आंचल में अंगार सहेजने वाली सुलभा

हमने ही आपात्कालीन परिस्थिति समाप्त कराई’ ऐसी डींग कइयों ने हांकी होगी, प्रशंसा बटोरी होंगी। जो आपात्काल के विरोध में खड़े हुए, भूमिगत हुए, जेल गए उन्हें यह पता है कि आपात्काल के विरोध में लड़ाई जीती गई इसका कारण है सुलभा शांताराम भालेराव जैसी साहसी महिलाओं ने बिना कुछ कहे इस लड़ाई का मुकाबला किया।

वह कोई सांसद नहीं थी और ना ही विधायक, ना ही पार्षद। वह कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यकर्ता भी नहीं थी। वे अनेकों गृहिणियों जैसी सामान्य गृहिणी थी, इसलिए उनकी मृत्यु की कोई खबर नहीं बनी। समाचार-पत्रों में लेख लिखने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था।

सामान्य गृहिणी होकर भी उन्होंने असामान्य काम किया। एक महीने तक धधकती आग को वह सहती रही। वह आग मैं ही था। आपातकाल का समय था। उस समय संघ के आदेश से मैं भूमिगत हो गया था। मुझे अपने घर में सहारा देना यानी आग से खेलना था। वह उन्होंने खुशी-खुशी सह लिया।

मेरी दृष्टि से वह भाभी थी। उनका नाम क्या था? पढाई कहां तक हुई थी, आदि बातों की जानकारी रखने की तब कोई जरूरत नहीं थी। संघ कार्यकर्ता को ऐसी बातों की जरूरत महसूस नहीं होती। संघ कार्य करते समय कई घरों से संबंध जुड़ जाता है। घर-घर संपर्क किए बगैर संघ कार्य नहीं होता। जहां पर आसानी से रहा जा सकता है ऐसे घरों से रिश्ता बनाए रखना पड़ता है। ऐसे हर घर में एक भाभी होती है, वहीं आने वाले कार्यकर्ता की मां, बहन और मौसी बन जाती है। सुलभा शांताराम भालेराव ऐसी ही भाभियों में से थी।

पहली बार उनसे मेरा परिचय हुआ जब मैं अंधेरी का मंडल कार्यवाह बना। मेरे मंडल का विस्तार अंधेरी (पूर्व) से साकीनाका तक था। ‘बस्ती योजना’ भी उसी समय शुरू हुई थी। अंधेरी-कुर्ला मार्ग पर मरोल गांव है। यह गांव अपना पुराना ऐतिहासिक महत्व रखता है। चिमाजी अप्पा की जो वसई मुहिम थी उसमें मरोल गांव में हुई आपसी टक्कर (मुकाबला) का उल्लेख मिलता है। यह गांव पहले साष्टी द्वीप के अंतर्गत था। पुर्तुगीजों का राज था। उन्होंने बड़ी कू्ररता से कई गांवों को ईसाई बना दिया। उसमें मरोल गांव भी ईसाई बना। मेरे कार्यक्षेत्र में गुंदवली, सहार, बामनवाडा, चकाला जैसे ईसाई गांव समाविष्ट थे। मरोल में जो हिंदू बस्ती थी, वहां पर संघकार्य शुरू करना था।

संपर्क किए जाने वाले घरों में शांताराम भालेराव जी का परिचय हुआ। वे क्यूक्स सोड़ा कंपनी में सप्लायर्स के तौर पर काम करते थे। उनके घर मेरा आना-जाना शुरू हुआ। मेरे साथ शंकरदास वाधवा जी रहते थे, जो आगे चल कर भारतीय मजदूर संघ के घरेलू कामगार संगठन के मुख्य संगठक बने। तब वे साकीनाका में रहते थे। भालेराव परिवार के साथ मुझ से ज्यादा गहरा रिश्ता स्थापित हुआ।

जब हर बस्ती में कार्यक्रम किए जाने की बात तय होती, तब भालेराव जी का घर हमारा कार्यालय बन जाता, भाभीजी चाय-नाश्ता और भोजन का प्रबंध करती। एक बार उनके यहां भोजन था, शायद वह शंकरदास वाधवाजी ने ही तय किया था। भाभीजी ने हाल ही में नवजात शिशु को जन्म दिया था। ऐसी हालत में भी उन्होंने कार्यकर्ताओं के लिए भोजन बनाया। आज इस घटना को याद करके मजमून लिखते समय हाथ कांपते हैं।

आपत्कालीन स्थिति घोषित हुई और मैं भूमिगत हो गया। मनुष्य स्वभाव के अलग-अलग अनुभव प्राप्त होने लगे। मुझे पहचानने वाला सामने दिखता तो वह अपना रास्ता बदल देता था। मुझे अनदेखा कर निकल जाता था। रमेश को पहचानना मतलब मुसीबत को बुलावा देने जैसा था। ज्यादातर हमने ऐसे स्वयंसेवकों को ढूंढना शुरू किया जो स्वयंसेवक कभी प्रकट न होते। तब मुझ पर संघ के प्रांत स्तर के और केंद्र स्तर के भूमिगत कार्यकर्ताओं की आवश्यकता के अनुसार मेरे कार्यक्षेत्र में व्यवस्था करने का काम सौंपा गया। तब तक मैं पार्ला, अंधेरी, जोगेश्वरी इन तीन शहरों का कार्यवाह बन गया था।

मुझे भी अपने स्वयं के रहने की व्यवस्था करनी पड़ी। तब एक महीना भालेराव जी के यहां रहना तय हुआ। तब वे पुराना घर छोड़ कर मरोल गांव के फ्लैट में रहने चले गए थे। फ्लैट छोटा था, आज भी वह वैसा ही है। आजकल की भाषा में उसका क्षेत्र एक बीएचके था, पर वह पुराना घर होने के कारण वर्तमान एक बीएचके से थोड़ा बड़ा था। १९७५ से पूर्व में उसके घर रहने चला गया। माधुरी, संगीता, अरुणा, वीणा और दिलीप ये पांच बच्चे और पति-पत्नी और मैं। बच्चे उस समय स्कूल जाते थे।

मेरा परिचय नए सिरे से कराने की जरूरत नहीं थी, मैं परिचित तो था ही। मुझे घर पर रखने में कौनसा खतरा है, यह बताने की जरूरत थी। वह उन्हें पता था। मैंने उनसे सिर्फ इतना ही कहा “मैं रोज कहां जाता हूं। कब आऊंगा? ये सवाल आप मुझ से ना पूछें, अगर मैं वापस न आया तो समझ लीजिए कि पुलिस ने मुझे पकड़ लिया, मेरी चिंता न करें।” जब मैं घर पर रहता तब माधुरी, संगीता, अरुणा के साथ मेरा अच्छा समय कटता। घर छोटा होने के कारण उनकी सब से छोटी बेटी मेरी गोद में सो जाती। आपात्कालीन कालखंड दिक्कतों से भरा था, पर यह समय जिंदगी भर की यादें संजो कर रखने वाला समय बन गया।

आपात्कालीन परिस्थितियों की दीवाली भाभीजी के घर पर ही मनाई गई। तब मैं सहार गांव में रहता था। मरोल और सहार ज्यादा दूर नहीं है। घर जाने का सवाल ही नहीं उठता था। दीवाली का अभ्यंग स्नान, मिठाइयां खाना, पटाखे छोड़ना सब उधर ही संपन्न हुआ। १५-२० दिन के अनंतर भाभीजी ने मुझसे पूछा
“रमेश जी, आपको खाने में क्या अच्छा लगता है कुछ पता नहीं चलता।”
“युवाओं की पसंद का खाना ही मैं खाता था, पर संघ कार्यकर्ता को एक बात ध्यान में रखनी पड़ती है कि जो भी परोसा जाए वह खुशी-खुशी खाया जाए। पसंद-नापसंद कुछ भी नहीं। मुझे क्या अच्छा नहीं लगता वह मैं आप को बताता हूं। मुझे सुआ की सब्जी (मराठी-शेपूजी भाजी) अच्छी नहीं लगती, यह सब्जी मुझे पसंद नहीं। आपके घर पर पहली बार मैंने वह सब्जी खाई।”
भाभीजी हंसने लगी और उन्होंने कहा, “आपने बताया क्यों नहीं, मैंने आग्रह कर वह सब्जी आपको दो बार खिलाई।”
मैंने उनसे कहा, “और एक बार खिलाओगी तो भी मैं खा लूंगा।”

तत्पश्चात ११ फरवरी १९७६ के दिन उनके घर से दो किलोमीटर की दूरी पर मैं पकड़ा गया। संयोग से मेरी मुलाकात ‘गिरफ्तारी संघर्ष समिति’ के अखिल भारतीय कार्यवाह संगठन कांग्रेस के सचिव और उस समय के कांग्रेस के अखिल भारतीय नेता रवींद्र वर्मा के साथ हुई। हम पर ‘मीसा’ लगा दिया गया। मीसा जेल से बाहर आने के सभी दरवाजे बंद कर देने वाला कानून था। चौदह महीने बाद मैं जेल से बाहर आया। तब आपात्कालीन परिस्थिति नहीं थी। इंदिराजी के राज को लोगों ने मतों के माध्यम से नकार दिया। अहिंसक क्रांति हुई।

जेल से बाहर आने पर बड़ी शोभायात्रा, सम्मान मिला। तब भी और आज भी मन में विचार आता है कि, सच में देखा जाए तो आपात्कालीन मुश्किलों की लड़ाई सुलभा शांताराम भालेराव ने ही लड़ी। वे हमारे पीछे साहस के साथ बैखौफ खड़ी न होती तो भूमिगत कार्य करना असंभव होता। एक जलता शोला साथ में रख कर सुखी परिवार में महीने भर जीना मानसिक तनाव से भरा रहा होगा, यह सोचने लायक बात है। उनके घर के पास ही मैं पकड़ा गया। पुलिस कभी भी अपने घर आ सकती है यह डर क्या भालेराव पति-पत्नी को लगा? लगा होगा, पर उन्होंने वह जाहिर नहीं होने दिया। रमेश पतंगे भूमिगत था, तब मैंने ही उसे आश्रय दिया था, ऐसा सुलभा भाभीजी ने कभी नहीं कहा। ‘हमने ही आपात्कालीन परिस्थिति समाप्त कराई’ ऐसी डींग कइयों ने हांकी होगी, प्रशंसा बटोरी होंगी। जो आपात्काल के विरोध में खड़े हुए, भूमिगत हुए, जेल गए उन्हें यह पता है कि आपात्काल के विरोध में लड़ाई जीती गई इसका कारण सुलभा शांताराम भालेराव ने बिना कुछ कहे लड़ाई का सामना किया। ऐसी साहसी सुलभाओं का चरण स्पर्श करके यह लेख समाप्त कर रहा हूं।

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