नवयुग का सूत्रपात

भाजपा हाल के चुनावों में एक संगठित राष्ट्रीय शक्ति व कर्मठ नेतृत्व के साथ उभरी है, जबकि कांग्रेस नेतृत्वविहीन एवं असंगठित दिखाई दे रही है। अखिलेश की सपा एवं मायावती की बसपा तथा केजरीवाल की आप महज क्षेत्रीय पार्टियां ही बन कर रह गई हैं। उनके राष्ट्रीय मानचित्र पर उभरने की उम्मीदें धूमिल हो गई हैं।

जब आप इस आलेख को पढ़ रहे होंगे तब पांच राज्यों के चुनावों को लगभग एक माह बीत चुका होगा। इस बीच तरह-तरह के राजनीतिक व चुनावी विश्लेषण भी आप पढ़ चुके होंगे। इसलिए अब आकड़ेबाजी में सिर खपाने में कोई तुक नहीं है, न तात्कालिक परिणामों पर बहुत गौर करने की आवश्यकता है। सब से बड़ी जरूरत इस बात को समझने की है कि इन परिणामों के राष्ट्रीय राजनीति व समाज जीवन पर क्या परिणाम होंगे।

मेरी राय में सब से बड़ा पहलू यह है कि इन चुनावों ने एक नए राष्ट्रवादभरे जीवन का तानाबाना बुना है। राष्ट्रवाद का यहां अर्थ भारतीयता से है। भारत के प्रति समग्र निष्ठा इसका केंद्रबिंदु है। इसलिए राष्ट्रवाद के इस नवजागरण या नवयुग को बहुसंख्यकों के राष्ट्रवाद या अल्पसंख्यकों के राष्ट्रवाद के रूप में नहीं बांटा जा सकता। न उसे संकुचित साम्प्र-दायिकता, जातिवाद, परिवारवाद, क्षेत्रीयता आदि चिपका सकते हैं। ये नकारात्मक पक्ष राष्ट्रवाद को जोड़ दिए जाए तो राष्ट्रवाद स्वयंमेव खत्म हो जाता है।

इस नवयुग ने एक और बात उजागर की है। वोटों के लिए अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति बेमानी है। कांग्रेस के पिछले ६०-६५ सालों के राज में चुनाव जीतने का उन्हें यही महामंत्र लगता था। लेकिन तुष्टीकरण के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं, इसे इन चुनावों ने साबित कर दिया है। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह कि मतदाता अब बेहद जागरूक हो चुका है और घोषणाओं की बैसाखी पर चलने या कृत्रिम सांठगांठ या गठबंधन को स्वीकार करने के लिए वह कतई राजी नहीं है। चौथी उल्लेखनीय बात यह कि मतदाता अब विश्वसनीय, प्रेरणादायी, साहसी और केवल देश, देशहित की ही बात करने वाला, जनमन की भावनाओं को समझने वाला, उनसे एकत्व स्थापित करने वाला नेतृत्व चाहता है। इसके लिए नोटबंदी जैसे कष्टों को भी झेलने के लिए वह तैयार है। जातिपाति की बात कर समाज में बिखराव के बीज बोने वाला, बयानबाजी और जोड़तोड़ कर अपना उल्लू सीधा करने वाला नेतृत्व वह नकार देता है। यह नई पीढ़ी में आया सब से बड़ा बदलाव है। जिसे इसने नहीं पहचाना वे हार गए; जिसने पहचाना वे जीत गए।

अब तक परम्परागत रूप से ही चुनावी गणित किए जाते थे। किस जाति के कितने वोट हैं। दलितों के कितने हैं, मुस्लिम समुदाय के कितने हैं इसका हिसाब लगता था। झोपड़ीवाले गरीब कितने हैं और महलवाले कितने हैं। फिर बारी धर्म की आती थी। वैसे ही उम्मीदवार दिए जाते थे। चुनावी रणनीति और प्रचारतंत्र का आधार भी यही होता था। विश्लेषण भी इसी के आसपास घूमते थे। इस बार भी प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक दोनों मीडिया में इसी तरह की चर्चा की धूम थी। इसलिए वे मतदाता के मन की थाह नहीं ले पाए। उनके लगभग सारे गणित फेल हो गए। केवल एक चाणक्य का एक्जिट पोल छोड़ दिया जाए तो सब वास्तविकता से कोसों दूर थे। केवल चाणक्य के सर्वेक्षण में उ.प्र. में भाजपा को २८५ सीटें दी गई थीं। तब उसे भाजपा समर्थित सर्वेक्षण करार देकर लोगों ने उसकी खिल्ली उडाई थी। जो प्रतिकूल है, उसकी खिल्ली उड़ाना राजनीतिज्ञों का स्वभाव होता है। इसका दर्शन बार-बार इन चुनावों में दिखाई दिया। अब जरा राज्यवार गौर करते हैं।

उत्तर प्रदेश
पाठकों को याद होगा कि मैंने पिछले अंक में ‘खिलता कमल’ नाम से भाजपा के लिए अनुकूल माहौल का जिक्र किया था। भाजपा का पक्षधर होने के आरोप का खतरा मोल लेकर भी मैंने यह बात लिखी थी। जब यह लेख लिखा गया था तब सर्वत्र भाजपा के प्रतिकूल परिस्थितियां दिखाई दे रही थीं। परंतु उस समय उत्तर प्रदेश व हरियाणा में रहने के कारण जमीनी सच्चाई का मुझे अनुमान लग गया था। इसके लिए किसी महापंडित चुनावी विश्लेषक होने की जरूरत नहीं थी। जो भी उस स्थिति और मतदान के दौरान अपने आसपास का बारीकी से निरीक्षण करता तो जो मेरे निरीक्षण थे वे उसके भी होते। परंतु ४०३ में ३२५ सीटों की अभूतपूर्व सफलता मिलेगी इतना गणित तो मैं भी नहीं कर पाया। २०१४ के ४२% वोटों तक भाजपा पुन्हा पहुंची यह भी एक कीर्तिमान ही है। इतनी सफलता तो आपातकाल खत्म होने के तुरंत बाद हुए चुनावों में भी नहीं मिली थी।

भाजपा की इस ऐतिहासिक विजय के विपक्ष अब कारण खोज रहा है। हार का सेहरा बांधने के लिए कोई तैयार नहीं होता, बाहरी ‘आब्जेक्ट’ खोजना मजबूरी होती है; क्योंकि इससे अपने कार्यकर्ताओं को बिखरने या हतोत्साहित होने से रोका जा सकता है। वैसे नेताजी मुलायम सिंह की बातों को अब कोई तवज्जो नहीं देता, फिर भी उन्होंने कह ही दिया कि कांग्रेस की डूबती नैया के कारण सपा का जहाज भी डूब गया। बसपा सुप्रीमो मायावती वोटिंग मशीनों-एवीएम- से छेड़छाड़ का राग अलापती है। कांग्रेस के पास तो बयानबाजी तक के लिए कुछ भी नहीं बचा है।

सपा-कांग्रेस गठबंधन का कारण मूलतया सपा में पारिवारिक कलह है। इस कलह को नेताजी नहीं रोक पाए। कभी वे अखिलेश के साथ होने का स्वांग भरते थे तो कभी उससे अलग हटने का। बहुत नौटंकी चली उनकी। उसके पीछे उनकी दूसरी पत्नी साधना गुप्ता का भी हाथ था। वे अपने पुत्र प्रतीक के लिए सत्ता पर हावी होना चाहती थी। उनके जीहुजूरियों ने इसमें खूब हवा भी भरी। अखिलेश को इसका अंदाजा लग गया था। इसलिए उन्हें किसी न किसी साथी की तलाश थी। कांग्रेस के सिवा उनका और कौन साथी हो सकता था?

अब यह भी कहा जाता कि यदि सपा अकेली लड़ती फायदे में होती। लेकिन जिस तरह की स्थितियां बन रही थीं उनमें सपा के लिए बहुत गुंजाईश कहां बची थी? रही बात कांग्रेस की तो उसकी कोई औकात ही नहीं थी। इसलिए मजबूरी में हुआ यह गठबंधन ही बेमेल था। उसका जो हश्र हुआ वह अनपेक्षित नहीं है।

मायावती का गणित भी गड़बड़ा गया। उसे सपा में फूट का फायदा मिलने की आस थी। इसलिए सौ से अधिक मुस्लिम उम्मीदवारों को उसने टिकट दे दिया। इससे मुस्लिम वोट तो बिखर ही गए, मायावती के अपने दलित वोटों को भी भाजपा की ओर मुड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। असल में, अखिलेश, मायावती और राहुल ने भाजपा की जीत का रास्ता आसान कर दिया।

रही एवीएम मशीनों से छेड़छाड़ की बात। इसके पूर्व भी ऐसे मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे हैं और बेबुनियाद आरोप के आधार पर खारिज हो चुके हैं। एवीएम मशीन का किस तरह इस्तेमाल होता है इसकी जिन्हें जानकारी नहीं है वे ऐसे आरोपों के जंजाल में फंस सकते हैं। उ.प्र. में कोई १० लाख एवीएम मशीनों का इस्तेमाल हुआ। ये मशीनें जांच-परख के बाद ही मतदान केंद्रों में भेजी जाती हैं। मतदान के पूर्व उम्मीदवारों के उपस्थित प्रतिनिधियों के समक्ष प्रायोगिक मतदान होता है। इस बात की जांच होती है कि जिसे वोट किया गया उसके ही खाते में गया या नहीं। हर प्रतिनिधि अपनी-अपनी पार्टी का बटन दबाता है। इसके बाद कुल मतदान व किसे कितने वोट मिले इसकी पर्ची निकलती है। इस पर दस्तखत होते हैं और प्रतिनिधियों को इसकी सूचना अपनी पार्टी को देने के लिए कहा जाता है। इसके बाद मतदान आरंभ होता है। मतदान पूरा होने के बाद उसे बाकायदा सील किया जाता है। उस पर सभी प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर होते हैं। मतगणना के पूर्व यह सब उम्मीदवारों के प्रतिनिधियों को दिखाया जाता है। उनकी सम्मति के बाद ही सील काटा जाता है और मतगणना कर उसकी घोषणा की जाती है। इसलिए मायावती का यह आरोप ऊलजलूल और बिल्कुल निराधार साबित होता है। वे यह क्यों भूल जाती हैं कि आखिर वे भी तो इन्हीं एवीएम मशीनों के मतदान पर जीती थीं और राज्य की मुख्यमंत्री बनी थीं!

भाजपा की जीत के सैद्धांतिक आधार तो हैं ही, जमीनी स्तर पर उनका संगठन कौशल्य भी काबिलेतारीफ है। भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता अनिल बलुनी ने उत्तर प्रदेश में विजय के पांच सूत्र गिनाए हैं- प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का संगठन कौशल्य, स्थानीय स्तर पर मजबूत पार्टी संगठन, उत्तुंग दृष्टि तथा आकांक्षी मतदाता। इस हरेक मुद्दे पर उन्होंने विस्तार से कहा है। मोदीजी का करिश्मा, अमित शाह का संगठन कौशल इस पर बहुत लिखने की आवश्यकता नहीं है। उत्तुंग दृष्टि को स्पष्ट करना जरूरी है। समाज के अंतिम आदमी के लिए जारी कार्यक्रमों को एक उत्तुंग दृष्टि देना एवं वह संदेश आखरी आदमी तक पहुंचाना यह सब से बड़ा कार्य है, जो पार्टी ने किया। आकांक्षी मतदाताओं के बारे में भी ऐसा ही है। भाजपा का सीधा आवाहन था कि आप अपनी नई पीढ़ी का भविष्य चाहते हैं तो भाजपा को मतदान करें। यह विकास के मुद्दे पर मतदान है। इस तरह मतदाताओं की आकांक्षा को पूरा करने का उसने जिम्मा उठाया। यह अधिक भविष्यवेधी एवं दीर्घकालीन आवाहन है। जातिपाति एवं धर्म-सम्प्रदाय को वोट करने वालों के पीछे न लगते हुए भाजना ने अपना पृथक मतदाता वर्ग तैयार किया। यह इस चुनाव की सब से बड़ी उपलब्धि है।

उत्तराखंड
उ.प्र. के ही परिणाम उत्तराखंड में दुहराए गए। कुल ७० सीटों में से ६९ के चुनाव हुए। कर्णप्रयाग के बसपा उम्मीदवार की सड़क दुर्घटना में मौत के कारण वहां मतदान नहीं हुआ। इन ६९ सीटों में से ५६ अर्थात दो तिहाई से अधिक सीटें ४६.५% वोटों के साथ भाजपा ने जीत लीं और इस प्रकार पिछले चुनाव के मुकाबले उसे २६ सीटें अधिक मिलीं। दूसरे नम्बर पर महज ११ सीटों व ३३.५% वोटों के साथ कांग्रेस रही और उसे २१ सीटों का नुकसान हुआ। बसपा को ७% वोट मिले और उसका सफाया हो गया और इस तरह उसे ३ सीटों का नुकसान हुआ। इससे साफ है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला हुआ। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की राहुल गांधी से नहीं पटती। उन्हें वैसे भी पार्टी में दरकिनार कर दिया गया था। वे दोनों सीटों से हार गए। इससे पता चलता है कि किस तरह उस राज्य में भाजपा की लहर थी। ये परिणाम अपेक्षित ही थे। भाजपा वहां आपसी गुटबाजी को रोक पाने में सफल हुई।

पंजाब
पंजाब में सत्तारूढ़ अकाली-भाजपा का गठबंधन बुरी तरह पिट गया। अकालियों को मात्र १५ सीटें मिलीं। वोटों का प्रतिशत जो पिछली बार ३४.५६% था, इस बार ९.३६% घट कर २५.२% पर आ गया। इस तरह उसे ४१ सीटों का घाटा हुआ, जो उसकी करारी हार का द्योतक है। भाजपा भी अकाली दल के साथ पिट गई। उसे महज ३ सीटें मिलीं और पिछले चुनाव के मुकाबले ९ सीटों का नुकसान हुआ। आप को वहां बहुत ज्यादा उम्मीदें थीं, लेकिन वह भी २० सीटों पर सिमट गई। लेकिन उसे अकालियों के बराबरी के अर्थात लगभग २४% वोट मिले।
कांग्रेस की इस जीत का श्रेय कांग्रेस नेतृत्व को कम और क्षेत्रीय नेतृत्च पटियाला के पूर्व राजा कैप्टन अमरिंदर सिंह का अधिक है। वहां भाजपा से कांग्रेस में गए नवज्योतसिंह सिद्धू जीते जरूर, लेकिन उनकी अमरिंदर से नहीं पटती। कहते हैं उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाने का वादा किया गया था। लेकिन इस वादे को मानने के लिए अमरिंदर तैयार नहीं है। यह संघर्ष बाद में रंग दिखाएगा ही।

गोवा
गोवा में आपसी संघर्ष का खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा। गोवा में भाजपा सत्तारूढ़ थी और मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के रक्षा मंत्री बन जाने के बाद लक्ष्मीकांत पार्सेकर वहां मुख्यमंत्री बने थे। वे खुद तो जीत नहीं पाए, पार्टी को भी भारी नुकसान सहना पड़ा। अब पुनः पर्रिकर को गोवा भेजा गया है। इस बार भाजपा को ३२.५% वोट मिले, जबकि कांग्रेस को २८.४%। वोटों का प्रतिशत अधिक होने पर भी भाजपा को १३ सीटें ही मिलीं, जबकि कांग्रेस का वोट प्रतिशत कम होने के बावजूद उसे १७ सीटें मिलीं। आप का गोवा में कदम रखने का सपना धूल में मिल गया। उसे कोई सीट नहीं मिली। वोटों का प्रतिशत रहा महज ६.३।
भाजपा ने वहां अब मगोपा के तीन, गोवा फारवर्ड के तीन व दो निर्दलियों के समर्थन से ४० सदस्यों की विधान सभा में २१ का जादुई आकड़ा प्राप्त कर लिया है। लेकिन यह संमिश्र सरकार चलाना एक कसरत ही होगी।

मणिपुर
मणिपुर के परिणाम आश्चर्यजनक है। असम के बाद पूर्वोत्तर का यह राज्य मुख्य राष्ट्रधारा के साथ जुड़ने की कोशिश कर रहा है। वहां भाजपा ने सर्वाधिक ३६.३% वोट पाए, जबकि पिछले चुनाव में यह प्रतिशत महज १.३ था। यह बहुत ऊंची छलांग है, परंतु उसे सीटें मिली हैं २१। कांग्रेस का मतदान प्रतिशत ३५.१ है और उसका जनाधार ६.९% से टूटा है, फिर भी उसे २८ सीटें मिली हैं। यह काम कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे ई.इबोबी सिंह का है। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का इसमें कोई विशेष योगदान नहीं है। भाजपा ने अब वहां अन्य दलों के सहयोग से सरकार स्थापित कर ली है। नए मुख्यमंत्री हैं एन बीरेन सिंह। पिछले १५ वर्षों के बाद वहां गैरकांग्रेसी शासन कायम हुआ है, जिससे पूर्वोत्तर में नए समीकरण बनेंगे, नई योजनाएं बनेंगी, विफल नीतियां खत्म होगी। वहां सब से बड़ी समस्या नगाओं अर्थात नगालैण्ड के साथ सामंजस्य की है, जिसके चलते नगा कोहिमा से आने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग की आर्थिक नाकाबंदी कर देती है, जो महीनों चलती है और मणिपुर का जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाता है। अब वहां की जनता उम्मीदों को पूरा होने की आस लगाए बैठी है। दूसरा उल्लेखनीय पहलू यह कि सशस्त्र दलों को वहां से हटाने की मांग को लेकर पिछले १६ वर्षों से अनशन करने वाली इरोम शर्मिला अनशन छोड़ कर राजनीति में आ गई। उसे महज ९० वोट मिले। इससे स्पष्ट है कि सामाजिक आंदोलन करना अलग है और राजनीति में दांव लगाना अलग है। उनका तो अब राजनीतिक व सामाजिक अस्तित्व ही खत्म हो गया है।
इससे एक बात तो स्पष्ट है कि भाजपा एक संगठित राष्ट्रीय शक्ति व कर्मठ नेतृत्व के साथ उभरी है, जबकि कांग्रेस असंगठित एवं नेतृत्वविहीन दिखाई दे रही है। पंजाब, गोवा, मणिपुर में कांग्रेस की जो थोड़ीबहुत सफलता है, वह स्थानीय क्षत्रपों की है और उत्तराखंड में भारी पराजय भी स्थानीय क्षत्रप की है। कांग्रेस नेतृत्व का इसमें कोई योगदान दिखाई नहीं देता। केजरीवाल का राष्ट्रीय पार्टी बनने का सपना भी धूमिल पड़ता दिखाई दे रहा है। मायावती की बसपा का पिछले लोकसभा चुनाव में पूरी तरह सफाया हो गया था और विधान सभा चुनावों ने उन्हें विशेष ताकत नहीं दी है।
इस परिदृश्य में एक बड़ा बदलाव, एक नए युग का सूत्रपात भाजपा के जरिए हो रहा है। उत्तरी और पूर्वोत्तर इलाके में विजय के साथ उसकी नजर अब दक्षिणी राज्यों पर होना स्वाभाविक है। इसी वर्ष के अंत में गुजरात, नगालैण्ड, मेघालय व हिमाचल प्रदेश के विधान सभा चुनाव होने हैं। इन राज्यों के संकेत भी विजय रथ आगे बढ़ने के हैं।

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