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हार

by डॉ. दिनेश पाठक शशि
in कहानी, गौरवान्वित उत्तर प्रदेश विशेषांक - सितम्बर २०१७
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…और उसके आगे की तमाम हालातों का नक्शा चलचित्र की भांति उसके मस्तिप्क में दौड़ने लगा। आगे बढ़ते उसके कदम जाने कब वहीं के वहीं थम गए और वह वहीं से वापस लौट पड़ा, उस हार की मालकिन को खोजने के उद्देश्य से।

कैला मैया के दर्शन करके वह लौट ही रहा था कि अचानक ही रास्ते में पड़े हार पर उसकी नजर पड़ी। वह रुका और हार को उठा कर देखने लगा- असली सोने का है या कि नकली।
असली सोने का ही है, इस आश्वस्ति के बाद उसने हार को सीधे हाथ की हथेली पर रखा और तौलने के अंदाज में हथेली को ऊपर-नीचे करने लगा-‘‘दो तोले से क्या कम होगा।’’- उसने अनुमान लगाया और फिर मन ही मन गणना करने लगा कि अगर इसे बेचा जाय तो कितने का बिक जाएगा।

वह मन ही मन प्रफुल्लित होकर कैला मैया को धन्यवाद दे रहा था कि चलो मैया ने अपने दर्शनों का चमत्कार दिखा ही दिया। कम से कम ६०-६५ हजार रुपये से कम का क्या बिकेगा। पैसे के अभाव में कई महीने से कई काम रुके पड़े थे। अब इसको बेच कर सारे काम निपटा देगा। साहूजी का दो हजार रुपये का कर्जा भी चुकता कर देगा। पत्नी भी कई महीने से फटी साड़ी दिखा कर, नई साड़ी लाने के लिए कह चुकी है और छुटका की स्कूल की फीस भी चुकता हो जाएगी। अब तो वृध्दा मां का चश्मा भी बनवा देगा। ढेर सारे खर्चे लाइन लगाकर उसे याद आने लगे।

धन की आमद दिखे तो अनेक कार्य-योजनाएं नजर आने लगती हैं और धन न हो तो आदमी मुंह बांधे बेबस देखता रहता है। ऐसा ही उसके साथ भी अनेक बार हुआ है। अनेक महत्वपूर्ण कार्यों को वह हर अगले माह पर टालता आ रहा था किन्तु मंहगाई इस कदर बढ़ गई है कि सुरसा के मुंह की तरह फैलती ही जा रही है, जिसके कारण हर अगले माह के कार्य फिर हर अगले माह पर टलते जा रहे थे किन्तु इस हार के मिल जाने से तो जैसे उसकी सारी समस्याओं का हल ही मिल गया।

गरीब आदमी का भी भला क्या जीवन है, छोटी-छोटी जरूरतों की पूर्ति के लिए भी तरसना पड़ता है। रोज कुंआ खोद कर पानी पीने जैसी स्थिति। मजदूरी मिल जाय तो चार पैसे मिलें और फिर घर में दाल-रोटी का जुगाड़ हो। दाल-रोटी के नाम पर उसे याद आया कि अब तो ये मुहावरा भी झूठा पड़ गया लगता है। परसों जब उसने मूंग, उड़द और अरहर की आधा- आधा किलो दाल तुलवाई थी तो दुकानदार द्वारा दिए गए हिसाब के पर्चे को देख कर तो वह देखता ही रह गया था। कुछ दिन पहले जो दालें १५ और १६ रुपये किलो थीं एकदम से साठ रुपये किलो हो गईं। उसने ज्यों की त्यों सारी दालें दुकानदार को वापस कर दीं और बाजार से एक किलो आलू और ढाई सौ ग्राम प्याज लेकर चला आया था। यानि पहले गरीब का मुहावरा ‘दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ इस मंहगाई ने झूठा सिध्द कर दिया। आज के युग में दाल तो बिल्कुल ही नहीं खरीद सकता गरीब आदमी।

उसने हार को उलट-पुलट कर एक बार फिर से देखा। देखते-देखते अचानक ही उसके मन में विचार आया कि ये हार जिसका होगा वह कैसी महिला रही होगी? जरूर ही कोई लापरवाह किस्म की महिला होगी जो कार में बैठ कर इधर से उधर इठलाती फिरती होगी। तभी तो हार गुमा दिया। क्या फर्क पड़ता है ऐसे धनाढ्यों को? एक नहीं ऐसे चार हार खो जाएं, और बन जाएंगे। मेहनत की कमाई का पैसा हो तो पता चले कि एक हार भी कैसे बनता है। पूरी जिंदगी की कमाई लगा कर भी एक हार बनना मुश्किल पड़ जाता है गरीब आदमी के लिए तो। लेकिन इन धनाढ्यों के लिए सुनार की दुकानें तो खिलौनों की दुकान सरीखी लगती हैं। गए और एक से एक लेटेस्ट डिजाइन के हार, अंगूठी, पाजेब और झुमका, कंगन ऐसे पैक करा लाते हैं जैसे साग-भाजी की दुकान से सब्जियां खरीद रहे हों।

चलो अच्छा हुआ जो हार खो गया। इससे मेरा दरिद्र भी दूर होगा और उस महिला को भी नए डिजाइन का नया हार खरीदने का बहाना मिल गया होगा।
पर दूसरे ही क्षण उसके दिमाग में एक और भी बात घुमड़ने लगी-यदि ये हार किसी धनाढ्य परिवार की महिला का नहीं हुआ तो…. तब तो इसके खोने से उस घर में सन्नाटा छा गया होगा। हो सकता है उस दिन उस घर में खाना तक न बना हो। अब क्या होगा, अब क्या होगा? सोचते-सोचते ही घर में सब की भूख भाग गई होगी।

हो सकता है किसी सास ने अपने बक्से में से निकाल कर अपना हार ही बहू को पहना दिया हो कि -‘‘लै बहू, कैला मैया के दरसननु कूं जाय रही है तौ खाली गलौ ठीक नांय लगै, मैया तौ सबके हिय की जानें है, है सकै तेरे घरबारे कूं इत्ती बरकत दे कैं बूं तोकूं ऐसौ ही दूसरों हार बनबाय देय।’’ और बहू अपनी सास के गुणों का बखान करते हुए खुशी-खुशी मैया के मेला में आई हो और यहां आकर इस हार को गुमा बैठी हो। लौट कर घर पहुंचने पर हो सकता है कि सास को हार के गुम जाने की खबर देने की हिम्मत ही न पड़ी हो बहू को और जब सास ने बहू का रुंआसा-सा चेहरा देखा होगा तो बिना बताए ही सब समझ गई होगी।

हो सकता है सास ने घर में महाभारत छेड़ दिया हो और अपने बेटे के घर में आते ही बहू की लापरवाही के गुणों का बखान कर करके बेचारी बहू पर लात-घूंसों की बरसात करवा दी हो। हो सकता है बहू-बेटे में इतनी तकरार हुई हो कि कई दिन तक एक दूसरे ने एक दूसरे की खबर ही न पूछी हो। या कि बहू को कूट-काट कर उसके मायके छोड़ आया हो बेटा। ऐसा भी हो सकता है कि सास बहुत गंभीर और समझदार हो। उसने हार खोने की खबर अपने तक ही सीमित रखी हो और बहू से भी किसी को न बताने की कसम दे दी हो। बेटा और पति दिन भर मेहनत करके घर लौटते हैं, आते ही उनको ये बुरी खबर देकर, उनकी आत्मा को कष्ट देने के सिवा होगा भी क्या? घर का खर्चा ही बमुश्किल चल पाता है दोनों की कमाई से, फिर दूसरा हार बनने का तो सवाल ही कहां पैदा होता है। वैसे तो ये हार उसे शादी पर उसकी सास द्वारा ही दिया गया था जिसे आज तक बक्से में सहेज कर रख छोड़ा था वरना अपनी शादी से लेकर आज तक एक पैसा भी कभी बचा है जो दूसरा हार बनवा लेती। चलो अब खो गया तो खो जाने दो। बेटे और पति को बताना ठीक नहीं। वैसे भी गहनों का मोह तो महिलाओ को ही होता है।
और फिर सारी आंतरिक पीड़ा को अकेले ही अलग-अलग झेल रही हों सास-बहू।

ऐसा भी हो सकता है कि ये हार किसी महिला ने अपनी किसी सहेली से उधार मांगा हो कि दो-चार दिन में लौटा देगी। हार खो जाने की खबर जब उसके पति को पता चली होगी तो उसने अपनी पत्नी को लापरवाह, गैरजिम्मेदार और न जाने किन-किन शब्दों से नवाजा होगा। हो सकता है दोनों पति-पत्नी सुलझे विचारों के हों और उन्होंने मौन समझौता कर लिया हो कि चलो, जो हुआ सो हुआ, अब जिसका लिया है उसका वापस तो करना ही पड़ेगा, भले ही पेट काट कर धीरे-धीरे इकट्ठा हो पैसा या फिर किसी से उधार लेना पड़े। और इसी चिंता में दोनों पति-पत्नी घुल-घुल कर जी रहे होंगे।

उसने हार को कुर्त्ते की जेब से निकाला और खड़े होकर एक बार फिर से गौर से देखने लगा जैसे हार के विषय में उसे देख कर ही सब कुछ जान लेने वाला जौहरी वह स्वयं हो।
उं…हूं…क्या अजीब हरकत है। अरे! किसी का भी हो ये हार, अब तो उसे मिला है न। इसे बेच कर घर के जाने कितने काम पूरे करेगा वह। वृध्दा मां का चश्मा चाह कर भी वह नहीं बनवा पा रहा था। पत्नी को फटी साड़ी में देखते हुए भी कई महीने हो गए। नई साड़ी खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। छुटका के कालेज से फीस जमा नहीं हुई तो नाम काट देने की नोटिस आ चुकी है। क्या करे वह?

शायद कैला मैया ने उसे इन मुसीबतों से मुक्ति दिलाने के लिए ही ये हार दिया हो। नहीं तो इतनी भीड़-भाड़ में किसी और को भी नजर आ सकता था, उसी को क्यों दिखाई दिया?
जिसका भी हो अब इसे बेच कर वह अपनी समस्याओं से निजात पाएगा।

चलते-चलते ही उसका हाथ अचानक फिर से कुर्ते की जेब पर पहुंच गया। उसने हार को निकाला और फिर से देखने लगा। हार की पुरानी, अप्रचलित डिजाइन से उसे लगा कि जरूर ही किसी धनाढ्य महिला का हार तो नहीं ही होगा ये। एकदम नए-नए डिजाइनों और चमक-धमक के स्वर्ण-आभूपणों को पसंद करने वाली धनाढ्य आधुनिकाएं भला ऐसे पुरानी डिजाइन के हार को क्यों पहनेंगी। वो तो इसको कब का बेच कर, नया खरीद चुकी होतीं। फिर? फिर… के आते ही उसने हार को गौर से देखा। हार थोड़ा घिसा सा भी लग रहा था। यानि जरूर कई साल पुराना रहा होगा।

उसका दिल स्वत: ही उस अनजान महिला के प्रति सहानुभूति से भरने लगा। जरूर ही कोई अभावग्रस्त परिवार की महिला रही होगी जो बिना कुछ कहे वर्षोंं से इसे पहन रही होगी। हो सकता है वर्षों पहले उसकी ससुराल से उसकी शादी में ही वह हार आया हो जिसे वह अब तक पहनती चली आ रही हो। धन के अभाव ने उसे या उसके पति को सोचने का मौका ही न दिया हो नया हार बनवाने के बारे में। घर-गिरस्ती की चक्की में पिसती उस महिला पर हार के खो जाने से वज्रपात हो गया होगा।

और उसके आगे की तमाम हालातों का नक्शा चलचित्र की भांति उसके मस्तिष्क में दौड़ने लगा। आगे बढ़ते उसके कदम जाने कब वहीं के वहीं थम गए और वह वहीं से वापस लौट पड़ा, उस हार की मालकिन को खोजने के उद्देश्य से।

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