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कीनु

कीनु

by श्रुति
in कहानी, ग्रामोदय दीपावली विशेषांक २०१६
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ईश्वर की अजब लीला है। चौरासी लाख योनियों में से केवल मनुष्य ही ऐसी योनी है जिसमें विवेक तत्व है। लेकिन इस तत्व का उसने सदैव गलत प्रयोग ही किया है। चुनिंदा लोग ही इस धरती पर वास्तव में मनुष्य कहलाने योग्य हैं। मेरी इस धारणा के पीछे जीवन का कटु यथार्थ है, जिसे मैंने स्वयं को और दूसरों को भोगते देखा है

इनमें से ही एक कीनू है। पहाड़ी, पतला-दुबला, गोरा, सामान्य नैन-नक्श, हिरन जैसी फूर्ती वाली चाल और सब से प्यारी उसकी बोली। १४ वर्षीय कीनू घर के सारे काम भाग-भाग कर करता है और खाली समय में अपनी हाईस्कूल की पढ़ाई भी।

* * *हम गर्मियों की छुट्टी में जिनके घर गए वे बड़े ही शानो-शौकत वाले, मेरे पति के बचपन के दोस्त थे। वैसे तो दंपति मिलनसार व सेवाभावी लगे, पर हर चेहरे पर एक नकाब होती है तो वे उसे कब तक ओढ़े रहते। जब हम सबको दो-तीन दिन उनके यहां रहते- रहते हो गए तो वे भी सामान्य ढर्रे पर आ गए। जब सब नैनीताल के लिए निकलने लगे तो उनका नौकर कीनू ही घर पर छोड़ा गया। मैंने शिष्टतावश पूछा-क्या। उसके लिए खाना वगैरह नहीं छोड़ा है? वह क्या खाएगा? उन्होंने नाक-भौं चढ़ा कर कहा – चोट्टा है। कहीं न कहीं से खाने का इन्तजाम कर ही लेगा। रसोई खुली छोड़ कर मरना है क्या?
वाह रे इन्सानियत! खुद के सफर के लिए इतना भर-भर कर खाना-पीना रखना और उस बेचारे के लिए इतना जहर। खैर, जब हम दो दिन बाद वापस उनके घर आए तो कीनू बड़ी ही रुग्णावस्था में हमें मिला। पता चला कि दो दिन से कुछ भी नहीं खाया है और दंपति के डर से अब आसपड़ोस के लोगों ने भी उसे खाना देना बंद कर दिया है।

बीच-बीच में कीनू अपने मन की बातें चुपके-चुपके मुझ से कर जाता और अनुनय करते हुए बोलता- आंटीजी! मुझे अपने साथ शहर ले चलो। मै वहां आपकी खूब सेवा करुंगा। यह तो मालिक मालकिन मुझे मार-मार कर एक दिन जान से ही मार डालेंगे। कहते हुए उसने अपना शरीर उघेड़ा। यह क्या? पूरे शरीर पर सिगरेट से जलाने के निशान मौजूद थे। जगह-जगह मार के नील भी पड़े थे। उफ! इतनी कठोरता? ये कैसे इन्सान हैं। बहुरूपिया कहीं के।
धीरे-धीरे मैंने अपने पति को छुप -छुपाकर सारी बातें बताईं और मन ही मन हमने कीनू को उनसे आज़ाद करने का मन बनाया। ऐसा लगता था कि वह भी उनसे छुटकारा पाना चाहता है। कौन बीमार, सूखे, एक हड्डी वाले इन्सान को बतौर नौकर रखना चाहेगा? जैसे ही हमने उन्हें कीनू कोे अपने साथ ले चलने की अनुमति मांगी तो वे सहर्ष तैयार हो गए और हमने भी मित्रता की नींव को ठेस न पहुंचाते हुए खुशी-खुशी उनसे विदा ली। शायद कीनू को भी उनसे मुक्ति की खुशी थी। मुझे ज्यादा खुशी थी। अब की बार मैंने भी नकाब लगाते हुए उनके आदर सत्कार की तारीफों के पुल बांधे और अपने शहर चल पड़े। जबकि मन अंदर से पूर्णरुपेण आहत था।

सर्वप्रथम शहर आते ही कीनू का पूर्ण स्वास्थ्य परीक्षण करवाया। पता चला कि उचित देखभाल के अभाव में वह टी.बी. का मरीज बन चुका है। छह माह के लम्बे इलाज के बाद उसे रोग से मुक्ति मिल पाई। अब कीनू हमारा गोद लिया हुआ बेटा बन चुका है। शहर के अच्छे स्कूल में उसका दाखिला हो चुका है। बोर्ड की दसवीं परीक्षा कीनू ने ८७ प्रतिशत अंकों से पास की और अखबारों में उसका नाम व फोटो भी छपे। हमारे बच्चों के संग-संग कीनू भी प्रगति की राह पर अग्रसर है और भविष्य उसका उज्ज्वल है। कीनू बेटे! तुम्हारे लिए कुछ पक्तियां-

जीवन की राह में
सदैव शूल लिए
फूल दिये, विष पिया
अमृत दिया, दु:ख लिए
सुख दिए, उपेक्षा सही
सम्मान दिया, कभी हारा नहीं
क्योंकि धैर्य था
हरा सकते नहीं उसे
जिसे हर कदम
कांटों ने ही चलना
सिखाया है।

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Tags: arthindi vivekhindi vivek magazineinspirationlifelovemotivationquotesreadingstorywriting

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