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विश्वव्यापी भारतीय संस्कृति

by श्याम परांडे
in प्रकाश - शक्ति दीपावली विशेषांक अक्टूबर २०१७, संस्कृति
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सारे विश्व से जो पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं उससे साबित होता है कि भारतीय संस्कृति विश्व के हर कोने में फैली हुई थी। चाहे जापान हो या न्यूजीलैण्ड, यूरोप हो या अफ्रीका अथवा अमेरिकी प्रायःद्वीप- हर जगह भारतीय और उनकी संस्कृति पहुंची है। हर संस्कृति से उसका मेलजोल हुआ। वह सर्वव्यापी हो गई।
समुंदर पार जाने या देशांतर के दौरान संस्कृति किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती। वह सहजता और सरलता से सीमाओं को पार कर देती हैं। यहां तक कि सदियों या सहस्राब्दियों पूर्व उसने जो प्रभाव छोड़ा था वह भी सहजभाव बन जाता है। इसी बिन्दु पर विश्व की विभिन्न सभ्यताएं एक दूसरी को पीछे छोड़ती हुई आगे बढ़ जाती हैं। इसे हम परिवर्तन कहते हैं, जो स्वाभाविक है।
भारत की प्राचीन संस्कृति अब तक बची है। विदेशी आक्रांताओं की बेशुमार लूटपाट और भारी तबाही भी उसे नष्ट नहीं कर पाई। भारतीयों की धार्मिक एवं दार्शनिक आस्थाएं वैसी ही अविच्छिन्न बनी हुई हैं। ईसा पूर्व २५०० से लेकर ईसा बाद ५०० तक के कालखंड में भारत का सांस्कृतिक ज्ञान उच्चकोटि का था, जिसका लिखित इतिहास आज भले उपलब्ध न हो लेकिन उसका प्रभाव पूर्व में जापान और न्यूजीलैण्ड तक, पश्चिम में मध्यपूर्व एवं पश्चिम एशिया, अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका तक विश्व भर में आज भी दिखाई देता है। सब से उल्लेखनीय बात यह है कि मिस्र, मेसोपोटामिया, यूनान, रोम, अमेरिका अथवा चीन की आधुनिक संस्कृतियों में उनकी प्राचीन संस्कृतियों के अवशेष बहुत कम मिलते हैं, जबकि भारत में आज भी ४५०० वर्ष पूर्व की सांस्कृतिक विरासत बनी हुई है। विश्व के अन्य देशों में जिस तरह इतिहास लिखे गए वैसे भारत में न हुआ हो लेकिन वह तो लोगों के दिलोदिमाग पर सहस्राब्दियों से छायी हुई है और आज भी उसकी निरंतरता कायम है।
वर्तमान में विश्व सौहार्द और सामंजस्य के संकट से जूझ रहा है। आतंक और हिंसा दावानल जैसे फैल रहे हैं। लेकिन, सदियों पूर्व भारतीय संस्कृति ने सौहार्द्र या भाईचारे को सहजता से हासिल कर लिया था। भारतीय अपने विकसित ज्ञान-विज्ञान के साथ विश्व में जहां कहीं भी जाते सामंजस्य के सहज और आसान तरीकों का इस्तेमाल करते थे। इसी कारण वे जहां भी गए उनका स्वागत ही हुआ। भारतीयों के स्वभाव में लड़ाई-झगड़ा अंतिम शब्द है, हालांकि विस्तार के लिए उन्होंने भी युद्ध लड़े हैं। फिर भी उनके सहजभाव के कारण वे लोगों के दिल जीत लेते थे। चाहे संस्कृत हो या पाली भाषा, योग हो या ध्यान, आयुर्वेद हो या अध्यात्म, समुद्री ज्ञान हो, कृषि ज्ञान हो, या धातु विज्ञान, हस्तशिल्प हो या हरकरघा कारीगरी, शास्त्रीय संगीत हो या नाट्य कला- सब का प्रसार इस तरह किया कि उससे स्थानीय प्रजा लाभान्वित हो। जिस किसी देश या समाज में वे जाते थे अपने स्वभाव से लोगों का मन जीत लेते थे।
इस संदर्भ में अमेरिका में चीन के राजदूत रहे श्री हू शिह का कथन उल्लेखनीय है, ‘‘भारत ने सीमा पार एक भी सैनिक भेजे बिना चीन को जीत लिया और २००० सालों तक उस पर राज किया।’’ इस कथन से सारी कहानी स्पष्ट हो जाती है। उस समय के भारतीयों ने आज के भारतीयों की अपेक्षा अपने सहजभाव का बहुत चतुराई और कौशलता से उपयोग किया। यदि बारीकी से अध्ययन करें तो पता चलेगा कि इन भारतीय प्रवासियों के अहिंसक और शांत स्वभाव के ढेरों सारे उदाहरण मिल जाएंगे।
लोगों का आनाजाना केवल एक ही बंदरगाह या एक ही राज्य से नहीं होता था, जबकि पूरे भारत के सभी राज्यों के लोग बाहरी देशों में आयाजाया करते थे। हम अपने ही कुनबे में मस्त रहने वाले लोग नहीं थे, बल्कि विश्व के किसी अन्य समाज की अपेक्षा अधिक साहसी थे। हमने समंदर पार किए, जंगलों को नापा, बर्फीले प्रदेशों का सफर किया, तूफानों का मुकाबला किया, भीषणताओं का सामना किया। सिन्धु घाटी की सभ्यता की सभी बात करते हैं, यह तो केवल प्रतीकात्मक है; वास्तव में सारा भारत ही ऐसे मामलों में पीछे नहीं था।
भारतीय संस्कृति का प्रसार बहुत विस्तृत है। यह कहना गलत है कि हमारे पुरखों का विश्व के फलां-फलां भाग से सम्पर्क नहीं था अथवा विश्व के उस हिस्से में आबादी न होने या समुद्री अंतर बहुत होने से हम नहीं पहुंच पाए। आधुनिक विज्ञान के अनोखे साधनों के कारण अब हमारे इतिहास और पुरातत्व को समझने में आसानी हो गई है। भारतीय संस्कृति के उपलब्ध हो रहे हैं प्रमाणों से इतिहासकार, वैज्ञानिक, पुरातत्वविद् और हर कोई चमत्कृत हैं और मानते हैं कि कुछ दशकों पूर्व जिसे महज किस्से-कहानियां समझते थे, वैसी भारतीय संस्कृति नहीं है और उसे कमतर आंका नहीं जा सकता।
सन २०१४ में मैं आस्ट्रेलिया गया था। वहां मानववंशशास्त्र के एक प्राध्यापक से मैंने मुलाकात की। वे सिडनी शहर से १५० किमी दूर रहते थे। वे आस्ट्रेलिया की मूल निवासियों की जमात- एबॉरिजिनल्स- से ताल्लुक रखते थे। मैं यह सुन कर चकित रह गया कि उनके पुरखे उत्तर भारत के पंजाब-हरियाणा जैसे इलाके से यहां आकर बस गए। वे भारत और भारतीयों के प्रति बहुत सम्मान की भावना रखते थे। मैंने उन्हें भारत आने का औपचारिक निमंत्रण दिया, लेकिन उनके भारत से सांस्कृतिक/वांशिक अनुबंध का पता नहीं कर पाया। हमने दक्षिण भारतीय व्यापारियों के इंडोनेशिया और अन्य देशों में साहसिक सफरों के बारे में पढ़ा तो है; लेकिन आस्ट्रेलिया खंड के बारे में ऐसा कुछ नहीं जानते, क्योंकि यूरोपीयनों का दावा है कि १६हवीं सदी में उन्होंने आस्ट्रेलिया खंड को खोज निकाला है।
मनुष्य के मूल स्थान के बारे में आरंभिक यूरोपीय विचारकों में थॉमस हेनरी होक्सले का नाम प्रसिद्ध है। वे डार्विन के उत्क्रांति सिद्धांत को मानते थे और डार्विन की आस्ट्रेलिया यात्रा के ११ वर्ष बाद १८४७ में एचएमएस रैटिलनेक नामक जहाज से आस्ट्रेलिया आए। होक्सली ने १८७० में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ऑन द जिऑग्राफिकल डिस्ट्रिब्यूशन ऑफ द चीफ मॉडिफिकेशन ऑफ मैनकाइंड’ में लिखा है कि, ‘‘अध्ययन से पता चलता है कि कोई ४००० वर्ष पूर्व भारतीयों के यहां आने के प्रमाण हैं। यह वह समय था जब एबॉरिजिनल समुदाय ने अपने खानपान की आदतों में परिवर्तन करना शुरू किया था। एडिलेड यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर एनशियंट डीएनए के प्राध्यापक एलन कूपर के अनुसार एबॉरिजिनल संस्कृति के विकास में भारतीयों की भूमिका अहम् रही होगी। उनका कहना है, ‘‘पुरातात्विक प्रमाणों से साबित होता है कि परिवर्तन का यह कालखंड लगभग ४००० से ५००० हजार वर्ष पूर्व का है। यह वही समय है जब भारतीयों ने बड़े पैमाने पर वहां जाना आरंभ किया था।’’
इससे एक और बात और अधिक स्पष्ट हो जाती है। प्रो. कूपर ने आगे कहा है कि भारतीय जब यहां आए तब एबॉरिजनल भाषा-समूह की एक भाषा का बड़ा विस्तार हुआ है। आस्ट्रेलिया में अन्य भाषाएं तो बहुत बाद में अर्थात आज से कोई पांच हजार वर्ष पूर्व आई हैं। यह किस तरह आई, उसने अन्य भाषाओं को किस तरह परास्त कर दिया, हम नहीं जानते। इस अवधि में आस्ट्रेलिया में भारतीय डिंगो दिखाई देने लगे थे। डिंगो भारतीय कुत्तों की एक जंगली नस्ल है।
न्यूजीलैण्ड की अधिकांश उर्वरा भूमि के स्वामी मावरी लोग हैं। उन्हें अपनी परम्पराओं के पालन की छूट है और समाज में उनका सम्मानजनक स्थान भी है। न्यूजीलैण्ड के प्रधानमंत्री सन २०१६ में अपने देश के प्रमुख उद्योगपतियों एवं व्यवसायियों के शिष्टमंडल के साथ भारत आए थे। शिष्टमंडल का मुंबई में स्थानीय चेम्बर ऑफ कॉमर्स में स्वागत किया गया, जिसमें भारत के एक उद्योगपति ने मावरी मुहावरे का इस्तेमाल किया और कहा कि भारतीय और मावरी संस्कृतियों में समानताओं के कारण उद्योग-व्यापार में आपसी सहयोग में हमें सहायता ही मिलेगी। इससे मेहमान शिष्टमंडल इतना प्रभावित हुआ कि शिष्टमंडल के एक सांसद प्रतिनिधि ने अपने प्रधानमंत्री से सांस्कृतिक आदान-प्रदान का आग्रह किया है।
शिष्टमंडल के मावरी सदस्य बहुत प्रभावित हुए और उनमें से कुछेक का प्रतिसाद उल्लेखनीय है। न्यूजीलैण्ड के प्रतिनिधि रशेल तौलेलेई ने कहा, ‘‘मेरी यह पहली (भारत) यात्रा थी, ऐसी किसी ने यह जानकारी भी नहीं दी थी। मैं एक विदेशी हमारा ‘व्हाकातौकी’ (मुहावरा व वाक्प्रचार के लिए मावरी शब्द) सुन कर चकित रह गया।
न्यूजीलैण्ड के प्रतिनिधि ट्रेसी हौपापा ने कहा, ‘‘भारतीय उद्योगपतियों एवं व्यवसायियों से बातचीत के दौरान सब से महत्वपूर्ण बात यह उभर कर सामने आई कि मावरी व भारतीय संस्कृतियों में सम्पर्क का धागा है और इसका बड़ा महत्व है। सब से अधिक महत्वपूर्ण बात यह होगी कि हमारी सरकार जनता से रिश्तों को ध्यान में रख कर व्यापार-व्यवसाय की बात करें।’’
सच पूछें तो सांस्कृतिक कूटनीति भारत के लिए द्विमार्गी बात होगी, क्योंकि पीढ़ियों से हम एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। यहां हम ऐतिहासिक उपलब्धियों की बात नहीं कर रहे हैं, जबकि यह दो समकालीन और जीवंत परम्पराओं के बीच का आदान-प्रदान है। इसमें और बहुत कुछ जोड़ा जा सकता है और मैं मावरियों के दक्षिण भारत से रिश्तों के विस्तार में जाना नहीं चाहता, क्योंकि यह बहुत बड़ा किस्सा है।
‘प्रथम सूर्योदय के देश’ जापान ने ई.स. ५५२ में ‘चंद्रमा के देश’ भारत के ज्ञान और करुणा के आधार पर चलना शुरू किया। चंद्रमा बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त होने का प्रतीक है। जापान में बुद्ध धर्म तब पहुंचा जब कोरियाई महाराजा ने संस्कृत सूत्र, मूर्तियां, बौद्ध गुरु, कर्मकाण्ड के साधन, चित्रकार एवं वास्तुशिल्पी वहां पहुंचाए ताकि धम्म की वहां स्थापना हो सके। उसके कुछ दशकों बाद महाराजाओं एवं आम जनता की भलाई के लिए कई बौद्ध मठों की स्थापना हुई। उनमें सब से उल्लेखनीय और अब तक मौजूद नारा का होरयूजी मठ है। जापानी भाषा में होरयूजी का अर्थ है- धर्म वर्धन महा विहार।
जापानियों की मान्यता है कि संस्कृत के मंत्र शुद्ध रूप से लिखे जाने चाहिए तथा उनका उच्चारण भी शुद्ध होना चाहिए। लामाओं को अभी भी इसकी शिक्षा दी जा रही है। समय के साथ जापानी लोग, संस्कृत में विश्व में सब से सुंदर लिखने वाले लोग बन गए। उनका मानना है कि कोई मंत्र या देवता का नाम लिखते समय आपकी सांस नहीं टूटनी चाहिए और ब्रश को भी दुबारा स्याही में डुबोना नहीं चाहिए। यदि ऐसा किया गया तो उसे ध्वस्त माना जाएगा। जिस तरह टूटी हुई मूर्ति की पूजा-अर्चना नहीं हो सकती, उसी तरह टूटे हुए मंत्र की शक्ति भी नष्ट हो जाती है।
जापान के शिंगोन मंदिर में ‘गोम’ नाम से अग्नि-प्रज्वलन की परम्परा है। ‘गोम’ भारतीय शब्द ‘होम’ या ‘हवन’ का ही प्रतिरूप है। शिंगोन पंथ के प्रमुख स्थान के रूप में पहाड़ी पर कोयासन नाम से शहर बसा है। उसे हम जापान की काशी, मथुरा-वृंदावन कह सकते हैं; क्योंकि वहां बहुत अधिक मंदिर स्थापित हैं। तड़के संस्कृत श्लोकों के उच्चारण और घंटियों के निनाद से सारा वातावरण गूंज उठता है।
पितरों के तर्पण के लिए लोग कोयासन जाते हैं। वे अपने पुरखों के नाम लकड़ी की पट्टी के एक ओर लिखते हैं, जबकि दूसरी ओर संस्कृत के मंत्र लिखे जाते हैं। यह पट्टी नदी के जल प्रवाह में छोड़ दी जाती है; ताकि उस पर लगातार पानी उलीचता रहे और पितरों का तर्पण लगातार होता रहे।
दक्षिण पूर्व एशिया या पूर्वी एशिया में लगभग हर दूसरे समाज की इसी तरह की परम्पराएं हैं। हर कोई अंगकोर वाट एवं बोरो बुदुर या योग्यकर्ता (जोगियाकर्ता) जैसे वियतनाम के बड़े-बड़े मंदिरों की बात करता है; जबकि वास्तव में दक्षिण पूर्व एशिया और भारत की समान परम्पराओं और समानताओं को हर क्षेत्र में अनुभव किया जा सकता है। इन अंतरप्रवाहों को समझने के लिए जरा सी बुद्धि और जरा से समय की ही जरूरत होगी।
यूनानियों ने भारत को हर प्रकार के ज्ञान और चिंतन की भूमि करार दिया है। उसकी जड़ों का पता लगाने के लिए उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया। जब विलियम जोन्स ने संस्कृत का अध्ययन किया तब उसने पाया कि यूरोपीय भाषाओं के साथ उसका साधर्म्य है। उसने लिखा, ‘‘संस्कृत कितनी भी प्राचीन हो लेकिन यूनानी भाषा से है बहुत सुंदर, अधिक सटीक, लैटिन से अधिक सम्पन्न और दोनों भाषाओं से अधिक शुद्ध; फिर भी दोनों में गजब का रिश्ता है, दोनों की क्रियाओं और व्याकरण में समानता है…।’’
इस यूरोपीय विद्वान ने पाया कि संस्कृत क्रियाओं के मूल स्वरूप, शब्दों के उपसर्गों एवं प्रत्ययों, शब्दों की निर्माण प्रक्रिया यूरोपीय भाषाओं के ढांचे के पत्थर हैं। इन भाषाओं की जड़ों का सोता लैटिन में बह निकला है और उसका रोमन साम्राज्य के दौरान हर यूरोपीय भाषाओं पर गहरा असर पड़ा है। संस्कृत शब्द-भंडार और व्याकरण को यूनानी भाषा ने आत्मसात कर लिया है।
यूरोप की बोली भाषाएं संस्कृत से ही उपजी हैं- अधिकांश समान शब्द हैं और शब्दों के अर्थ भी वही हैं। शब्दों के साथ जोड़े जाने वाले उपसर्गों का उपयोग संस्कृत के समान ही है और उनका यूरोपीय भाषाओं में आने से भावनाओं को सही अर्थों में व्यक्त करना संभव हुआ है। सभी यूरोपीयाई भाषाओं में लिथुआनियाई भाषा यूरोप की सब से प्राचीन भाषा मानी जाती है और वह संस्कृत से बहुत निकट है। यूनानी, लैटिन, पर्शियन आदि भाषाओं में संस्कृत के जो शब्द हैं वे बहुतायत में अंग्रेजी के मूल शब्द बन गए हैं।
यूरोप की पागान परम्परा को मानने वाले सोचते हैं दीर्घ और गहन समय अब खत्म हो चुका है। उनका दावा है कि वे अब हिंदू धर्म से करीबी रखने वाली अपनी परम्पराओं का अनुपालन कर सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक अध्ययन केंद्र द्वारा भारत में आयोजित सम्मेलनों में आने वाले लिथुआनिया, लातिविया, एस्तोनिया जैसे बाल्टिक देश मानते हैं कि वे यूरोप के वैदिक ब्राह्मण हैं। उनकी पूजा पद्धतियां अलग हैं और वे छोटे पैमाने पर क्यों न हो परंतु हवनादि करते हैं।
पागानी लोग हिंदुओं जैसे ही देवियों की पूजा करते हैं। उनमें दुर्गा एवं लक्ष्मी जैसी देवियां हैं। हंगरी से आए एक प्रतिनिधि को अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक अध्ययन केंद्र द्वारा २००९ में आयोजित सम्मेलन के दौरान एक प्रमुख आयोजक मेजर सुरेंद्र नाथ माथुर नागपुर के एक देवी मंदिर में ले गए। हंगरी के पागान प्रतिनिधि ने फौरन कहा कि वे भी आठ हाथों वाली इसी तरह की एक देवी की पूजा करते हैं। हिंदू संस्कृति के यूरोप से सम्बंधों के बारे में अब बहुत विवाद की गुंजाईश नहीं है; क्योंकि ईसाइयत के दबाव में कमी के साथ ऐसे अन्य कई प्रमाण अब सामने आ रहे हैं। ईसाइयत के जमाने में यूरोप में सदियों तक हर तरह के अधिकारों का दमन किया गया था।
पागान परम्परा एवं हिंदू परम्परा में कई साम्य हैं और तीन तो ऐसी हैं कि उन्हें जुदा किया ही नहीं जा सकता। पहली है पुरुष देवों के साथ स्त्री-शक्ति अर्थात देवी की उपासना; दूसरी है विविध देवों की उपासना अर्थात ईश्वर के विभिन्न रूपों की अर्चना; तथा तीसरी है प्रकृति की उपासना, जो पूरी मानवजाति में एकात्मता स्थापित करती है। इन सभी परम्पराओं पर हिंदू अथवा भारतीय संस्कृति की गहरी छाप है।
भौगोलिक रूप से दूर होते हुए भी मध्य अमेरिका में हिंदू धर्म के अस्तित्व और प्रभाव के भरपूर प्रमाण मौजूद हैं। भिक्खू चमन लाल ने मेक्सिको, ग्वाटेमाला तथा अन्य देशों के साथ उस क्षेत्र की भरपूर यात्रा की है और वहां उन्होंने भारत जैसे मंदिर बहुतायत में देखे हैं। उनकी पुस्तक ‘हिंदू अमेरिका’ में भारत और अमेरिकी खंडों के सांस्कृतिक जुड़ाव का विस्तार से वर्णन है।
मैं यहां १९४८ में अमेरिका के चार्ज-डि-अफेअर्स रहे इफ्रेइम जॉर्ज स्न्वीयर के कथन को उद्धृत करना चाहूंगा। वे कहते हैं, ‘‘इन भवनों पर सही तौर पर गौर करें तो पता चलेगा कि उनके आंतरिक और बाह्य स्वरूप में स्पष्टता है और ये इमारतें- पालेंक्यू, मेक्सिको के मंदिर- हिंदुओं के मंदिरों से हूबहू समानता रखते हैं…।’’ भारत और मेक्सिको या मध्य अमेरिका के बीच रिश्तें कई रूपों में स्पष्टता से सामने आते हैं।
इसी तरह माया और हिंदू भाषाओं में गजब की समानता है। माया के एक प्रमुख विद्धान का कहना है कि, ‘‘पालेंक्यू (मेक्सिको) जिले के चियापा कबीले की परम्पराओं की गहराई का रहस्य खुलता जा रहा है… उनकी लिखावट, उनका मानववंश, उनके अलंकारों… उनकी भवन निर्माण की पद्धतियों से उनकी प्राचीनता का स्पष्ट संकेत मिलता है… वे सभी भारतीय और प्राचीन भाषा बोलते हैं। भारत और अमेरिका की संस्कृतियों के मेलजोल का इससे बढ़िया उदाहरण और क्या हो सकता है? मेक्सिको की पौराणिक कथाएं हिंदुओं के पुराणों से मिलती-जुलती हैं।
इस तरह का लेख लिखना एक चुनौती ही है और मुझे लगता है कि मैं केवल विहंगावलोकन ही पेश कर पाऊंगा; क्योंकि सहस्राब्दियों पुरानी संस्कृति को कुछ पन्नों में समेटना मुश्किल है। फिर भी मैंने कुछ अनछुए पहलुओं को छूने की कोशिश की है। यह केवल प्रातिनिधिक है और उन सभी को वर्तमान से जोड़ कर देखना संभव है। मैं इस बात से सहमत हूं कि मानवी इतिहास के दिन-ब-दिन सामने आने वाले ठोस प्रमाणों के आधार पर एक बड़ा ग्रंथ लिखा जा सकता है। संस्कृति की यह कहानी हरेक को प्रेरणा ही देगी।
आधुनिक भारतीय पीढ़ी के समक्ष पूर्व की पीढ़ियों की तुलना में चुनौतियां अलग हैं। क्या आधुनिक भारत की युवा पीढ़ी विश्व भर में फैली अपनी संस्कृति से जुड़ना चाहती है? भारतीयों ने युगों से जो सांस्कृतिक मित्रता विश्व में कायम की है उसे पुनर्जीवित करने की शेष विश्व प्रतीक्षा कर रहा है। मेरे युवा दोस्तों, चुनना आपको ही है।
भिक्खू चमन लाल ने जिस तरह आनी पुस्तक का नाम ‘इंडिया मदर ऑफ अस ऑल’ (भारत हम सब की माता) दिया है, उसी तरह भारतीय संस्कृति का चहुंओर फैलाव हो तो विश्व उसका स्वागत ही करेगा और इस संस्कृति को पूर्व की तरह ही गले लगा लेगा। भारतीय संस्कृति ऐसी है कि सारे विश्व में ममत्व की स्थापना करेगी।

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