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देह धरे को दण्ड

देह धरे को दण्ड

by रक्षा दुबे
in महिला, मार्च २०१६, सामाजिक
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इसका नाम कुछ भी हो सकता है, वह किसी भी जाति, वर्ग या समुदाय की हो सकती है, यहां तक कि उसकी उम्र कुछ भी हो सकती है; पर हां, इस आलेख की केंद्रीभूत पात्र होने के नाते उसका केवल स्त्री होना आवश्यक है। इस आलेख को पढ़ने वालों को अपना बेरहमी से पोस्टमार्टम करने के लिए भी तैयार रहना होगा।

दिनांक १९ अगस्त २०१५ की गोधूली शाम जब वह म.प्र. कटनी के लिटिल स्टार फाउंडेशन के डॉ. स्नेह एवं डॉ. समीर चौधरी के हाथों में सौंपी गई थी तब वह मात्र तेरह वर्ष की बालिका और लगभग ७ माह की गर्भवती थी। १९ अगस्त से ७ अक्टूबर तक वह उन्हीं की छत्रछाया में रही, लेकिन उसके प्रसव में जटिलता आने की आशंका के चलते प्रशासन द्वारा उसे किसी बेहतर केयर सेंटर/अस्पताल में रखने का फरमान जारी किया गया। ७ अक्टूबर से १० अक्टूबर तक वह बालिका जबलपुर के एल्गिन अस्पताल में रखी गई, जहां पर शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थी। प्रशासन और मीडिया के लगातार बढ़ते दबाव की घटिया परिस्थितियों और आने-जाने वालों के आक्षेपों से आहत बालिका ने जब अनशन शुरू कर दिया तो थक-हार कर प्रशासन ने बालिका को लिटिल स्टार फाउंडेशन वापस भेज दिया। जहां ८ नवंबर को उसने एक स्वस्थ बालक को जन्म दिया। अब वह तीन माह के स्वस्थ बालक की देखभाल करती सम्पूर्ण स्त्री है। सम्पूर्ण स्त्री इसलिए कि पुराणों से लेकर आधुनिक समय तक जिस तरह मातृत्व को स्त्री की सम्पूर्णता एवं उद्देश्यपरकता के रूप में व्याख्यायित कर उसके मानव मात्र होने का मखौल उडाया गया है, वह अद्भुत है।

१३ वर्ष की आज की यह सम्पूर्ण स्त्री १० वर्ष की उम्र से अपने सौतेले पिता से बलात्कार की पीड़ित है और इतनी अल्पायु में अपने स्त्री-देह रखने का दण्ड भी मातृत्व के रूप में उठा रही है। एक बच्ची जिसे स्वयं किसी की संरक्षकता में होना चाहिए था अब एक गंभीर और जिम्मेदार संरक्षक की भूमिका में है। एक नाबालिग की जिम्मेदारी पर एक अबोध शिशु सभ्य समाज की समाज व्यवस्था और कानून व्यवस्था के मुंह पर करारा तमाचा है।

नाबालिगों विशेषकर छोटे बच्चियों से बलात्कार के मामलों में कोई विशेष कानूनी प्रावधान भी नहीं हैं। सारे नियम कायदे वही हैं जो वयस्क महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में है, एक अपवाद अवश्य है कि छोटी बच्चियों के साथ सहवास को बलात्कार साबित करने के लिए बालिका की उम्र का प्रमाणीकरण आवश्यक होता है और साक्ष्य का भार बालिका पर डाला जाता है। दयनीय सामाजिक हालातों में पलने वाली बच्चियों के ऐसे ज्यादातर मामलों में उम्र के प्रामाणिक साक्ष्य मिल ही नहीं पाते और बलात्कारी संदेह का लाभ लेकर बरी हो जाते हैंै।

ऐसी स्थितियों में जहां बलात्कारी पिता, सौतेला पिता, भाई, घर का कोई अन्य पुरूष सदस्य, शिक्षक, पारिवारिक डॉक्टर, पड़ौसी अथवा कोई नज़दीकी रिश्तेदार होता है, उनमें से कितनी बेटियां ऐसी होती होंगी जो पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराकर स्वयं अपने जीवन या भविष्य को लांछित करने का साहस करेंगी? अगर यह स्थिति गर्भाधान या मातृत्व तक पहुंच जाए तब स्थितियां और भी भयावह हो जाती हैं, न्याय की अंधी देवी की तराजू के एक पलड़े में शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से प्रताड़ित स्त्री होती है और दूसरे में उसका चरित्र, सारी अदालती कार्यवाही बलात्कारी को परम प्रतिष्ठित सिद्ध करने के लिए अपने समस्त ‘किंतु-परंतु’ की ताकत झोंकती दिखाई देती हैं। ज्यादातर मामलों में कम उम्र की बलात्कार पीड़िता की या तो हत्या कर दी जाती है, या वे संक्रमण अथवा आघात मृत्यु का शिकार होती हैं या फिर संवेदनहीन सामाजिक और प्रशासनिक प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या का रास्ता चुन लेती हैं। कानून की बात आने पर पहली सोच यही रहती है कि इतनी बेइज्ज़्ाती तो इज्जत लुटने पर नहीं होती जितनी कोर्ट कचहरी में होती है। ऐसी दशा में कितने लिटिल स्टार फाउंडेशन हैं जो इन स्थितियों से गुज़रती बालिकाओं को आश्वस्त कर सकें कि वे सुरक्षित हैं, और अब कोई व्यभिचारी उनकी ओर आंख उठाकर नहीं देखेगा।

नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार, पश्चात हत्या, गर्भाधान, गर्भपात, अवांछित मातृत्व के अनेक न्यायालयीन दृष्टांंत मौजूद हैं, लेकिन कुछेक मामलों को छोड़कर प्राय: सभी मामलों मेंं उबाऊ, थकाऊ, अक्षम और अत्यधिक खर्चीली न्याय व्यवस्था के चलते अभियुक्त सम्यक साक्ष्यों के अभाव में संदेह का लाभ लेकर बाइज्जत बरी हो जाते हैं। एक दृष्टांत उल्लेखनीय है- कुमुदीलाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में सितम्बर १९९५ में एक चौदह वर्षीय हरिजन बालिका के साथ बलात्कार पश्चात् उसकी हत्या कर दी गई। विशेष न्यायालय एवं उच्च न्यायालय ने बलात्कारी को मृत्युदण्ड दिया। परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने उस मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित करते हुए विद्वान न्यायाधीश जी.टी. नानावती और एस.पी. कुरदुकर ने लिखा कि बालिका घटनास्थल पर अगर केवल निवृत्त होने गई थी तो कोई पाखाना प्राप्त क्यों नहीं हुआ? उसने अपनी सलवार पूरी तरह उतार रखी थी जो कि निवृत्त होने के लिहाज से आवश्यक नहीं था। उसने केवल अपनी सलवार ही नहीं उतारी थी बल्कि कुर्ता भी गले तक चढ़ा रखा था। गवाह और जांच अधिकारी के अनुसार भी शव नग्नावस्था में प्राप्त हुआ। उक्त परिस्थितियां बताती हैं कि संभवत: स्वयं बालिका भी छेडछाड़ के लिए उत्सुक थी, परंतु बलात्कार के लिए सहमत नहीं थी। अपीलार्थी अपनी कामेच्छा को रोक नहीं पाया और लड़की की अनिच्छा के बावजूद आगे बढ़ गया। इस पर जब लड़की ने शोर मचाया तो अपीलार्थी ने सलवार उसके गले में बांध दी जिससे दम घुटने से उसकी मृत्यु हो गई। हमारे विचार से इन साक्ष्यों पर विचार किए बगैर उच्च न्यायालय द्वारा मृत्युदण्ड की पुष्टि करना गलत था। इस दृष्टांत में माननीय न्यायाधीशों के तथाकथित मानवीय दृष्टिकोण में बलात्कार को संयोग सिद्ध करने की उत्कट इच्छा और कवायद साफ दिखाई दे रही है। ऐसी स्थितियों में न्याय का लक्ष्य पूरा हो न हो पुरूष की पाश्विक पिपासा का लक्ष्य तो पूरा हो ही जाता है।

सामान्य स्थितियों में भी बाल्यकाल से ही अपनी दोयम स्थिति की निरंतर विवेचना, जवाबदेही के कठोर सांचों में बंध कर ऐसी अनेकानेक दुर्घटनाओं की आशंकाओं में जीना सीखने का अभ्यास स्त्री के समाजीकरण की धुरी है। हमेशा एक आसन्न दुर्घटना के भय से ग्रस्त, कम बोलने, ज्यादा न हंसने और पुरूषों के सामीप्य में न आने के अजीबोगरीब कायदों का अभ्यास करना वह अपनी नियति समझती है और अपने कौमार्य एवं यौन शुचिता के साथ पुरूष की कृपा प्राप्ति को जीवन का सर्वोच्च संस्कार मानती है। ऐसी संकुल स्थितियों में यदि बलात्कार से पीड़ित कोई बालिका अथवा स्त्री समाज के मनोरंजन का विषय बन भी जाए तो आश्चर्य कैसा ? बच्चियों के साथ बलात्कार के लगातार बढ़ते हुए प्रकरण सामाजिक रूग्णता का प्रमाण है। ऐसी मनोरोगी समाज व्यवस्था में जहां उस बच्ची के जैसी न जाने कितनी पीड़ित बच्चियां/स्त्रियां हैं, जिनका दामन चाक-चाक है, जो अपने भविष्य के हर पल में अपने अतीत से आतंकित हैं। इन घटनाओं की बार-बार पुनरावृत्ति यह बात भी साबित करती है कि समाज में रहने की अच्छी स्थितियां सिर्फ कानून के माध्यम से पैदा नहीं की जा सकतीं, उसके लिए जागरूक सामाजिक शक्तियों का सतत प्रयास आवश्यक है। एक प्रश्न यह भी उठता है कि नाबालिग माताओं के बच्चों के भविष्य के लिए कानून व्यवस्था में कौन-कौन से यथोचित बदलाव किए जाएं? प्रश्न अनेक हैं, जिन पर पूरी चेतना, संवेदनशीलता और शक्ति के साथ विचार विमर्श किया जाना आवश्यक है, अन्यथा हमारी सभ्य सामाजिक व्यवस्था एक भद्दा मजाक है और कानून एक भौंडी कॉमेडी।

मो 9479845151

Tags: empowering womenhindi vivekhindi vivek magazineinspirationwomanwomen in business

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