उत्सवों के रंग में रंगा गोवा

गोवा की विभिन्न जातियों, जनजातियों और धर्म की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति ही गोवा की कुल कला और संस्कृति का प्रतीक है। यहां के उत्सव, संगीत, नाटक, शिल्पकला, चित्रकला, हस्तकला इनका ग्राफ लेने कि यह एक कोशिश है।

भारत के अन्य राज्यों की तरह गोवा में भी वर्ष भर कोई ना कोई उत्सव, त्यौहार और कार्यक्रम चलते रहते हैं। यहां मौसम को ध्यान में रखते हुए जून से सितंबर तक मूसलाधार बारिश के कारण खुली जगह सांस्कृतिक उत्सव बहुत कम होते हैं। परंतु मंदिर, चर्च और मस्जिदों में दैनिक त्यौहार, उत्सव, व्रत और प्रार्थनाएं नियमित रूप से होती है। आषाढ और सावन महीने में गोवा के हिंदू मंदिरों में भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है। इस समय भजन, कीर्तन नियमित रूप से प्रस्तुत किए जाते हैं।

गणेश चतुर्थी का त्योहार गोवा के हिंदूओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। घर-घर में गणेश मूर्ति की पूजा की जाती है। अधिकतर घरों में यह विधि डेढ़ दिन का होता है। कुछ घरों में पांच, सात या ग्यारह दिनों तक गणेश जी की पूजा की जाती है। पूजा होने के बाद जुलूस निकाल कर उनका विसर्जन किया जाता है।

ईसाईयों के लिए चर्च के फेस्त बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। प्रत्येक गांव के चर्च में निश्चित दिन यह मनाए जाते हैं। लेकिन संपूर्ण गोवा में कुछ गिने चुने फेस्ट ही विशेष हैं। पुराने गोवा में सेंट फ्रांसिस जेवियर के ़फेस्त, रेईश मांगूश, कांसावली और चांदर गांव में होने वाली तीन रायांचे (राजा के) फेस्त, म्हापशा के मिलग्र सायबिणी फेस्त और मुख्य शहरों में होने वाले पूरी पुरीमेताची फेस्ट विशेषता पूर्ण कहे जा सकते हैं।

मुस्लिमों के उर्स का यहां अवश्य उल्लेख किया जाना चाहिए। परंतु यदि मुख्य सांस्कृतिक प्रवाह का विचार किया जाए तो हिंदू समाज का कला और सांस्कृतिक क्षेत्र पर संपूर्ण प्रभाव है। इसीलिए गोवा के हिंदू समाज में वर्षा ऋतु के बाद मनाए जाने वाले लोकोत्सव जैसे शिगमो, धालो प्रसिद्ध है। इसी तरह हम होमखण, गड़यां, जात्रा, चोरानजात्रा, शिशारान्नी, तरंगे यह लोक संस्कृति के अभिन्न अंग बने हुए धार्मिक उत्सव भी मनाए जाते हैं।

ईसाईयों का क्रिसमस का त्योहार बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। फरवरी महीने में कार्निवल उत्सव मनाया जाता है। इसका चर्च से कोई संबंध नहीं है। इसे पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने वाला एक लोकप्रिय त्योहार कहा जा सकता है।

 गोमांत भूमि का लोक उत्सव

गोवा में हिंदुओं का शिगमो उत्सव पूरी तरह से इस भूमि का लोक उत्सव है। इसमें संपूर्ण गोमांतकीय पुरुष समाज भाग लेता है। केवल संभ्रांत पुरुषों को ही इसका अपवाद माना जा सकता है। परंतु पूरे मजदूर वर्ग और श्रमिक वर्ग के पुरुष इस त्यौहार का कम से कम 5 दिन आनंद उठाते हैं। प्रत्येक गांव के पारंपरिक पवित्र स्थल, जिसे ‘मांड’ कहते हैं, से लोकनर्तकों का समूह जिसे गोवा में ‘मेल’ कहते हैं, अपनी पारंपरिक वेशभूषा में संगीत वाद्य यंत्रों की धुन पर निकलता है। वे पूरे गांव में अपने-अपने क्षेत्र के पारंपरिक लोक नृत्य प्रस्तुत करते हैं और अपनी सेवा स्थल देवता और ग्राम देवता के चरणों में अर्पण करने के लिए गांव के मंदिर तक आते हैं। यहां से यह जुलूस वापस गांव के ‘मांड’ पर जाता है और वहां विसर्जित होता है। इस पूरे स्वरूप का पालन एक अनुष्ठान के रूप में किया जाता है। इसीलिए प्रत्येक गांव से निकलने वाले ‘मेल’ में प्रत्येक गांव की जनसंख्या के अनुसार कलाकारों की संख्या कम या ज्यादा होती है।

फाल्गुन शुद्ध नवमी को धरती माता को वंदन करने का नमन विधि होता है। उसके बाद पूर्णिमा तक गांव-गांव में लोक नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं। गोवा के उत्तर भाग में पूर्णिमा से यह शिगमोत्सव शुरू होता है और अगले 5 से 7 दिन तक चलता है।

दक्षिण गोवा के शिगमोत्सव में वीरामेल, तोणयामेल, चौरंग, तालगडी, ताले, मोरुले, गोफ, जत, आरत ऐसे अनेक प्रकार होते हैं। उत्तर गोवा में रोमट, राधाकृष्ण, लावणी, घौडमोडणी, रणमाले, मोरूले, जत, सकारत, करवली आदि प्रकार के लोक नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं। मध्य गोमांतक के लोक कलाकार रोमटां मेल प्रस्तुत करते हैं।

लोकनृत्यों, नाटकों और अभिनय के इन स्वरूपों के अतिरिक्त अन्य अवसरों पर भी लोक नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं। चैतपूर्णिमा या धालो अवसर पर कई स्थानों पर वीरभद्र नचाने का विधि होता है। वीरभद्र भगवान शंकर का मानस पुत्र था। इसका प्रस्तुतिकरण अर्थात गोवा पर कर्नाटक के जिन असंख्य राजाओं ने शासन किया उनका सांस्कृतिक प्रभाव हमें देखने को मिलता है। कदंब कालीन मुसला खेल नामक नृत्य चांदर के ईसाई कार्निवल में प्रस्तुत करते हैं।

संपूर्ण शिगमो उत्सव में बजाए जाने वाले अनेक वाद्य यंत्र गोवा के पारंपरिक संगीत विरासत का प्रतीक है। इसमे घुमट, शामेल, जोडशामेल, ढोल घुम, तासो, कांसाले, झांज, ताल, करणों, बांको, शिंग, जंघाट, सुरपांवो, नाकशेर, कोंडपावों, काल ऐसे अनेक वाद्ययंत्रों का समावेश होता है।

जिस प्रकार शिगमो गोवा के हिंदू पुरुष समाज का लोक उत्सव है, उसी तरह धालो गोवा के हिंदू स्त्री समाज का लोक उत्सव है। भू देवता तथा मातृ देवता की पूजा विधि के रूप में धालो का उत्सव मनाया जाता है। जिन स्थानों पर स्त्रियां धालो खेलती हैं, उस पवित्र स्थान को ‘मांड’ कहते हैं। इस पारंपरिक ‘मांड’ पर मिट्टी से तुलसीचौरा तैयार किया जाता है। संपूर्ण ‘मांड’ को गोबर से लीप लिया जाता है। यहां गांव की सारी स्त्रियां एकत्रित होती हैं और विभिन्न नृत्य शैलियों प्रस्तुत करती हैं। जिसमें सीधी लाइन और गोलाकार नृत्य का समावेश होता है।

गोवा के दक्षिण में काणकोण तहसील में हिंदू कुनबी स्त्रियां तथा युवतियां रेत का गोला मांड पर रखकर उसे बनफूलों और पत्तियों से सजाती हैं। उनकी अनुष्ठानपूर्वक आराधना कर उसके चारों ओर गोल बनाकर नाचती हैं। इस रेत के गोले को धिल्लो या धिनलो कहते हैं। धालो इसी आदम पर्व का उन्नत रूप है। दोनों स्वरूपों में गोल घूमकर नृत्य तथा फुगड़ी खेलने की प्रथा है। लेकिन इस समय कोई भी वाद्य संगीत नहीं होता। सारे गीत भूदेवता, स्थल देवता, जल देवता, वन देवता एवं प्रकृति के अन्य देवताओं को उद्देशित कर गाये जाते हैं। इसमें रंभा का आगमन भी होता है। इसके अलावा पिंगली, दूल्हा दुल्हन, शिकार मारना, खांपुल्ले, म्हारम्मा ऐसे अनेक नाटक भी स्त्रियां करती हैं।

इस उत्सव में बांधव पुरुष छोड़कर मांड पर कोई भी पुरुष भाग नहीं ले सकता। गांव की नि:संतान महिला को संतान प्राप्ति के लिए पूरे गीले कपड़ों से अंतिम दिन मांड लीपने की रस्म निभानी पड़ती है। यदि विलाप करते-करते बांधव से मिलने के लिए आतुर रंभा का विचार किया जाए तो इस धालो उत्सव का स्वरूप धरती माता की अटूट प्रजनन शक्ति की आराधना कहा जा सकता है। क्योंकि इस नृत्य की अनेक रस्मों का सीधा संदर्भ पुसवन विधि से आता है।

इस महत्वपूर्ण लोक नृत्य के साथ-साथ गोवा के बहुतांश श्रमिक मजदूर समाज की स्त्रियां झेमाडो, फुगड़ी, कलसी फुगड़ी आदि लोक नृत्य विविध अवसरों पर प्रस्तुत करते हैं।

 लोक संगीत की समृद्ध परंपरा

सुवारी चंद्रावल यह घुमट नामक प्रमुख लोक वाद्य यंत्रों पर आधारित लोक संगीत की शैली है। इसमें घुमट, शामेल तथा कांसाले वाद्य यंत्र गायक बजाते हैं। इस वादन में मोनी चाल, खाणपद, फ़ाग ऐसे विविध प्रकार है। यहां भगवान की आरती के समय विभिन्न लयों में आरती प्रस्तुत करने की प्राचीन परंपरा है। मंदिरों में ढोल, ताशा, शहनाई, सूर्त, कांसाले, जघात, घूम, चौघडा इत्यादि वाद्य यंत्र सुरक्षित रखे होते हैं। मंदिरों के अनुष्ठान की तरह इशारत, नौबत, चोघड़ा, सवारी, पेणे, रथ, नाचवप, आरती आदि प्रकार लोक संगीत में रचे बसे हैं।

हिंदू तथा ईसाई समाज में विवाह के अवसर पर दोहे तथा विवाह गीत गाए जाते हैं। कुछ भागों में मुस्लिम समाज में भी ऐसे विवाह गीत गाए जाते हैं। हिंदू समाज में इसे होवयो और लगीनगीत कहते हैं। ईसाई समाज में येर्स और मुस्लिम समाज में शादीगीत कहते हैं।

ईसाई समाज में विभिन्न प्रकार के संगीत हैं जैसे मांडो-धूलपद, कांतार, करल, भक्तिगायना आदि। इन सभी गीतों में वाद्य यंत्र भी बजाए जाते हैं। इन गीतों की विशेषता यह है कि इन सभी गानों में भारतीय शैली है और संगीत पाश्चात्य शैली का है परंतु भारतीय वादन पद्धति से मेल खाने वाला है। मांडो एक विरह गीत है।

इस समय युगल नृत्य करने की प्रथा है। इनका साथ देने के लिए वायलिन और घुमट बजाए जाते हैं। आजकल गिटार तथा एकार्डियन भी बजाते हैं।

 लोकनाट्य की प्राचीन परंपरा

लोकनाट्य की प्राचीन परंपरा के रूप में पेरणी, जागर, दशावतारी कालो, संकासुर कालो, रात कालो, दही कालो, गवळण कालो, खेल, जागोर, रणमाले, ललित आदि लोकनाट्य के विभिन्न प्रकार गोवा में प्राचीन काल से प्रचलित है।

लकड़ी के रंगाये हुए मुखोटों द्वारा किया गया नृत्य, गायन, और अभिनय पेरणी जागर कहलाता है। हजारों वर्षों की सांस्कृतिक परंपरा वाला यह लोकनाट्य पिछले 50 वर्षों में लगभग विलुप्त होने के मार्ग पर है। इस नाटक के पीछे की सुफलन विधि की कल्पना को देखते हुए इसकी प्राचीनता समझ में आती है। इसके बाद आने वाला दशावतारी या संकासुर कालो, उसके बाद रातकालो, दही कालो, गवलनकालो यह सब पेरणी जागर की बेहतर आवृत्ति लगती है। हिंदू तथा ईसाई गावड़ा समाज में जागर नामक लोक नाटक प्रस्तुत किया जाता है।यह सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं पर होता है। इस पर कर्नाटक के यक्षगान का गोवा पर प्रभाव दिखाई देता है। इसमें किसी पौराणिक कथा का नाटक के रूप में प्रस्तुतीकरण किया जाता है।

लोकनाट्य का एक आदिम रूप है रनमाले जो लोक परंपरा की प्रकृति कथाओं तथा रामायण कथाओं का आविष्कार है। इसमें गीत संगीत तथा अभिनय द्वारा मुख्य कथा के साथ सामाजिक दृश्य प्रस्तुत किए जाते हैं। सामाजिक बातों को आम जनता तक पहुंचाने के लिए विभिन्न पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। परंतु गोवा में यह भी अब विलुप्त होने के मार्ग पर है।

  प्रकृति पर आधारित हस्तकला 

पुरातन काल से नित्य उपयोगी वस्तु तैयार करने के लिए मिट्टी का उपयोग किया जाता है। इस से ही गोवा में से कुम्हार और मृतका शिल्प की परंपरा शुरू हुई। इसमें प्रमुखता से विभिन्न प्रकार के बर्तन और विशिष्ट अनुष्ठानों के लिए उपयोग में लिये जाने वाले जानवर थे। इसके बाद विभिन्न प्रकार के बर्तन, दिए, लैंप, लैंप शेड, सुपारी काटने का औजार आदि वस्तुएं बनाना शुरू हुआ, गोमांतकीय कारीगरों ने लकड़ी के फर्नीचर, नक्काशी, मूर्ति कला आदि में अपना खास स्थान निर्माण किया है। इसके अलावा बांस काम, शंख काम, काथाकाम और कपड़ों पर की जाने वाली कलाकारी में भी गोमांतकीय कुशल थे।

 मेले व उत्सवों की विशेषताएं 

इसके पहले होमखंण मेले का उल्लेख किया गया है। गोवा में जलते हुए अंगारों पर चलने का अनुष्ठान अनेक गांवों में होता है। शिरगांव के लईराई मंदिर के बाजू में होने वाला यह अग्निदिव्य का विधि समाप्त होने पर बहुत बड़ा होमखण जलाया जाता है। इसमे धोणफ मधोणफ प्रकार होमखण के नाम से पुरे गोवा मे प्रसिद्ध है। मंदिर के व्रतस्थ भक्तगण उंगलियो से चलकर जाते है।

काणकोण में प्रति 2 वर्ष के बाद शिशारान्नी विधि होता है। जिसमें जमीन पर सोया जाता है। चूल्हे पर मिट्टी के बर्तनों से चावल पकाया जाता है। इसमें तीन व्यक्ति और एक व्रतस्थ व्यक्ति अपनी नसों को काटकर होने वाले घाव से निकला हुआ रक्त मिलाकर, वह चावल सब पर छिड़कते हैं। इसी विधि को शिशारान्नी कहते हैं।

इसी तहसील के पेंगीण गांव में प्रति 3 वर्ष बाद गड्यांची जात्रा विधि होता है।गांव के चार व्रती पुरुष (गड़ी) को नहला कर, उनकी पीठ में कमर के पास के कपड़े मे नोकदार भाले से टोंचा जाता है। प्रमुख पुरुष को चार तो अन्य कुछ मीटर की ऊंचाई पर लगाये हुये मचान मे अटके हुए रहाट पर जो तीन व्यक्ती होते है, उनके कमर के पास के कपड़े को दो बार भाले से टोचा जाते है। इन छेदों में से रस्सी पिरोई जाती है।

जब सभी पुरुष (गड़ी) राहट में अटक जाते हैं ,तो उनको ऊपर नीचे और गोलाकार घुमाया जाता है। अब नीचे जमा हुई भारी भीड की मान्यता मिलने पर उन्हे नीचे उतारा जाता है। लोगों की ऐसी श्रद्धा है कि यह विधि करना यानी स्थान देवता को दिए हुए वचन का पालन करना है।

सत्तरी तहसील के झरमें गांव में होने वाली चोरांयात्रा भी एक विशेषता पूर्ण अनुष्ठान है। इसमें चार पुरुषों (गड़ी) को जमीन में खोदे हुए गड्ढे में गले तक दबा दिया जाता है। चार अन्य पुरुषों (गडी) को उल्टे तरीके से गड्ढे में दबाकर उनके पैर ऊपर रखे जाते हैं।यह दृश्य बहुत ही भयानक होता है। परंतु ईश्वर पर श्रद्धा होने के कारण किया जाता है।

गोवा में तरंग नचाया जाता है। तरंग यह ग्राम देवता का प्रतीक है। उसे कंधे पर लेकर उसकी पूरे गांव से जुलूस निकाला जाता है और ईश्वर का आशीर्वाद लिया जाता है।

आज के समाज पर गोवा की कला और सांस्कृतिक परंपरा को उज्जवल भविष्य देने की जिम्मेदारी है। अंतर्राष्ट्रीय नक्शे पर गोवा को एक प्रेक्षणीय स्थल के रूप में प्रसिद्ध करने का अभियान अनेक वर्षों से चल रहा है। परंतु सांस्कृतिक और कलात्मक बातों के संदर्भ में उनकी दिशा भटक गई है ऐसा लगता है।

हजारों वर्षों की समृद्ध भारतीय संस्कृति के कलात्मक निशान और अभिव्यक्ति को देखने के लिए अनेक विदेशी लोग उत्साहित और उत्सुक होते हैं। गोवा से जाने वाली टीम में मुख्य रूप से अनावश्यक पश्चिमी नृत्य और गायन को भरने का प्रशासन का या कहा जाए राजनितिज्ञयों का उद्देश्य होता है। एक दो देशों के दौरे के दौरान यह पश्चिमी कार्यक्रम क्यों लिया? क्या इसके बदले हमें भारतीय नृत्य या संगीत नहीं दिया जा सकता था ? इन प्रश्नों ने हमें हैरान कर दिया।

गोवा को पर्यटन के नक्शे पर लाते समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि गोवा की लोककला, संगीत, नृत्य और कुल सांस्कृतिक परंपरा को योग्य प्रतिनिधित्व देना ही चाहिए। इससे हमारी प्राचीन कलाओं को अधिक संपन्न और समृद्ध होने में मदद तो होगी उसका झंडा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लहराने की हमारे पारंपरिक कलाकारों कि यह इच्छा अवश्य पूरी होगी।

 

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