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अनजान रिश्ते

by राजेंद्र परदेसी
in अप्रैल २०१७, कहानी
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सीमा और प्रकाश का परिवार बरसों से शहर के एक ही मोहल्ले में रह रहा था। पर उन दोनों का एक दूसरे से सामना कभी नहीं हुआ। प्रकाश ने विश्वविद्यालय में जब उसी की कक्षा में प्रवेश लिया और ऐसे ही औपचारिक परिचय में अपने मोहल्ले का नाम बताया तो सीमा को आश्चर्य हुआ कि वह भी तो उसी मोहल्ले में रहती है। फिर भी आजतक कभी एक दूसरे को नहीं देखा।
एक ही मोहल्ले के रहने के कारण दोनों का औपचारिक परिचय धीरे-धीरे दोस्ती में परिवर्तित हो गया। जब भी अवसर मिलता, दोनों विश्वविद्यालय में काफी समय साथ ही बीताते। पढ़ाई से लेकर राजनीति आदि की बातें करते रहते। उनकी घनिष्ठता धीरे-धीरे इतनी बढ़ गई कि उनके बीच वार्ता के विषय का कोई बंधन नहीं रहा गया था। फिर भी दोनों ने मर्यादा की सीमा कभी नहीं लांघी।
समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला। दो साल पहले विश्वविद्यालय में साथ ही प्रवेश लिया था। अगले माह उनकी वार्षिक परिक्षा थी। उसके बाद पुन: एक -दूसरे की राह अलग होने को थी। उन्हें अपनी जीवन के लिए नई राह खोजनी होगी। उनकी यह दोस्ती का क्या होगा, वह तो भविष्य के गर्त में छुपा था।
परीक्षा सिर पर होने के कारण दोनों को इसको लेकर तनाव स्वाभाविक ही था। आज के प्रतियोगिता युग में परीक्षा में सफलता पाना ही काफी नहीं है बल्कि स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करना ही पड़ता है। इसी विषय पर सीमा और प्रकाश चर्चा कर रहे थे कि सीमा के पास एक पुस्तक देखकर प्रकाश बोला-‘‘सीमा क्या यह बुक मुझे दो दिन के लिए दोगी?’’
‘‘क्या करोगे?’’
‘‘नोट्स तैयार कर रहा हूं, इसमें से भी जो अच्छा होगा, उसे जोड़ लूंगा।’’
‘‘अभी लो, पर नोट्स तैयार कर लेना तो मुझे भी देना’’, पुस्तक देते हुए सीमा ने कहा।
‘‘ठीक है, तुम भी ले लेना, पहले मैं नोट्स तैयार तो कर लूं’’
सीमा ने प्रकाश को पुस्तक दे दी।
सीमा से पुस्तक लेकर प्रकाश ने उसे अपने पास रख ली। फिर दोनों अपने -अपने घर चल दिए।
प्रकाश ने नोट्स तैयार कर लिए तो एक सप्ताह बाद जब सीमा को पुस्तक देने के लिए विश्वविद्यालय चलने को तैयार हुआ तभी अचानक किसी अज्ञात प्रेरणा से प्रभावित होकर उसमें प्रेम पत्र रख दिया।
विश्वविद्यालय में जब सीमा से भेंट हुई तो प्रकाश उसकी ओर पुस्तक बढ़ाते हुए बोला-‘‘सीमा, तुम पुस्तक लो, मैंने नोट्स तैयार कर लिए हैं।’’
पुस्तक देते समय प्रकाश को कुछ असमंजस लग रहा था। सीमा को इसका आभास हुआ, पर सोचा कि परीक्षा के टेंशन से नर्वस हो रहा है। बोली-‘लगता है तुमने नोट्स तैयार करने में काफी मेहनत की है।’’
‘‘नहीं तो…’’
‘‘फिर इतने नर्वस क्यों हो?’’
‘नोट्स के चक्कर में रात को ठीक से सो नहीं पाया, शायद इसीलिए तुम्हें ऐसा लग रहा है’’ कारण को छुपाते हुए प्रकाश बोला।
‘‘अच्छा छोड़ो यह बात, मुझे नोट्स कब दोगे?’’
‘‘कल और परसों छुट्टी है, उसके बाद जब विश्वविद्यालय आऊंगा तो लेता आऊंगा’’, सीमा को आश्वस्त करते हुए प्रकाश ने कहा।
सीमा भी पुस्तक को बिना खोले या देखे अपने पास रखकर चली गई। दो दिन बाद प्रकाश अज्ञात भय से भयभीत था। वह मन-ही-मन सोच रहा था कि पता नहीं सीमा पत्र पाकर मेरे बारे में क्या सोचेगी। अफसोस भी हो रहा था कि मुझे पत्र नहीं रखना चाहिए था। पर जो हो गया उसे अब सुधार नहीं सकता था। इन्हीं विचारों में उलझा वह विश्वविद्यालय चला गया। सीमा को देखकर एक बार उसके मन में विचार आया कि वह उसके सामने आज जाएगा ही नहीं। तभी सीमा पास आकर बोली-‘‘क्या बात है, प्रकाश तुम्हें कब से आवाज दे रही हूं, और तुम हो कि सुनते नहीं।’’
‘‘सुनाई नहीं पड़ा, देख नहीं रही हो आसपास कितना शोर हो रहा है?’’ सच को छुपाने की कोशिश में प्रकाश बोला।
‘‘सुनाई नहीं पडा, कि मेरे सामने नहीं आना चाहते थे।’’
‘‘ऐसा क्यों?’’शंकावश प्रकाश ने सवाल किया।
‘‘तुम नोट्स जो नहीं लाए’’, सीमा ने कारण स्पष्ट किया तो प्रकाश के मन को थोड़ी राहत हुई। वह तो पत्र को लेकर विचलित हो रहा था। सहज होकर बोला-‘‘लो नोट्स…. ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम मांगों और मैं न लाऊं।
नोट्स लेकर सीमा बोली- बहुत सुंदर नोट्स बनाया है। अब मुझे किताब नहीं देखनी पड़ेगी।
‘‘शुक्रिया’’, कह कर प्रकाश मन ही मन में सोचने लगा-सीमा ने मेरे पत्र के बारे कुछ नहीं कहा। शायद उसने देखा नहीं होगा। लेकिन यह संभव नहीं कि इतने दिन बाद भी पत्र पर उसकी नजर न पड़ी हो।
‘‘क्या सोच रहे हो, मैं इसे एक सप्ताह के लिए जा रही हूं। उतार कर वापस कर दूंगी।’’
‘‘ठीक है…’’, प्रकाश इससे अधिक कुछ न बोल सका।
इस घटना को बीते काफी दिन हो गए पर दोनों में से किसी ने पत्र को लेकर कोई बात नहीं की। धीरे-धीरे परीक्षा की तिथि भी घोषित हो गई। सीमा और प्रकाश अब जब भी मिलते पढ़ाई और परीक्षा पर ही केन्द्रित बात करते। पर अन्दर ही अन्दर दोनों के बीच आपसी आकर्षण समाप्त होने लगा था। कारण कहीं -न-कहीं वह पत्र का विषय ही था। पर दोनों ही उसके बारे में कुछ कहने से परहेज भी कर हरे थे। अंतिम परीक्षा के बाद विशवविद्यालय आना समाप्त हो गया और फिर उनका मिलना भी संभव न हुआ।
एम. ए. पढ़ाई समाप्त करने के साथ ही सीमा के परिवार के लोगों ने उसकी शादी कानपुर में कर दी। वह शहर से कानपुर चली गई। प्रकाश को भी केन्द्र सरकार के अधीन नौकरी मिल गई। वह भी शहर से नौकरी पर दिल्ली चला गया।
विद्यार्थी जीवन में सीमा को लेकर जो प्रेम की पौध उगी थी धीरे-धीरे सूख गई। प्रकाश ने भी शादी कर दिल्ली में ही अपनी गृहस्थी बसा ली, पर उन दिनों को भूल नहीं पाया था जो सीमा के साथ बिताए थे। प्रेम पत्र को तो भूल गया था। पर उसकी यादों को भूल नहीं पा रहा था। वह भी शायद एक ही शहर के होने के कारण। इसलिए किसी न किसी के माध्यम से सीमा के बारे में जानकारी पाता ही रहता था। जब उसने पहले बेटे को जन्म दिया था, तो उसके शुभचिंतक ने ही प्रकाश को बताया था कि वह मां बन गई है।
सालों बाद जब वह दिल्ली से अपने शहर गया, तो उसके एक मित्र ने ही उसे बताया कि सीमा को कैंसर हो गया है। अब वह शायद कुछ ही दिन की मेहमान है। यह समाचार सुन प्रकाश को बहुत दुख हुआ। एक बार उसने सोचा कि कानपुर जाकर उससे मिल लिया जाए। दिल्ली से कानपुर जाने में अधिक समय भी नहीं लगता। फिर सोचा, मेरे जाने से उसके घर वाले पता नहीं क्या सोचें। वह मन की भावना को मन में ही दबाकर बैठ गया।
दिल्ली में प्रकाश की पोस्टिंग हुए काफी समय बीत गया। अचानक एक दिन मुंबई के लिए उसे आदेश दे दिया गया। वह बच्चों की पढ़ाई को लेकर चिंतित हुआ। मुंबई शिफ्ट करने पर फिर से पूरी व्यवस्था नए सिरे से करनी होगी। यहां तो अपना मकान है। वहां किराये पर रहना होगा। ऊपर से बच्चों के एडमीशन का चक्कर पड़ेगा। इन्हीं सब बातों को सोचकर परिवार को दिल्ली में ही छोड़कर अकेले मुंबई जाने का निर्णय किया।
अभी मुंबई में ज्वाइन किए माह भी न बीता था कि एक दिन, जब वह कार्यालय जाने के लिए तैयार हो ही रहा था, डोर पर की घंटी बजी। दरवाजा खोलकर देखा एक सोलह-सत्रह साल का लड़का सामने खड़ा है। उसने हाथ जोड़कर नमस्कार किया, तो प्रकाश ने पूछा-‘बेटा, क्या काम है?’
‘‘अंकल, मेरी मां कैंसर अस्पताल में भर्ती है, वह आपसे मिलना चाहती है।’’
‘‘मैं तो तुम्हें जानता भी नहीं, फिर तुम्हारी मां मुझे कहां से जानेगी?’’
‘‘वह आपको जानती है, वह एम. ए. में आपके साथ पढ़ती थी।’’
‘‘तुम्हारी मां का क्या नाम है?’’
‘‘सीमा।’’
सीमा का नाम सुनते ही प्रकाश अचम्भित हो गया। वह ग्लानि महसूस कर रहा था। वह यह तो जानता था कि सीमा को कैंसर हो गया है। उसके बाद क्या हुआ, उसने कभी जानने की कोशिश नहीं की। एक सीमा है जो आज भी मेरे बारे में पूरी जानकारी रखती है। प्रकटत: पूछा-‘‘बेटा, तुम्हें कैसे मालूम की मैं यहा रहता हूं?’’
‘‘मम्मी ने बताया कि आप दिल्ली से मुंबई आ गए हैं। उन्होंने आपके ऑफिस में मुझे भेजा था। यह पता लगाने कि आप मुंबई में कहां रहते हैं। आपके ऑफिस से ही पता चला कि आप यहां रहते हैं।‘‘
बच्चे की बात सुनकर प्रकाश पश्चात्ताप की अग्नि में जलने लगा कि अपने सुख के लिए ही केवल सीमा की ओर देखता रहा। आज जब वह मृत्यु का आलिंगन करने जा रही है तो वह उसकी सुध लेना भी भूल गया। इसी उधेडबुन में था कि लड़के ने कहा-‘अंकल अभी आपके पास समय न हो तो जब समय मिले एक बार मम्मी से जरूर मिल लीजिएगा।’
‘‘नहीं बेटा, मैं अभी तुम्हारे साथ तैयार होकर चल रहा हूं’’
‘‘ऑफिस भी तो जाना होगा आपको?’’
‘‘वहां से छुट्टी ले लेता हूं’’ कह कर मोबाईल से अपने अधिकारी को सब बात बता कर छुट्टी प्राप्त कर ली।
छुट्टी मिल गई तो लड़के के साथ अस्पताल चला गया। वहां देखा जो सीमा सौंदर्य की प्रतिमा लगती थी, आज वही निर्जीव और मुरझाये फूल की तरह बेड पर पड़ी है। प्रकाश को देखते ही उसने हाथ जोड़कर नमस्कार किया, फिर पास पड़े स्टूल पर बैठने को कहा, प्रकाश जब बैठ गया तो बेटे को उसके लिए चाय लाने को कहा।
बेटा जब चाय लाने गया तो प्रकाश ने स्टूल उसके पास खिसका लिया जिससे उसे बात करने में परेशानी न हो। वह सीमा से उसके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी लेने के लिए कुछ पूछने को सोच ही रहा था कि उससे पहले सीमा बोली-‘प्रकाश, क्या तुम्हें अभी भी याद है कि तुमने मेरी पुस्तक में पत्र लिखकर दिया था, क्योंकि तुम मुझे संकोचवश हाथ में नहीं दे पाए थे।;;
बात को सीमा और आगे बढ़ाती कि प्रकाश बोल पड़ा-‘‘छोड़ो, वह बात आई और गई। इतने दिनों बाद जिसका कोई औचित्य ही नहीं, उसको दोहराने की क्या जरूरत? बात की दिशा मोड़ने के लिए पूछा-तुम्हारी तबीयत अब कैसी है? डॉक्टर ने क्या कहा?’’
प्रकाश की बातों को अनसुनी करते हुए सीमा ने कहा-‘‘बीमारी का इलाज डॉक्टर कर ही रहे हैं, पर तुम्हारे दिल में यह तो होगा ही कि सीमा ने आखिर मेरा पत्र देखा था कि नहीं। मैंने तुम्हारे पत्र को रास्ते में पढ़ लिया था। घर पहुंचते अपनी मम्मी को दे दिया था। उनकी सहमति के लिए उन्होंने उस पत्र की बात पिता और दादाजी को बताई। मां की बातों को सुनकर और तुम्हारे परिवार के बारे में जानकर दोनों के मुख से एकसाथ निकला- यह रिश्ता तो कभी हो ही नहीं सकता। रिश्ता न होने का जो कारण बताया वह सुनकर मैं स्वयं सुन्न रह गई थी। फिर तुम्हें क्या उत्तर देती।’’
‘‘ऐसी क्या बात थी, जिसके कारण हम लोगों का रिश्ता नहीं हो सकता था’’ प्रकाश के अंदर सच को जानने के लिए उत्सुकता बढ़ गई। अभी तक सीमा को ही दोषी समझ रहा था। पर सीमा ने उसके रिश्ते के लिए मां से कहने का साहस दिखाया था। बात की पुरी सच्चाई जानने के लिए सवाल किया तो वह बोली कि सच जानने के बाद तुम भी वही फैसला करते जो मेरे परिवार क्या सभी के परिवार करते।
सीमा की बात को सुनकर प्रकाश यह भी भूल गया कि वह कहां बैठा है। तभी तो खींझ कर बोला-‘‘कुछ सही कारण भी बताओगी कि केवल कहानी ही सुनाती रहोगी।’’
‘‘तुम जानते ही हो कि हम तुम एक ही गांव से आकर शहर में बसे हैं, पर हम लोग यह नहीं जानते थे कि हमारे और तुम्हारे दादा दोनों सगे भ्राता हैं। गांव में जमीन को लेकर जो झगड़ा उन लोगों के बीच हुआ, वह शहर आकर भी समाप्त नहीं हुआ। परिणाम यह हुआ कि शहर के एक ही मोहल्ले में रह कर भी एक दूसरे के परिवार से अनजान हो गए।
सीमा की बातों को सुन कर प्रकाश विवेकशून्य हो गया। वह क्या बोले? थोड़ी देर बाद सहज हुआ तो बोला- ‘‘यह बात तो हमारे परिवार में किसी ने कभी नहीं बताई कि शहर में ही हमारे दादा के भाई भी रहते हैं।’’
‘‘क्या तुमने उनसे कभी पूछा था?’’
‘‘नहीं तो, हम क्या जानते थे?’’
‘‘फिर कैसे बताते, अपनी बात को सीमा ने और स्पष्ट किया। अगर मैं तुम्हारे पत्र की बात मां से न करती तो शायद मुझे भी मालूम न होता क्योंकि दोनों परिवार की शत्रुता उन्हें एक-दूसरे से मिलने ही नहीं देगी।’’ इतना कह कर सीमा ने सिर के तकिया के नीचे रखे पर्स को उठाया और उसमें से एक कागज का टुकड़ा निकाल कर प्रकाश की ओर बढ़ाती हुई बोली- ‘‘लो इसी पत्र को मुझे बुक में रख कर दिया था न, उस समय तो उत्तर न दे सकी थी, आज इसका उत्तर दे रही हूं।’’
प्रकाश ने पत्र को लेकर देखा तो वही पत्र मुड़ा हुआ था जिसे उसने सीमा को लिख कर पुस्तक में दिया था। परंतु उस पर बंधा था दोनों के बीच के ‘अनजान रिश्ते’ को दर्शाने वाला धागा।

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