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जड़ों की तलाश में देश

by रमेश पतंगे
in मई २०१७, राजनीति
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देश में जो परिवर्तन हो रहा है वह केवल सत्ता परिवर्तन नहीं है। एक प्रधान मंत्री गया एवं दूसरा आया, या अखिलेश गए एवं योगी आए ऐसा यह परिवर्तन नहीं है। यह परिवर्तन भारत का अपनी जड़ों की ओर लौटने का परिवर्तन है। ….अब सही अर्थों में राजनीति के स्वदेशीकरण का कालखंड प्रारंभ हुआ है।

सिनेमा देखते समय सिगरेट का एक विज्ञापन आता है। सब तरफ धुंआ। सिगरेट पीने वाला एक आदमी और आवाज आती है, ‘‘इस शहर को क्या हो गया है।’’ इस विज्ञापन की याद इसलिए आयी क्योंकि सन २०१४ में देश में जो परिवर्तन हुआ एवं अभी पांच राज्यों के चुनाव में उसकी पुनरावृत्ति हुई उसका धुंआ इतना फैला है कि तथाकथित प्रगतिवादी, अल्पसंख्यकवादी, बहुविधतावादी उन्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। उनकी मनःस्थिति, ‘यह क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ’’ ऐसी हो गई है। भाजपा के विरोध में जी-जान से मेहनत कर सैद्धांतिक भूमिका निर्माण की, उसका कुछ भी उपयोग नहीं हुआ। लोग आंख मूंद कर भाजपा को वोट दे रहे हैं। क्या हुआ इस देश को? ऐसे प्रश्न से वे दो-चार हो रहे हैं।

उनका पहला सिद्धांत था कि मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देगा। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। बसपा ने ९७ तो समाजवादी पार्टी ने भी कई मुस्लिमों को टिकट दिया। भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए मुसलमान जी-जान से प्रयत्न करेगा। परंतु उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने हमारे इन तथाकथित मानवतावादियों को जबरदस्त धक्का दिया। जिन क्षेत्रों में मुसलमान बहुसंख्यक हैं वहां से भी भाजपा के उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की। मुसलमानों ने हमारे सेकुलर पंडितों को ‘खुदा हाफिज’ कह दिया है। हमारे मन में भाजपा का डर मत पैदा करिए। हमें विशिष्ट मतपेटी में मत धकेलिए। हमें भी देश की प्रगति में सहभागी होने दीजिए। ऐसा यह मुसलमानों द्वारा मूक रह कर दिया गया संदेश है। अंग्रेजी में कहें तो यह ‘पॅराडाईज शिफ्ट’ है।

इन हमारे सेक्युलर एवं मानवतावादी पंडितों ने अत्यंत धूम-धड़ाके से यह प्रचार किया था कि नोटबंदी इन चुनावों में भाजपा को भारी पड़ेगी। नोटबंदी के कारण सामान्य व्यक्ति की अवस्था कितनी दयनीय हो गई थी इसका वर्णन हर जगह बार-बार किया। सामान्य व्यक्ति को यह सब चालाकी समझ में आ गई। उन्हें तकलीफ जरूर हुई थी परंतु नोटबंदी के निर्णय पर सामान्य जनता ने कभी भी प्रश्नचिह्न नहीं खड़ा किया। प्रधान मंत्री की मां जब नोट बदलने के लिए कतार में खड़ी दिखी तब लोगों को समझ में आ गया कि यह निर्णय हमारे भले के लिए है। बच्चे को जन्म देते समय माता को प्रसव वेदना सहन करनी पड़ती है। अत्यंत तकलीफदायक यह वेदना मां अति आनंद से सहन करती है। सामान्य जनता ने नोटबंदी की ये वेदनाएं आनंद से सहन की। वास्तव में जिन्हें भारत की समझ नहीं उन्हें इस वेदना का आनंद क्या समझेगा?

केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से, अब लोकतंत्र का क्या होगा? संविधान में बदलाव होगा क्या? क्या भारत हिंदू राष्ट्र घोषित होगा? हिंदू राष्ट्र का निर्माण होगा क्या? अलग विचार रखने वालों का क्या होगा? स्त्री-स्वातंत्र्य का क्या होगा? ऐसे एक न अनेक प्रश्न उपस्थित किए जाने लगे। भारतीय बौद्धिक जगत में हलचल मचाने वाले इन लोगों को जनता ने अब दूर कर दिया है। ‘‘अपनी ये व्यर्थ की बकवास बंद करिए, सुन सुन कर कान पक गए हैं’’ ऐसा संदेश मतदाताओं ने दिया है। स्वयं द्वारा अमान्य किए गए विचारों के लोग सत्ता में आ गए हैं यह जिन्हें सहन नहीं होता वे लोग सहिष्णुता की बातें करते हैं। ‘‘हिंदुत्व’’ को ‘‘अस्पृश्य’’ ठहराने में जिनकी जिंदगी कट गई वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं। स्त्री-मुक्ति के नाम पर जिन्होंने स्त्री को व्यापारी वस्तु बना दिया वे आज स्त्री-स्वातंत्र्य का रोना रो रहे हैं। स्वतः के स्वार्थ के अनुसार संविधान का मतलब निकालने वाले संविधान का क्या होगा इस पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं। ऐसे सब लोगों को किस विशेषण से संबोधित किया जाए यह सवाल खड़ा होता है। इसका उत्तर यही है कि उनके लिए और कोई विशेषण नहीं है, उनके सरीखे वे स्वयं ही हैं।

आज यह देश निद्रितावस्था में है परंतु निश्चित ही यह अपनी अस्मिता के साथ जागृत होगा। उसके पुनरूत्थान को कोई नहीं रोक सकता। अपने-अपने शब्दों में ये बात स्वामी विवेकानंद, योगी अरविंद, महात्मा गांधी और इतना ही नहीं डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने कही थी। उनकी पहचान, अस्मिता कौनसी है? पश्चिमी उदारमतवाद, पश्चिमी सेक्युलरिज्म, पश्चिमी मानवतावाद यह उनकी पहचान नहीं है। उनकी पहचान धर्म से होती है। उनका धर्म उन्हें बताता है कि भगवान एक ही है। उसे पहचानने के अनेक मार्ग हैं। वे सभी सत्य है एवं उनका सम्मान करना चाहिए। पश्चिमी विचार कहता है कि उन्हे टॉलरेट (सहन) करना चाहिए। प्रत्येक को अपना मत रखने का अधिकार है। यह सीख पश्चिम से लेने की कोई आवश्यकता नहीं है, यह तो हमारा जीवनमंत्र है, हमारे देश के सेक्युलर लोग हमें ‘बहुविधता’ की रक्षा करने के भाषण देते हैं, वह सामान्य व्यक्ति की समझ से परे है। उसे यह बात जल्द समझ में आती है कि यह सृष्टि परमेश्वर की लीला है। प्राणियों में, वृक्षों में, हवा में, जल में, सब जगह वह विद्यमान है।

धर्म याने न्याय एवं न्याय याने चींटी से हाथी तक सभी को जीने का अधिकार। यह स्वीकार कर, बिना किसी का द्वेष किए और सब के लिए मंगल कामना करते हुए जीवन जीना यही धर्मजीवन पद्धति है। देश के अशिक्षित व्यक्ति भी इसी पद्धति से जीवन यापन करते हैं। उन्हें सेक्युलरीजम, मानवतावाद एवं और कुछ कुछ बताना मूर्खता है। ऐसे मूर्ख हमारे देश में पंडित हो गए। शासकीय सम्मान से सम्मानित हो रहे हैं और हमें ज्ञान बांट रहे हैं। यह भारत जैसे-जैसे जाग रहा है, वैसे-वैसे अपने सिर पर लदा यह भार फेंक रहा है।

देश में जो परिवर्तन हो रहा है वह केवल सत्ता परिवर्तन नहीं है। एक प्रधान मंत्री गया एवं दूसरा आया, या अखिलेश गए एवं योगी आए ऐसा यह परिवर्तन नहीं है। यह परिवर्तन भारत का अपनी जड़ों की ओर लौटने का परिवर्तन है। यह अस्मिता परिवर्तन है, उपरोक्त वर्णित तथाकथित पंडितों ने देश की अस्मिता से खिलवाड़ कर उसके टुकड़े कर दिए और नाम दिया दलित अस्मिता, आदिवासी अस्मिता, ओबीसी अस्मिता, मुस्लिम अस्मिता इ. इ.। उन्होंने अस्मिता की राजनिति का सिद्धांत प्रस्तुत किया और वह कैसे मजबूत होगी इसके लिए प्रयत्न किया। भेदमूलक ऐसी सभी अस्मिताओं पर सामान्य जनता ने देशी अस्मिता का एक ब्रश घुमा दिया है। यह ब्रश है भारतीय अस्मिता का। हम सब भारतीय एवं भारतीय यही हमारी पहचान, सबका साथ-सबका विकास यही हमारा मंत्र एवं लक्ष्य। किसी को दूर नहीं रखना, उसी समय किसी को सर पर भी नहीं बिठाना। हम सदा समान, यह देश में सत्तांतर का अर्थ हैं।

देश में परिवर्तन हेतु तीन बातें आवश्यक हैं। १) परिवर्तन का मूलगामी विचार, २) इस विचार को जीने वाले कार्यकर्ताओं का देशव्यापी संगठन और ३) इन दोनों का प्रतिनिधित्व करें ऐसा चेहरा। ये तीनों ही बातें आज देश में विद्यमान हैं। ये एकाएक पैदा नहीं हुई हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गत ९० वर्षों की तपस्या एवं कार्यकर्ताओं का एक मजबूत देशव्यापी संगठन और उसके माध्यम से देश के पुनरूत्थान का विचार, तद्नुरूप जीवन जीने वाले कार्यकर्ता आज समाज में प्रखरता से दिखाई देते हैं। प्रत्येक कालखंड में इस प्रकार के आचार, विचार एवं जीवन जीने वाले चेहरे देश ने देखे। आज श्री नरेन्द्र मोदी, अमित शाह एवं उनके सहयोगी इनका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। जनता को वे अपने बीच के लगते हैं। जब कांग्रेस सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय थी उस समय भी महात्मा गांधी, सरदार पटेल, पं. नेहरू, राजगोपालाचारी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इ. महापुरूष समाज को अपने लगते थे। कांग्रेस ने राष्ट्रीय विरासत छोड़ दी एवं उसके फल अब वह चख रही है। संघ ने राष्ट्रीय विरासत प्राणपण से संजोई, उनके साथ समझौता नहीं किया। तकलीफें सहन कीं। इसमें से निखरे हुए संघ विचार प्रणीत कार्यकर्ता आज देश एवं समाज के सामने खड़े हैं।

जातिवादी, धर्मवादी, आस्मितावादी इनके मतों का गणित जमाने वालों को यह परिवर्तन अनाकलनीय है। परिवर्तन की सुनामी को ये रोक नहीं सकते। यह बात उनकी क्षमता के बाहर है। कुछ बातों का आकलन उन्हें होने लगा है यह एक संतोषजनक बात हो सकती है। पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिदंबरम कहते हैं, ‘‘नरेन्द्र मोदी सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति हैं, उन्हें अखिल भारतीय मान्यता है।’’ उमर अब्दुल्ला कहते हैं, ‘‘यह तो सुनामी है, तालाब का बुलबुला नहीं। २०१९ के चुनावों को भूल कर २०२४ की तैयारी करिए।’’ रामचन्द्र गुहा कहते हैं, ‘‘नेहरू एवं गांधी के बाद श्री मोदी तीसरे सफल प्रधान मंत्री हैं। उनका करिश्मा एवं लोक स्वीकृति जाति और भाषा की सीमा के पार है।’’ रामचंद्र गुहा का यह मत, उनके पूर्व इतिहास को देखते हुए, ईमानदारी से दिया हुआ है ऐसा हम समझ सकते हैं।

यह बदले हुए मत एवं विचार सुन कर एवं पढ़ कर बहुत खुश होने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि देश के तथाकथित बुद्धिजीवी हवा के साथ बहने एवं बातें बदलने में माहिर होते हैं। सत्ता के साथ रहना यह उनका स्वभाव है क्योंकि सत्ता के सारे फायदे उन्हें चाहिए होते हैं। इसलिए वे जिनके हाथ में सत्ता होती है, उनका गुणगान करते हैं। ऐसे लोगों से सत्ताधारियों को बहुत सावधान रहना चाहिए। उनका द्वेष न करें परंतु उनको सम्मानित भी न करें।

हमें अपनी अस्मिता के साथ खड़े होना है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कालानुरूप योग्य ऐसी भाषा एवं योग्य प्रतीकों के माध्यम से अपनी अस्मिता का प्रकटीकरण करना है। पुराना सब अच्छा एवं नया सब बेकार ऐसी भूमिका होने से काम नहीं चलेगा। नई बातें अनुभव की कसौटी पर कस कर हमें लेनी हैं। इसका श्रेष्ठ उदाहरण याने हमारा संविधान। विश्व के किसी भी संविधान की वह नकल नही है। देश की परिस्थिति के अनुकूल जो बातें हैं वे अन्य देशों के संविधानों से ली गई हैं।
इसके कारण देश में हम राजनीतिक स्थिरता का अनुभव ले रहे हैं। यही आदर्श सामने रख कर हमें आगे बढ़ना है। एक वाक्य में यदि कहना हो तो अब सही अर्थों में राजनीति के स्वदेशीकरण का कालखंड प्रारंभ हुआ है।

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