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नवचैतन्य का आगाज

by गंगाधर ढोबले
in जून २०१७, राजनीति
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मोदी सरकार के तीन वर्ष भारत के नवनिर्माण की नींव रखने का आगाज देते हैं और यह कोई छोटा काम नहीं है। नवनिर्माण की राह तभी खुलती है जब जनता में आधी सदी में पनपी निराशा की भावना दूर हो और उनमें नवचैतन्य का संचार हो। मोदी सरकार के कार्यों से यह आशा पल्लवित हुई है।

विकास शब्द बहुत लचीला है। उसके कई मायने हैं। कई अर्थों में वह प्रयुक्त होता है। विकास अविरत चलने वाली प्रक्रिया है। इसका उपयोग ज्यादातर भौतिक सुविधाओं को लेकर होता है। लेकिन मात्र भौतिक सुविधाएं ही सबकुछ नहीं होता। आध्यात्मिकता भी मानवी जीवन का सबसे अहम पहलू हैं। जहां भौतिक सुखसुविधाएं आनंद देना रोक देती है वहीं से आगे आध्यात्मिक विकास का मार्ग चल निकलता है। हमारे भारतीय चिंतन में लगभग यही मोटे तौर पर माना जाता है।

इस चिंतन में राष्ट्र महत्वपूर्ण पहलू है। राष्ट्र के बिना विकास की परिकल्पना करना संभव नहीं है। अतः राष्ट्र का विकास होना याने वहां की कौम का विकास होना। राष्ट्र कौम के अर्थ में भी आता है। भारतीय चिंतन में व्यक्ति को अपनी कौम तक ही सीमित नहीं रखा गया है। उसमें विश्वबंधुत्व और इस चराचर से स्नेहभाव और आपस में संतुलन भी सम्मिलित है।

राष्ट्र के संदर्भ में आजकल केवल अंग्रेजी शब्द ‘डेवपलमेंट’ बहुत प्रचलन में है। इसमें अंग्रेजी शब्द ‘नेशन’ जुड़ गया कि वह ‘नेशनल डेवलपमेंट’ याने राष्ट्रविकास माना जाता है। मैं विकास शब्द को ‘डेवलपमेंट’ और ‘बिल्डिंग’ अर्थात निर्माण इन दोनों अर्थ में लेता हूं। मेरी सोच है कि डेवलपमेंट के बाद ही नवनिर्माण का अगला चरण शुरू होता है। बिना भौतिक विकास के राष्ट्र का नवनिर्माण नहीं हो सकता। अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस ‘नए भारत’ की चर्चा करते हैं वह राष्ट्र के नवनिर्माण के संदर्भ में है। इसका दूसरा अर्थ है कि हमें अपने भौतिक विकास को इस हद तक पहुंचाना है कि हम सम्पन्न, सामर्थ्यवान राष्ट्र निर्माण कर सके ताकि हम पर अनावश्यक रूप से कोई आंख न उठा सके और न हम विश्वबंधुत्व की भावना को बलवती करते हुए पुनः विश्वगुरु के स्थान पर आसीन हो।

यह हमारा लक्ष्य है। हर भारतीय का लक्ष्य है और होना भी चाहिए। यह प्रदीर्घ रास्ता है। रातभर में यह नहीं होने वाला, न आज जो स्थिति है वह भी अचानक नहीं आई। लेकिन हमारी सुस्ती टूटनी चाहिए। यह टूटते ही विकास की राह अपने-आप आगे बढ़ती रहेगी। राष्ट्र के निवनिर्माण की नींव सामाजिक समरसता, आर्थिक विकास और राजनीतिक स्थैर्य पर निर्भर करती है। इसमें जनसहयोग बड़े पैमाने पर जरूरी है। मोदी सरकार की जो विभिन्न योजनाएं हैं, उनमें जनता की भागीदारी व सहयोग पर ही अधिक बल दिया गया है। इन योजनाओं के यहां नाम गिनाने की आवश्यकता नहीं है, परंतु समाज के हर वर्ग और अंतिम वर्ग को विकास की बहती धारा के साथ जोड़ना इनका लक्ष्य है। यह एक दूरदर्शिता है, जिसे अब तक नजरअंदाज किया जाता रहा। मेरी राय में मोदी सरकार के ‘सबका साथ, सबका विकास’ इस नारे की गहराई में यही भाव है। इसमें ‘सबको समान अवसर और सबको समान न्याय’ का तत्व भी शामिल है।

विकास को सुशासन का संदर्भ है। सुशासन के बिना विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। यह बहुत बड़ी चुनौती है। अंग्रेजों के डेढ़ सौ साल के शासन और बाद में कांग्रेस की आधी सदी की सत्ता में आम आदमी दब्बूपन का शिकार हुआ है। कुछ नहीं हो सकता है, सरकार ऐसी ही चलती है यह भावना पनप चुकी है। नौकरशाही सामंती बन गई है। उन्हें हुक्म चलाना और सरकार की हां में हां मिलाने की आदत पड़ गई है। नई सोच मंद पड़ गई है। जो कुछ अब तक हो रहा था, उससे आगे कुछ नहीं हो सकता इस सोच से आंखों पर पट्टी पड़ गई है। यह एक स्वतंत्र और अनुसंधान का विषय है, लेकिन इसका जिक्र इसलिए किया ताकि लोग समझें कि हम कहां आ चुके हैं और मोदी सरकार इस सोच और दिशा को किस तरह बदलने में जुटी हुई है। सरकार किसी की भी हो, लेकिन वह अपनी जमीन, अपने चिंतन, अपने लोगों से जुड़ी हो तो नजरिया बदलने में देर नहीं लगती। मोदी सरकार में अब तक तो यही दिखाई देता रहा है। सबसे बड़ी बात यह कि नैराश्य का माहौल टूट चुका है और आशाएं बलवती हो गई हैं। तीन साल के भीतर उम्मीदों की यह किरण फूट पड़ना भी कोई छोटी बात नहीं है।

भौतिक विकास के लिए कुछ मूलभूत तत्वों का विद्वानों ने जिक्र किया है, जिनमें जनहित की योजनाओं तथा जनता की जरूरतों पर ध्यान देना, जनसहयोग अधिकतम प्राप्त करना, सभी को समान न्याय एवं अवसर उपलब्ध कराना, समाज के कमजोर वर्गों को सहायता दिलाना, पर्यावरण की रक्षा करते हुए सम्मिलित विकास पर ध्यान देना और सरकारी कामों में पारदर्शिता लाना। कुल मिलाकर व्यक्ति और समाज दोनों की आकांक्षाओं की प्रतिपूर्ति करना सरकार का काम है। विकास व सुशासन का यह मोटा खाका है। इसके और कई उपविभाग किए जा सकते हैं जैसे औद्योगिक विकास, सामाजिक विकास, सांस्कृतिक विकास, कृषि विकास, ऊर्जा विकास, परिवहन विकास इत्यादि अनेक। हर केंद्रीय मंत्रालय और उनके कार्यों और उनके विभागों व उपविभागों के साथ विकास शब्द जोड़ा जा सकता है।

इस मोटी रूपरेखा का जरा पिछली सरकारों के कार्यों से मेल करें तो मोदी सरकार की दिशा का अंदाजा लग सकता है। हर मंत्रालय ने जिस तत्परता से पुरानी व्यवस्था की समीक्षा की, जहां जरूरी था वहां संशोधन किया, अनावश्यक योजनाएं खत्म कर दीं, नई शुरू कर दीं वैसा या उतनी तत्परता भारतीय जनता ने कभी नहीं देखी। मोदीजी और भाजपा को जनता के भारी समर्थन का यह राज है। यहां राजनीति को जरा छोड़ दें, तो जनता के मन ने इस तरह क्यों करवट ली इसका राज जानना बहुत कठिन नहीं है। लोगों ने सरकार की मंशा पर कभी सवाल नहीं उठाए। विपक्ष का जो भी हल्ला है वह ज्यादातर योजनाओं के अमल को लेकर है। चूंकि यह विषयांतर हो रहा है, इसलिए इसे यहीं छोड़ देते हैं। लिहाजा, विकास की पहली सीढ़ी यही है कि लोगों को लगे कि जो सरकार है वह मेरी सरकार है, मेरा शासन है, जनता का शासन है, किसी एक दल या गुट तक सीमित नहीं है। मोदी सरकार के बारे में भी कुछ ऐसा दिखाई दे रहा है, एक नया भारतीय मन विकसित हो रहा है। यह जनमन ही भारत के नवनिर्माण का केंद्रबिंदु है।

पिछले तीन वर्षों में सरकार का स्वरूप बदला है। दिल्ली के पंचसितारा होटल पहले विदेशी एजेंटों से भरे रहते थे। लेनदेन की बातें चलती थीं। वह दृश्य अब बदल चुका है, यह दिल्ली की घटनाओं को करीब से देखने वाले लोग जानते हैं। दलाली अब बिदा हो चुकी लगती है- सरकारों के जरिए सीधे बातचीत हो रही है। इसके नतीजे भी सामने आ रहे हैं। संस्थागत व्यवस्थाएं बदल गई हैं। योजना आयोग की जगह नीति आयोग आया है, राष्ट्रीय विकास परिषद जैसी व्यवस्था खत्म कर दी गई है, जो महज बैठकें करने के अलावा कुछ नहीं करती थी। अधिकारों का अधिक विकेंद्रिकरण हो रहा है। उसके साथ कर्तव्यों पर भी कड़ाई से नजर रखी जा रही है। मंत्रालय, विभाग लगातार समीक्षाएं करते हैं और जवाबदेही तय होती है। ये सारी बातें पहले कम होती थीं या जो होती थीं उनकी जनता को जानकारी तक नहीं होती थी। जनता की ऐसी बातों पर पैनी नजर होती है और जनता उसका उचित समय पर जवाब भी देती है। हाल में हुए चुनाव और उसमें भाजपा की भारी विजय को इसी सकारात्मक रूप में देखना चाहिए।

विकास और नवनिर्माण की राह में सब से बड़ा रोड़ा देश में व्यापक पैमाने पर फैला भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार एक आदत में शुमार हो गया है। भारत जैसे विशाल देश में निचले तबके तक फैले इस विष को निकाल फेंकना बहुत आसान काम नहीं है। सरकारी कामों के अब तक के अनुभव से लोग मानते हैं कि कुछ लेनदेन तो करना ही पड़ेगा। यह सुनने, कहने और करने में भी हमें संकोच नहीं होता। ईमानदार या निर्धन आदमी की कोई सुनवाई नहीं होती। उसके पास सुनवाई करवाने के साधन भी नहीं होते। यह इतना विशाल विषय है कि इससे किस तरह निपटा जाए यह एक बड़ी समस्या है। लेकिन मोदी सरकार ने डिजीटलाइजेशन को गति प्रदान कर इसमें कुछ मात्रा में राहत दिलाई है। बहुत सारी बातें ऑनलाइन हो रही हैं। बहुत सारे दस्तावेज इंटरनेट पर आसानी से प्राप्त किया जा सकते हैं।

अदालतों में बरसों से पड़े मुकदमों ने न्यायपालिका से अधिक आम आदमी को हैरान कर दिया है। लोग थोड़ा बहुत अन्याय और नुकसान सह लेते हैं लेकिन अदालतों में जाने से कतराते हैं। हमारी न्यायव्यवस्था इतनी पुरानी पड़ चुकी है कि मुकदमे लम्बे खिंचे चले जाते हैं। अंग्रेजों ने अपने राज के लिए न्यायव्यवस्था केंद्रित कर दी थी और ग्राम स्तर पर न्याय की हमारी पुरानी व्यवस्था तोड़ दी थी। केवल न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने, उन्हें छुट्टियों के दौरान काम की अपील करने से कुछ नहीं होने वाला। अदालतें अतिरिक्त काम भी करेंगी, लेकिन उन्हीं घिसे-पीटे कानूनों व नियमों के तहत। ब्रिटिश जमाने में सरकारी तंत्र को सुरक्षा देना अलग बात थी, वही आज भी चल रहा है। उन्हीं नियमों कानूनों से सरकारी तंत्र आज भी अनावश्यक सुरक्षा पा रहा है। इसके अलावा न्याय शीघ्रता से मिलना चाहिए। ऐसी स्थिति न आए कि लोग परेशान होकर न्याय मांगना ही छोड़ दें और व्यवस्था से कटते चले जाए। यह भीषण स्थिति होगी। समय रहते इस पर बहुत गहराई से और त्वरित सोचने की जरूरत है, अन्यथा सारा विकास धरा का धरा रह जाएगा।

कुल मिलाकर मोदी सरकार के तीन वर्ष भारत के नवनिर्माण की नींव रखने का आगाज करते हैं और मेरी राय में यह कोई छोटा काम नहीं है। नवनिर्माण की राह तभी खुलती है जब जनता में पिछली आधी सदी में पनपी निराशा की भावना हटे और उनमें नवचैतन्य का संचार हो। मोदी सरकार के कार्यों से यह आशा पल्लवित हुई है।

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