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किसान आंदोलन के पीछे की राजनीति

by राघवेन्द्र पटेल
in जुलाई २०१७, राजनीति, सामाजिक
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मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने किसानों के सब से बड़े संगठन भारतीय किसान संघ से हुई बातचीत में किसानों की अधिकांश मांगों को मंजूर कर लिया था। इस पर संघ ने आंदोलन वापस ले लिया। फिर भी अपनी रोटियां सेंकने में लगे राजनीतिक तबकों ने बेवजह आंदोलन को हिंसक बना दिया। उनके चेहरे बेनकाब होने चाहिए।

शाति का टापू कहा जाने वाले मध्यप्रदेश इन दिनों हिंसक हुए किसान आंदोलन की आग में झुलस रहा है। मध्यप्रदेश में ७० फीसदी खेती बरसात पर निर्भर है। लगातार दो साल सूखे ने किसानों को आर्थिक रूप से काफी कमजोर कर दिया है। खेती के लिए किसानों ने ऊंची ब्याज पर कर्ज लिया, लेकिन सूखे की वजह से उसे चुका नहीं पाया। जिन इलाकों में खेती बरसात पर निर्भर है, वहां फसलों में नुकसान की दर ज्यादा है।

मध्यप्रदेश में १९ साल बाद ऐसा किसान आंदोलन देखने मिला है जिसमें कि इतनी हिंसा व आगजनी हुई हो। इससे पहले मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के मुलताई में १९९८ में किसानों ने इस तरह का आंदोलन किया था। १२ जनवरी१९९८ को प्रदर्शन के दौरान १८ किसानों की मौत हुई थी। दरअसल, मुलताई में उस वक्त किसान संघर्ष मोर्चा के बैनर तले आंदोलन हुआ था। किसान बाढ़ से हुई फसलों की बर्बादी के लिए ५००० रूपये प्रति हैक्टेयर की दर से मुआवजे और कर्ज माफी की मांग कर रहे थे। उस वक्त राज्य में कांग्रेस की सरकार थी।

मध्यप्रदेश के मालवा निमाड़ में आंदोलनकारी हिंसक हो गए। सब्जियां व फल सड़कों पर फेंक दिए और दूध सड़कों पर बहा दिया। किसानों ने कृषि उपज को शहरों तक नहीं पहुंचने दी।
निमाड़ से फैले किसान आंदोलन की आंच अब मध्यभारत में भी दिखने लगी है। हालात इस कदर विगड़ रहे हैं कि किसान अपने छोटे-छोटे गांवों में भी आंदोलन के लिए आमादा है। सब्जी उत्पादक छोटा किसान हो या पशुपालक, अपनी उपज बाजार न ले जाकर आंदोलन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रहा है। किसान के खेतों में काम करने वाला मजदूर भी आंदोलन में मजबूती से जुड़ा था। इससे किसान आंदोलन में शामिल वर्ग की सहभागिता का अंदाजा लगाया जा सकता है। सोशल मीडिया में किानों की मांगों को रख प्रारंभ हुए इस आंदोलन को सरकार व उसके प्रशासनिक नुमाइंदों ने बहुत हल्के तौर पर लिया। सोशल मीडिया से चली किसान आंदोलन की मुहिम ने जब चिंगारी का रूप लिया तब भी जनप्रतिनिधि, प्रशासनिक व्यवस्था व सरकार ने मानो आंखें बंद कर रखी थीं। विभिन्न किसान संगठन जब आम किसानों के इस आंदोलन में शामिल हुए तो किसान आंदोलन की चिंगारी को देखते-देखते ही शोलों में परिवर्तित होते देर न लगी। इस बीच मंदसौर में आंदोलन हिंसक हो गया। मंदसौर पिपलिया मंडी के पास पुलिस पर पत्थर फेंके और वाहन जला दिये। रेलवे क्रासिंग का फाटक तोड़ दिया और पटरियां उखाड़ने की कोशिश की गई। जिससे पुलिस फायरिंग और पथराव के दौरान ६ किसानों की मौत हो गई।

गौरतलब है कि देश में किसानों के हित में कार्य करने वाले संगठनों में भारतीय किसान संघ का नाम अग्रसर के तौर पर है। राष्ट्रवादी विचारधारा से ओतप्रोत भारत का यह सब से बड़ा किसान संगठन किसान के उत्पाद से लेकर किसान की समस्याओं पर चिंतन करते हुए कार्य करता है। भारतीय किसान संघ ने किसानों को जागरूक कर अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए खड़ा कर किसान आंदोलन को मजबूती प्रदान की। भारतीय किसान संघ के ग्राम बंद अभियान का असर इस कदर दिखा कि गांवों में गरीब से गरीब किसान भी किसानों के साथ इस आंदोलन में आ खड़ा हुआ। ज्ञात हो कि मालवा एवं मध्य भारत में अनेक स्थानों पर किसान आंदोलन का नेतृत्व भारतीय किसान संघ के कार्यकर्ता स्वयं रहे थे। वहां किसान शांतिपूर्ण तरीके से, लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन कर रहे थे। प्रदेश के अन्य जिलों में किसान शांतिपूर्वक आंदोलन में शामिल थे। असामजिक तत्वों द्वारा छुटपुट हिंसक घटनाओं के सामने आने पर भारतीय किसान संघ के शीर्ष नेतृत्व को आंदोलन की दिशा परिवर्तन होने के खतरे का अहसास हो चला था। किसान संघ ने जिम्मेदारी का परिचय देते हुए किसान आंदोलन को शांतिपूर्ण ढंग से चलाने की बात प्रदेश के किसानों के बीच रखी।

भारतीय किसान संघ पूर्व में भी मई माह में सरकार को अपनी मांगों से अवगत करा चुका था। महाकोशल अंचल में भी मूंग उड़द की खरीदी विषय पर बड़े धरने के माध्यम से सरकार को किसानों ने चेता दिया था। किसान संघ व सरकार के बीच किसान की मांगों के संदर्भ में वार्ताओं का दौर चल रहा था।

किसान आंदोलन में राजनैतिक हस्तक्षेप के चलते जब अनेक स्थानों से हिंसा की खबरें आने लगीं तो तीसरे दिन मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने आंदोलन में शामिल किसान संघों से चर्चा करने का संदेश भेजा। हिंसक होते किसान आंदोलन को देखते व प्रदेश के किसानों की बेहतरी को ध्यान में रख, उज्जैन में प्रदेश के मुखिया मा.शिवराज सिंहजी के सब से बड़े किसान संबछन भारतीय किसान संघ से चर्चा करने के लिए उज्जैन पहुंचे। भारतीय किसान संघ ने मा.मुख्यमंत्रीजी को किसानों की मांगों से अवगत कराया। एक या दो मांगों को छोड़ सरकार ने सारी मांगें मान लीं, जिसमें मुख्य रूपसे निम्न मांगे थीं-

१. किसान कृषि उपज मंडी में जो उत्पाद बेचते हैं उनका ५० प्रतिशत उन्हें अब नकद भुगतान प्राप्त होगा तथा ५० प्रतिशत आर.जी. किया जाएगा।
२. गर्मी की मूंग व उड़द की फसल को सरकार समर्थन मूल्य पर खरीदेगी।
३. किसानों का प्याज ८ रुपए प्रति किलो पर सरकार खरीदेगी। यह खरीदी तीन-दिन में चालू हो जाएगी तथा जून के अंत तक चलेगी।
४. सब्जी मंड़ियों में किसानों को ज्यादा आड़त देनी पड़ती है। इसे रोकने के लिए सब्जी मंडियों को मंडी अधिनियम के दायरे में लाया जाएगा।
५. फसल बीमा योजना को ऐच्छिक बनाया जाएगा। नगर एवं ग्राम निवेश एक्ट के अंतर्गत जो भी किसान विरोधी प्रावधान होंगे उन्हें हटाया जाएगा।
६. किसानों ने आंदोलन किया है। उसमें किसानों के विरुद्ध जो प्रकरण बने हैं उन्हें समाप्त किया जाएगा।

भारतीय किसान संघ ने कभी भी कर्ज माफी की मांग की नहीं। किसान संघ इस मांग का कभी समर्थन भी नहीं करता। जो मांगें सरकार के सामने रखी थीं वे मानने के बाद आंदोलन चलाने का कोई औचित्य नहीं था। सरकार को किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए समय देना उचित समझते हुए आंदोलन को स्थगित करने का फैसला किया। साथ ही अन्य किसान संगठनों से सरकार बात करे, उनकी मांगों को सुने, ऐसा सुझाव भी सरकार को दिया। किन्तु इसके बावजूद स्वनामधन्य कुछ तथाकथित किसान नेताओं ने अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए इस आंदोलन को जारी रखा और उसके परिणाम स्वरुप निरीह किसानों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

तत्कालीन परिस्थतियों में लगता है कि भारतीय किसान संघ के किसान आंदोलन को स्थगित करना सही फैसला था। क्योंकि जनहानि व सार्वजनिक संपत्ति के साथ निजी संपत्ति के हुए भारी नुकसान को देख कर अब दबी जुबां में ही सही लेकिन आवाज उठने लगी है कि किसान आंदोलन को हिंसक बनाने के लिए जिम्मेदार चेहरे सार्वजनिक होने जरूरी हैं।

दलों के कार्यकर्ता भी समाज सेवा की मंशा रख आंदोलनों में सहभागी होते हैं। लेकिन युवाओं का इस्तेमाल इस किसान आंदोलन को आतंकित करने के लिए किया गया। जिसकी समाज के सभी वर्गों को भर्त्सना करनी चाहिए।
आज किसान और खेती की स्थिति बहुत ही गंभीर दौर से गुजर रही है। इसमें अपनी ओछी राजनीति बाजू में रख कर सभी विचारधाराओं के देशप्रेमी कार्यकर्ताओं को एकत्र आने की आवश्कता है। इस आंदोलन के बाद सब इस बात को समझ लें तो किसान और देश का भला होगा।

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