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राधिका के मन का मीत

राधिका के मन का मीत

by टेकचंद सोनावने
in महिला, मार्च २०१५
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प्रतिभा किसी बंधन में नहीं बंधती। मन की कल्पनाओंको कैनवास पर मूर्त रूप देने वाली राधिका चांद की जीवन मानो इसीकी याद दिलाता है। ‘डाउन सिंड्रोम’ के कारण राधिका अपनी भावनाएं अपने बर्तावों या बोलने में सहजता से व्यक्त नहीं कर सकतीं। लेकिन, उनकी प्रतिभा की शक्ति प्रचंड है। शारीरिक सीमाओं पर विजय पाकर स्वयं को कार्यरत रखने का उनका उत्साह चकित करने वाला है। ‘डाउन सिंड्रोन’ के साथ पैदा हुए उनके जैसे बच्चों की वे अध्यापिका हैं। स्वदेश में ही नहीं विेदेशों में भी उनके चित्रों की भारी मांग है। इसी बल पर उन्होंने कार ली है और उसे स्वयं चलाने का माद्दा भी रखती हैं। चित्रकार के रूप में अपना करिअर करते हुए वे ‘डाउन सिंड्रोम’ से पीड़ित बच्चों के लिए सामाजिक कार्य भी करती हैं।
उनकी अपनी दुनिया है। कल्पना को मूर्त रूप देने वाली। विविध बिंदुओं, रेखाओं, सर्कल और विभिन्न आकारों के जरिए राधिका रंगबिरंगा का जीवन कैनवास पर उतरता गया और इसीने उन्हें आत्मनिर्भर बना दिया। अपने आसपास के किसी पर भी अपने ‘डाउन सिंड्रोम’ का बोझ न डालते हुए राधिका ने मुक्त रूप से मन के रंग कैनवास पर उतारते गईं और अनेकों की प्रेरणा बन गईं।
पैदाईशी ‘डाउन सिंड्रोम’ के साथ पैदा हुई राधिका चांद पिछले २१ वर्षों से दिल्ली की वसंत वैली नामक विशेष बच्चों की स्कूल में अध्यापिका हैं। राधिका रमेश चांद की सब से छोटी बेटी हैं। उनकी दोनों ंबहनें स्वस्थ व विदेशों में रहती हैं। राधिका जब कुछ माह की थीं तब उन्हें ‘डाउन सिंड्रोम’ होने का निदान हुआ। डॉक्टरों की सलाह के अनुसार माता-पिता ने उनकी अच्छी परवरिश की। डॉक्टरों का कहना था कि राधिका ४० साल से अधिक जी नहीं पाएगी, लेकिन वह अभी ४२ वर्ष की हैं।
राधिका रंगों की दुनियों में संयोगवश आईं। जब वह अठराह साल की थीं तब पिता के साथ आस्ट्रेलिया गई थीं। राधिका को व्यक्त होने के लिए शब्दों की मर्यादा थी। शब्दों के अर्थ होते हैं और उसे खुद समझने की क्षमता उसमें अभी विकसित नहीं हुई थी। लेकिन उसके मन में बसे चित्रकार ने वहां अपने लिए कैनवास ढूंढा। वह रंगों में डूब गईं। उन्हें स्वयं से संवाद करने का, व्यक्त होने का माध्यम प्राप्त हुआ। उसके चित्र देखकर उसके परिवार के लोग खुश हुए। लेकिन वे नहीं चाहते थे कि राधिका की विकलांगता के प्रति सहानुभूति के रूप में कोई उसके चित्रों की प्रशंसा न करें। उसके चित्र कला पारखियों को दिखाए गए। उन्होंने माना कि यह किसी कलाकार द्वारा बनाई गई असाधारण कृतियां हैं। उसी समय राधिका को उनके मन का ‘राजहंस’ मिल गया।
इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। दिल्ली, लाहौर, बंगलुरु, चेन्नई, सिडनी, ऑक्सफर्ड समेत दस स्थानों पर उनकी चित्र प्रदर्शनियां हो चुकी हैं। देश-विदेश के रसिकों ने उन्हें मनःपूर्वक सराहा है। स्वच्छ मन की राधिका को सफेद रंग बहुत पसंद है। गुलाबी, हरा व काला रंग भी उन्हें पसंद है। राधिका के रंग कभी कैनवास पर, कभी टाइल्स पर, कभी डिश या बशी पर उतरते हैं। राधिका के बारे में यह मुलायम वक्तव्य नहीं किया जा सकता कि ‘चित्र बनाना एक साधना है।’ उनके लिए चित्र बनाना एक महफिल है। इस महफिल में वे अकेली ही होती हैं। रात में भोजन होने पर कमरे में फैले प्रकाश में उनकी यह महफिल रंग जमाती है। रंग, रेखाएं, अमूर्त आकारों, बिंदुओं की महफिल तब सजती है। दो-तीन लगातार मूड व रंगों की संगत बनी कि चित्र बनता है। जिन्हें कला की भाषा समझती है, वही राधिका के चित्र का ‘अर्थ’ जान सकता है। इन चित्रों ने राधिका का जीना समृद्ध किया है, उन्हें आत्मनिर्भर बनाया है। चित्रों की बिक्री से प्राप्त आय से राधिका ने ‘रेवा’ कार खरीदी है। वे स्वयं कार चलाती हैं। रास्ते के सारे नियमों का बाकायदा पालन करती हैं।
राधिका कहती हैं, ‘रास्ते पर थूंकने वालों, नियमों का पालन न करने वालों, प्रदूषण फैलाने वालों के प्रति मुझे गुस्सा आता है।’ उनके बोलने अब कहीं भी ‘डाउन सिंड्रोम’ होने का बहुत अनुभव नहीं होता। बेहतर अंग्रेजी के कारण बोलते समय वे कहीं अटकती नहीं हैं। अपने चित्रों की यात्रा सच्चे रूप में रखने वाली राधिका ग्लैमर पसंद नहीं करतीं। सोमवार से शुक्रवार वे कर्मचारी के रूप में दिन बिताती है। वे कहती हैं, ‘सुबह करीब ८ बजे मेरा दिन शुरू होता है। नौ तक स्कूल पहुंचती हूं। वहां तीन कक्षाओं के ७५ छात्रों को पढ़ाने की मेरी जिम्मेदारी होती है। दोपहर एक बजे तक स्कूल में होती हूं। लड़के बहुत तंग करते हैं। लड़कियां मात्र स्नेहिल होती हैं। वे जल्दी सीखती हैं। लेकिन अब मैं ऊब गई हूं। इसलिए नौकरी छोड़ने की सोच रही हूं। अपनी ‘रेवा’ में घूमना मुझे अच्छा लगता है।’ बोलते बोलते वे अपने चित्रों का सफर भी करा देती हैं।
१९९७ में राधिका यामागेटा फेलोशिप पर वाशिंगटन डीसी में हुई एक कार्यशाला में शामिल हुई थीं। अब सैकड़ों चित्रों की बिक्री से मिली राशि वे उनके जैसे ‘विशेष’ बच्चों के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं को दे चुकी हैं। मुंबई में हुई एक प्रदर्शनी में राधिका का एक चित्र १ लाख ३० हजार रु. में बिका। यह राशि राधिका ने विशेष बच्चों के लिए काम करने वाली स्कूल को प्रदान की। राधिका को एनसीपीईडीपी- शेल हेलन केलर पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। मुस्कान, लीविंग स्किल, एक्शन फॉर ऑटिज्म, नेशनल सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ एंप्लायमेंट फॉर डिसेब्ल्ड पीपुल जैसी संस्थाओं से राधिका जुड़ी हैं।
‘डाउन सिंड्रोम’ तीन तरह का होता है- कम, मध्यम व तीव्र। राधिका मध्यम व तीव्र के बीच में हैं। अन्यों के मुकाबले सीखने की उनकी गति धीमी थी। लेकिन वे जो सीखीं वह बेहतर सीखीं। क्योंकि उनके सीखने में जीने की स्पर्धा नहीं थी। उसके भाग में जो भी जीवन आया है वह सुंदर है, राधिका के भीतर के चित्रकार ने उसे और सुंदर व रंगबिरंगा बनाया है। ‘डाउन सिंड्रोम’ दबाव अस्वीकार करने की जिद उनमें हैं। इसीलिए आम आदमी जैसा ‘तनाव’ उनके चेहरे पर तनिक भी दिखाई नहीं देता। व्यक्ति जिद करें तो दुनिया बदल जाती है।
Tags: empowering womenhindi vivekhindi vivek magazineinspirationwomanwomen in business

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