदु नाट्य विद्यालय और भोपाल स्थित मध्य प्रदेश स्कूल ऑफ ड्रामा भी ऐसी ही संस्थान हैं जहां विद्यार्थियों को एक कठिन प्रवेश प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इन संस्थानों में भी अपने शहर में रंगकर्म कर रहे उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जाती है। इन संस्थानों में प्रवेश का उद्देश्य लेकर ही सही या फिर छोटे-बड़े परदे पर काम करने की ख्वाहिश लेकर ही सही, रंगमंच को जिंदा रखने का लक्ष्य तो कलाकार पाल रहे हैं।
वैकल्पिक रंगमंच
छोटे-बड़े परदे पर रंगमंच के माध्यम से एक पेशेवर अभिनेता और निर्देशक बनने के रास्ते ढूंढ रहे महत्वाकांक्षी युवाओं के अलावा देश में कोने-कोने में कार्य कर रहे कुछ रंगमंच के योद्धा ऐसे भी हैं जो रंगमंच को समर्पित हैं और रंगकर्म की सेवा कर रहे हैं। मंच पर नाटक प्रस्तुत करने के अलावा रंगमंच को समृद्ध करने के अन्य विकल्प कई दशक पहले ढूंढे गये थे जो आज भी लोकप्रिय हैं। इनमें से गली-मुहल्लों और शहर के किसी भी व्यस्त इलाके के एक कोने में बिना किसी सेट, प्रकाश-व्यवस्था और ध्वनि की व्यवस्था के बगैर नाटक प्रस्तुत करना भी इनमें से एक विकल्प था। इस विकल्प को नुक्कड़ नाटक कहा गया। आज भी यह लोकप्रिय है। इसके बाद एक तीसरे मंच की परिकल्पना की गयी। ‘तीसरा रंगमंच’ की विशेषता यह है कि एक सभाकक्ष में बिना किसी सेट, प्रकाश और ध्वनि व्यवस्था के पूर्णकालिक नाटकों का मंचन किया जाता है। नुक्कड़ नाटक का जन्म इंडियन पीपल्स थियेटर (इप्टा) ने किया तो ‘तीसरा रंगमंच’ के जनक बादल सरकार हैं जिन्होंने कोलकाता जैसे महानगर में इस विधा की शुरुआत की थी। उन्होंने इस जमी-जमायी धारणा को तोड़ा कि नाटक केवल मंच पर ही खेले जा सकते हैं। इस प्रकार के मंचनों में दर्शकों का अभाव हो सकता है। लेकिन मंचित किये जा रहे नाटकों का प्रभाव अवश्य पड़ता है।
महानगरों का रंगमंच
देश के चार महानगरों यथा कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई और मुंबई के रंगमंच की बात की जाए तो यहां भी स्थिति निराशाजनक नहीं है। कोलकाता की बात की जाए तो यहां बंगला रंगमंच की स्थिति बहुत आशाजनक है। आए दिन बंगला नाटकों के मंचन से वहां के नाटक प्रेमियों को बेहतरीन नाटकों का मंचन देखने का अवसर मिलता है। कोलकाता का रंगमंच पूर्ण रूप से पेशेवर है। बंगला के अलावा अंग्रेजी रंगमंच भी सक्रिय है। एक सुखद सच यह भी है कि कुछ समूह हिंदी नाटकों का व्यवासायिक मंचन भी करते हैं। दिल्ली की बात करें तो यह ‘रंगमंच की राजधानी’ है। यहां ऐसे कई नाट्य दल हैं जो निरंतर हिंदी और अंग्रेजी नाटकों का मंचन सफलतापूर्वक करते हैं। देश के सबसे बड़े और भारत सरकार के अधीन नाट्य प्रशिक्षण संस्थान ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ यहां स्थित है। इसका एक अलग रंगमंडल है जहां अभिनेता और निर्देशक पे-रोल पर रखे जाते हैं अर्थात वो स्थायी सरकारी नौकरी पर रखे जाते हैं। दक्षिण के कई शहरों यथा बंगलुरु, हैदराबाद, त्रिवेंद्रम व चेन्नाई आदि शहरों में कई नाट्य संस्थाएं हैं जो दक्षिण की मुख्य भाषाओं (कन्नड़, तेलगू, मलयालम और तमिल) में रंगमंच पर सक्रिय हैं। पश्चिम में मुंबई की बात की जाए तो यहां हिंदी, मराठी, गुजराती और अंग्रेजी नाटकों का मंचन निरंतर होता है। मुंबई में रंगमंच पर सक्रिय कलाकारों का उद्देश्य पूरी तरह से तो नहीं पर 99% फिल्मों, सीरियलों और अब वेब सीरीजों से जुड़ना है। यह एक ऐसा सच है जिससे कोई परहेज नहीं कर सकता। नाटक देखनेवालों की यहां कमी नहीं है। मराठी और गुजराती नाटकों की स्थिति हिंदी और अंग्रेजी की तुलना में थोड़ी बेहतर जरूर है। मराठी और गुजराती रंगमंच के कई कलाकारों का जीवनयापन नाटकों से ही होता है। हिंदी और अंग्रेजी रंगमंच से जुड़े कुछ कलाकार पूर्णकालिक होते हैं। अधिकांशत: कलाकारों को जीवन-यापन के लिये कुछ और काम भी करने पड़ते हैं पर इससे उनके नाटकों के प्रति समर्पण भाव में कमी नहीं आती।
कुल मिलाकर महत्वाकांक्षा, सफलता का प्रयास और एक बेहतर सुबह की उम्मीद, इन तीन तत्वों के संगम से रंगमंच हमेशा जिंदा रहेगा, यह मानकर चलने में कोई हर्ज, कोई दुविधा नहीं होनी चाहिये।
राजीव रोहित