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ध्वस्त होती मान्यताएं

by नरेन्द्र भदौरिया
in गौरवान्वित उत्तर प्रदेश विशेषांक - सितम्बर २०१७, संस्कृति, सामाजिक
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उत्तर प्रदेश में आज आबादी का घनत्व बढ़ा है। अर्थ ही सब कुछ हो गया है। इसलिए लोगों का झुकाव मान और शान से ज्यादा अर्थ पर केन्द्रित हो गया है। अर्थ की धारणा ने सांस्कृतिक धरोहरों को भी करारी चोट दी है। तमाम मान्यताएं ध्वस्त हो रही हैं। फिर भी आशा की किरणें अब भी मौजूद हैं।

 

ग्रामीण जीवन में किस तरह भ्रष्टाचार घुल चुका है, ये जानना हो तो गांवों का रुख करना चाहिए। लोग मानते आ रहे हैं कि भारतीय संस्कृति के मूल सिद्धांत अमरत्व की धारणा गांवों में पली बढ़ी; क्योंकि गांवों में सत्य की साधना अनिर्वचनीय ढंग से होती रही है। अनिर्वचनीय शब्द का प्रयोग मैंने जानबूझकर किया है। मेरा मानना है कि गांवों में अशिक्षा थी किन्तु भारतीय संस्कृति के आदर्श सिद्धांतों की व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। लोग करणीय अकरणीय का भेद जानते थे। इस भेद को जानने का सब से सहज तरीका पाप और पुण्य का था। पाप का अर्थ था अकरणीय। जिन बातों को पाप कह कर सम्बोधित किया जाता था वे सब अकरणीय थीं। समाज उनसे बचता था। जो ऐसा करते थे उनके प्रति समाज में अस्वीकार्यता प्रकट होती थी।

पशुओं को मारना भी एक बड़ा पाप था। बचपन की एक घटना मुझे प्राय: भीतर तक झकझोर देती है। मैं उस समय दस वर्ष से भी कम वय का था। एक महिला मैले कपड़ों में लिपटी रुदन करती सी घूम रही थी। बहुत धीरे चलते हुए हर दरवाजे जाती थी। भिक्षा मांगना उसका उद्देश्य नहीं था। अपितु उसका ध्येय लोगों को यह बताना था कि उसके हाथों से गोहत्या हो गई है। चेहरा ढंके रहते थी। किसी द्वार पर आने पर उसे लोग चावल भिक्षा में देते थे। जिसे वह मुंह छिपा कर झोली में डलवा लेती थी। पड़ोसियों के द्वार पर ऐसा होने की सूचना उसके रुदन से ही दूसरों को मिल जाती थी। चट से घर का कोई एक सदस्य चावल से भरी छोटी टोकरी लेकर बाहर आ जाता था। मेरे द्वार पर जब यह महिला आई तो हम सब बच्चों को घर के भीतर जाने को कहा गया। पर पिता जी ने मां को रोका और कहा कि इन्हें जानने का हक है कि आखिर यह क्या है। मैं पिता जी के दायीं ओर खड़ा था। मेरे छोटे भाई और दो बहनें मां के पीछे छिपी थीं। टोकरी से चावल गिराते समय मां ने मुंह फेर लिया था। उस महिला का रुदन मेरे कानों से सीधे हृदय में उतर गया था। बहुत विदारक दृश्य था। महिला कहां से आई है, उसके पति और ससुर का नाम क्या है वह भी उसे रोते हुए गाना पड़ता था। किसी पाप का ऐसा प्रायश्चित। पशुओं के प्रति ऐसा औदार्य भाव के कारण होता था या कि धर्म भीरुता का प्रभाव था। धर्म भीरुता जैसा शब्द बाद का गढ़ा हुआ है। बहुत पुराना नहीं है। फिर भी आज के लोग इस घटना का प्रसंग सुनते ही समाज के उन लोगों को कोसने लग जाते हैं जिन्होंने पाप जैसा शब्द गढ़ा होगा। ऐसे लोग मानते हैं कि समाज को डरा कर किसी एक दिशा में ले जाना अनुचित है। लोगों की आजादी का हनन है।

बचपन की ही एक और घटना याद आती है। पुलिस के लोगों से उस समय जन सामान्य डरता था। कहा जाता था कि जिसके दरवाजे पुलिस आ धमके उसका मान घट जाता है। इसलिए लोग अनुचित कार्य करने, मारपीट करने या किसी को सताने की बातें करने से डरते थे। पुलिस में घूस का चलन आज की तरह था कि नहीं ये मैं नहीं कह सकता। लेकिन भलीभांति याद है कि एक दरोगा ने गांव के मुखिया के दरवाजे बैठने से भी मना कर दिया था। उसे मलाई वाला दूध भी मंजूर नहीं था। इतना ही नहीं मुखिया को कड़ी हिदायत दी थी कि आईंदा पुलिस को लालच देने का प्रयास भी किया तो जेल भेज देंगे।

उत्तर प्रदेश एक अनोखा राज्य है। भांति-भांति के सांस्कृतिक चलन और भाषाएं इस राज्य में प्रचलित हैं। पूर्वांचल का क्षेत्र भोजपुरी भाषा को आज भी मजबूती से पकड़े है। बलिया-बनारस से लेकर अयोध्या तक के क्षेत्र में पाप पुण्य की भावना आज भी बहुत गहराई से समाई हुई है। बनारस, गोरखपुर, अयोध्या और मिर्जापुर ऐसे बड़े स्थान हैं जहां लोगों की आस्थाएं इतनी गहराई से जुड़ी हैं कि पाप-पुण्य के भाव सभी में समान रूप से व्याप्त दिखाई देते हैं। मुगलों का कालखण्ड रहा हो या फिर अंग्रेजों का, पाप पुण्य की संस्कृति से लोगों ने मुंह नहीं मोड़ा। अवध का क्षेत्र श्रीराम के आभामण्डल से आज भी आच्छादित है। हर तरफ श्रीराम की महिमा व्याप्त है। ये बातें दूर बैठे लोगों को जितना आकर्षित करती होंगी उतना ही अवध क्षेत्र में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए इनका महत्व है। लेकिन सब से विचित्र बात यह है कि हिंदी के खड़ी बोली के स्वरूप ने उत्तर प्रदेश की अनेक बोलियों को कमजोर किया है। अवध क्षेत्र अवधी बोली से विमुक्त होता जा रहा है। अवधी और बैसवारी ये दो बोलियां ऐसी हैं जिनका सर्वाधिक प्रवाह श्रीरामचरितमानस में देखने को मिलता है।

उत्तर प्रदेश में आज आबादी का घनत्व बढ़ा है। अर्थ ही सब कुछ है। इसलिए लोगों का झुकाव मान और शान से ज्यादा अर्थ पर केन्द्रित हो गया है। अर्थ की धारणा ने सांस्कृतिक धरोहरों को भी करारी चोट दी है। तमाम मान्यताएं ध्वस्त हो रही हैं। उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड के जिलों के लोग धन्य हैं जो अपने प्रारब्ध और क्षेत्रीय पुरोधाओं की गाथाओं का गायन करते हुए आज भी पाप और पुण्य के विभेद को भली प्रकार समझते और पालन करते हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश का दृश्य अलग है। एक ओर ब्रज भाषी जिले हैं जहां श्रीकृष्ण और राधा की आराधना अहर्निश होती है। मथुरा को आज भी श्रीकृष्ण की राजधानी और राधा रानी के साथ उनकी क्रीड़ा स्थली के रूप में सभी जानते हैं। समय के निर्दयी प्रहार इस क्षेत्र पर भी पड़े हैं तो भी सांस्कृतिक विरासत के सहारे पश्चिम उत्तर प्रदेश का यह भूभाग अपने आदर्शों के तईर्ं बहुत संवेदनशील है। भारत का रुहेलखण्ड क्षेत्र विकास की धारा को सब से पहले अपनाने वाले क्षेत्रों में शामिल है। यहां के रंग-ढंग दुनिया को देख कर बहुत जल्दी बदल जाते हैं। लेकिन पड़ोस में देवभूमि हिमालय का उत्तराखण्ड क्षेत्र है। हरिद्वार में गंगा के अवतरण के साथ ही अर्वाचीन सांस्कृतिक धारा प्रवाहित होती है। ये बड़ा शुभ लक्षण है कि रुहेलखण्ड क्षेत्र की जनता भी अपनी तमाम विवशताओं और विविधताओं के बावजूद सांस्कृतिक विरासत को संजोये हुए है। हालांकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों में मुगल काल से ही मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव बहुत तेजी से हुआ जिसके कारण सांस्कृतिक आदर्शों और मानकों को बहुत आघात लगा।

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Tags: cultureheritagehindi vivekhindi vivek magazinehindu culturehindu traditiontraditiontraditionaltraditional art

नरेन्द्र भदौरिया

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