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मेरी मां

मेरी मां

by सुरेश हावरे
in महिला, मार्च २०१५
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अ ब भी मुझे मेरी मां की याद आती है तो मेरी आखों के सामनेउसकी अपार कष्ट करनेवाली प्रतिमा घूमने लगती है। मेरी मां लीलाबाई। जब से समझने लायक हुआ हूं तब से उसे मेहनत करते ही देख रहा हूं। इसलिये ही शायद उसका वही रूप मेरी आंखों के सामने है। घर का काम, खेत का काम, आने-जानेवाले मेहमान, पढाई के लिये हमारे घर पर रहनेवाले २-३ रिश्तेदार, गाय -बछडे, भैंस, बैल और बकरियां; कुल मिलाकर ५० लोगों का परिवार वह अकेले संभालती थी। घर के किसी भी काम के लिये कोई नौकरानी नहीं थी। सारा काम वह स्वयं करती थी। पानी के लिये नल नहीं थे। सवेरे-सवेरे उसका पहला काम होता था इतने पूरे परिवार के लिये कूंए से पानी निकालना। उसके बाद आंगन लीपकर रांगोली डालना, गाय और अन्य जानवरों को पानी पिलाना, तबेले साफ करना तथा जानवरों की देखभाल करना। हम किसान परिवार से थे। अत: हमारा मूल व्यवसाय खेती का था परंतु उसके साथ ही मां ने दूध का व्यवसाय भी शुरू किया। विदर्भ के पथ्रोट जैसे छोटे से गांव में रोज २०-२५ घरों में दूध पहुंचाना, बचे हुए दूध का दही और छाछ बनाकर बेचना और आर्थिक तंगी से गुजर रहे परिवार को थोडी मदद देने का प्रयत्न करना यह उसका नित्यक्रम था। इन सभी के बीच घर के कामों से किसी भी तरह की छूट नहीं थी। सुबह, दोपहर, शाम केवल मेहनत ही मेहनत।
मेरे पिता दादा साहेब हावरे। उनका भी जीवन इसी तरह मेहनत करते ही बीता। वे स्वयं खेतों में काम करते थे और हमें भी सिखाते थे। हम भाईयों को हमारी क्षमताओं अनुसार नही बल्की आवश्यकता के अनुरूप कार्य करने होते थे। अत: मेहनत और कष्टों का अभ्यास घर पर ही हो गया था। इस मेहनत की तुलना में पढाई थोडी आरामदेह लगती थी। अत: हम सभी भाइयों ने बहुत पढाई की। इन कष्टों को मात कर हम सभी भाई आगे बढें, शायद यही हमारे माता-पिता की भावना रही होगी। शायद यहीं से हमारे घर में शिक्षा का महत्व भी बढ गया।
पिता पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कार थे तथा वे सक्रीय कार्यकर्ता भी थे। वह समय ऐसा था कि गांव में जो भी संघ का कार्यकर्ता था उसपर परिवार और संस्था दोनों को बढाने की जिम्मेदारी थी। अत: पिता ही संघ और जनसंघ का काम करते थे। हमारा गांव बहुत छोटा सा था। अधिकतर परिवार बहुजन समाज के थे। हमारे माता-पिता ने वहां भी संघरूपी पौधे को संजोया। उनका विश्वास था कि संघ संस्कारों का हम पर भी उतना ही अच्छा परिणाम होगा। हमारे पिता समस्याओं के बारे में अत्यधिक सोचते रहनेवालों में से नहीं थे। सामने दिखनेवाली समस्या से वे सीधे भिड जाते थे। उन्होंने समाज के वंचित-उपेक्षित वर्ग के विद्यार्थियों के लिये गांव में ही छात्रावास शुरु किया। उसमें ४० विद्यार्थी थे। उनके भी दोनों समय के भोजन की व्यवस्था का जिम्मा हमारी मां पर आ गया। वह भी बिना किसी शिकायत के इस काम में सक्रीय हो गयी। हमें यह सब देखकर बहुत आश्चर्य होता था। हम सोचते थे कौन हैं ये ४० बच्चे? हमारा उनसे क्या संबंध? हमारी मां उनके लिये क्यों कष्ट कर ही है? इन सवालों के जवाब हमें कभी भी हमारे माता-पिता से नहीं मिले। क्यों कि उन्हें ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने में कोई रुची नहीं थी। पिता ने तो सामाजिक काम का बीडा ही उठा रखा था और मां भी उनकी सहधर्मिणी के रूप में उसमें समरस हो गयी। अत: प्रश्नों के उत्तर भले ही न मिले हों परंतु सामाजिकता के संस्कार अपने आप मिल गये।
एक बार बारिश के मौसम में हमारे घर की दीवार पूरी तरह से ढह गयी। हमारा घर मिट्टी की दीवारे और कवेलू के छप्पर से बना था। बारिश के कारण घर पूरा खराब हो चुका था। उसी समय पिताजी द्वारा शुरू किये गये विद्यालय बनाने काम जोरशोर से शुरू था। वो भी सीमेंट कांक्रीट से बना हुआ। पिताजी विद्यालय निर्माण कराने में मग्न थे। हमारा घर वैसा ही रहा। सालभर तक उसे ठीक नहीं किया गया। यह विरोधाभास हम सभी को दिखाई देता था परंतु हम कुछ कह नहीं सकते थे। हमारी मां ने भी पिताजी को इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। वह पिताजी के कामों व सार्वजनिक उद्देश्य से पूर्णत: एकरूप हो चुकी थी।
पिताजी ने सन १९४८ में संघ पर लगी पाबंदी के समय कारावास हुआ था। उसके बाद आपतकाल के दौरान भी १८ महिनें तक कारावास में थे। यह समय हम भाईयों के संस्मरण का काला हिस्सा था। हम सभी पढाई कर रहे थे। मैं नागपुर के इंजिनियरिंग कालेज में था। आजकल किसी बालवाडी में जानेवाले बच्चे का खर्च भी उस समय की इंजिनियरिंग के खर्चेसे अधिक होगा। परंतु उस समय घर की आर्थिक परिस्थिति कितनी कमजोर थी इसका अंदाजा उस समय हमें खर्चे के लिये मिलनेवाले पैसों से लगाया जा सकता है। किसान को हर महीने तनख्वाह नहीं मिलती। जब फसल होती है और वह फसल हात में आती है, तभी पैसा मिलता है। साल में एक या दो बार ही हमें पैसे मिलने की उम्मीद होती थी। आपातकाल के दौरान जब पिताजी जेल में थे तो यह उम्मीद भी खतम हो चुकी थी। थोडी-थोडी स्कालरशिप मिलती थी, उसी पर ही दिन गुजारने पडते थे। जाने किस तरह १८ महीनों के इस काल को मेरी मां ने गुजारा होगा। उसने इस बारे में कबी बात भी नहीं की। हमने इस समय में अनुभव किया कि पास के लोग भी किस तरह अचानक दूर हो जाते हैं।
सन १९९८ में पिताजी की दुर्घटना में मृत्यु हो गयी और मां बिलकुल अकेली हो गयी। जब मेरे छोटे भाई सतीश की मृत्यु हुई तब मां बहुत विह्वल हो उठी थी। मां धार्मिक प्रवृत्ति की थी। उसे साधूसंतों का सहवास प्राप्त हुआ था। अमरावती के अच्युत महाराज में उसकी गहरी आस्था थी। उसने चार धामों के साथ ही अनेक धार्मिक यात्राएं की थीं। चार साल पूर्व उसे हृदयविकार हुआ था, परंतु वह स्वस्थ हो गयी। उसे बाद में ब्रह्मकुमारी के सत्संगों में जाना अच्छा लगने लगा। उनकी माउंट आबू से रोज मुरली प्रसारित होती है। मुरली अर्थात वह ३-४ पन्नों का बौद्धिक प्रवचन होता है। ई-मेल के द्वारा वह देशभर में रोज शाम ७ बजे प्रसारित किया जाता है। उसके लिये उसने आयपैड और इंटरनेट सीखा। ८१वें वर्ष में वह वेबसाइट पर प्रवचन सुनना, ई-मेल करना, इंटरनेट का प्रयोग करना इत्यादि काम वह प्रवीणता से करती थी। उसकी इस खूबी का बखान हम सभी अत्यंत हर्षपूर्वक लोगों के सामने करते थे। जिस दिन ‘मुरली’ नहीं आती थी, उस दिन वह दीदी को मेल करती थी, बाद में फोन करती और ‘मुरली’ पाकर ही दम लेती।
मां की जन्म तारीख हमें पता नहीं थी। उसके भांजे राजू शेंडे ने मां के विद्यालय से उसकी जन्म तारीख पता लगायी। हमने १९ दिसंबर को पहली बार मां का जन्मदिन उसके पोते-पोतियों के साथ मनाया। उस समय वह अचानक बोल गयी कि ‘यह मेरा पहला और अंतिम जन्मदिन है।’
एक महीने पूर्व ही मेरे छोटे बेटे अमर का विवाह हुआ। तब मां बहुत प्रसन्न थी। वह सारे रिश्तेदारों से मिली। उसकी तबियत बिलकुल ठीक थी। वह रोज सुबह ४ बजे उठकर नियमित रूप से योगासन, प्रणायाम, ध्यान-धारणा करती थी। उस दिन भी उसने अपनी नियमित दिनचर्या की परंतु समय आ चुका था। अचानक आये तीव्र हृदय विकार ने उसे हमसे हमेश के लिये दूर कर दिया। वह हमेशा कहती थी ‘मुझे ज्यादा तकलीफ न हो और मेरे कारण अन्य लोगों को भी न हो।’ उसकी मृत्यु वैसे ही हुई। ऐसा लगा मानो यह इच्छामृत्यु हो। ‘मां’! यह भावना ही ऐसी है जो हमसे कभी अलग नहीं हो सकती। परंतु मां के जाने के बाद जीवन में जो खालीपन आता है उसे अनुभव करना कठिन है। मां से जो रिश्ता होता है वह अन्य सभी रिश्तों से अलग होता है। एक मां अपने बच्चों को बिनाबोले क्या कहती है इस संबंध में हाल ही में एक कविता मैंने पढी। ये हम सभी के लिये अनमोल हैं।
मां अपने बच्चे से कहती है-
जब मैं नहीं रहूंगी,
तेरे आंसू झरते रहेंगे
पर मुझे वह नहीं दिखेंगे
फिर तू अभी मेरे लिये क्यों नहीं रो लेता?॥
तू मेरे लिये कुछ फूल भेजेगा
पर वो मैं देख नहीं सकूंगी
फिर तू अभी मेरे लिये कुछ फूल क्यों नहीं भेज देता?॥
तू मेरी बहुत प्रशंसा करेगा
पर मुझे वह सुनाई नहीं देगी
फिर तू अभी कुछ प्रशंसा क्यों नहीं कर लेता?॥
तू मेरी सारी गलतियां माफ कर देगा
पर मुझे कुछ नहीं समझेगा
फिर तू अभी ऐसा क्यों नहीं कर देता?॥
तू मुझे बहुत याद करेगा
पर मुझे उसका अनुभव नहीं होगा
फिर तू मुझे अभी याद क्यों नहीं कर लेता?॥
तेरे मन में ख्याल आयेगा कि,
तुने मेरे साथ ज्यादा समय बिताना चाहिए था,
फिर तू आज ही मेरे साथ कुछ समय क्यों नहीं बिता लेता?
जिनकी मां है उन्हें यह बताना चाहूंगा कि उसकी भुक बहुत कम होती है। आप उन्ही के हो यह केवल एहसास उन्हे है। थोडा सा ही सही उन्हें समय दें, आपको बहुत आनंद मिलेगा।
मो. : ०९८२०१८२९३०, ा
Tags: empowering womenhindi vivekhindi vivek magazineinspirationwomanwomen in business

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