वैश्विक आतंकवाद – जड़ें काटी जाएं, पत्ते नहीं

वाद कोई भी हो, दुनिया को लाल या हरे रंग में रंगने के पीछे के पागलपन और स्वार्थों को निशाने पर लेना होगा। और कोई राह नहीं है। आवश्यकता है कि जड़ें काटी जाएं, सिर्फ पत्ते काटते जाने से कुछ नहीं होगा। …जो इसे समझ रहे हैं, जो जाग रहे हैं उनकी ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी है।
आतंकवाद की शुरुआत कहां से हुई कहना मुश्किल है। क्या इसकी शुरुआत ईसाई और मुस्लिम सत्ताओं के बीच एक हज़ार साल तक लड़े गए क्रूसेडों से मानी जाए, जब एक-दूसरे के शहर के शहर और गांव के गांव आग में भून डाले गए? या इसकी शुरुआत चंगेज़ खान, गोरी और गजनवी जैसों के हत्यारे लश्करों से मानी जाए, जिन्होंने लाशों के पहाड़ खड़े किए? या फिर अमेरिका के मूल निवासी रेड इंडियंस अथवा ऑस्ट्रेलिया न्यूज़ीलैंड के करोड़ों मूल निवासियों के विरुद्ध यूरोपीय मिशनरियों तथा क्रूर उपनिवेशकों द्वारा किए गए नरसंहारों को इनका उद्गम माना जाए? रूस की बोल्शेविक क्रांति, नाजी जर्मनी और माओत्से तुंग की विरासत सब के सब खून के सागर में उतरा रहे हैं। पिछली सदी की शुरुआत में ही तत्कालीन खिलाफत (तुर्की का ओटोमन साम्राज्य) ने १५ लाख आर्मेनियन ईसाई बच्चों, महिलाओं और पुरुषों को मौत के घाट उतारा था (ये वही खिलाफत थी जिसकी बहाली के लिए भारत में खिलाफत आंदोलन चलाया गया था)। सूची अंतहीन है। आधुनिक समय के आतंकवाद की बात करें तो मुख्यतः दो धड़े दिखाई देते हैं- वैश्विक जिहादी आतंकवाद और वामपंथी उग्रवाद। इसकी त्रासदियां मानवता को साल रही हैं। और भारत तो दोनों प्रकार के आतंकवाद से लड़ रहा है।
जिहादी आतंक की वैश्विक दस्तक
जिहादी आतंकवाद आज धरती के सभी महाद्वीपों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। इसकी व्यापकता से दुनिया सांसत में है। मुख्यतः, अफ्रीका में मिस्र, अल्जीरिया, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और सोमालिया, एशिया में भारत, बांग्लादेश, नेपाल, बर्मा, चीन का सिक्यांग प्रांत, कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, इंडोनेशिया, फिलीपींस, थाईलैंड, रूस, तुर्की, ईराक, सीरिया, कुवैत, लेबनान, यमन और अरब जगत, यूरोप में ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, बेल्जियम और बाल्कन प्रदेश, उत्तरी अमेरिका में संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अमेरिका में अर्जेंटीना और ऑस्ट्रेलिया इन सब पर जिहादी आतंकी हमले हो चुके हैं। इसके वर्तमान स्वरूप की शुरुआत फिलिस्तीन के अतिवादी संगठन पीएलओ से कही जा सकती है। जिसने साठ के दशक में आत्मघाती बम धमाकों का सिलसिला प्रारंभ किया। वह शीत युद्ध के चरम का दौर था इसलिए दुनिया में दो ध्रुवों की प्रतिस्पर्धा को लेकर सनसनी व्याप्त थी और ये हमले चर्चा के बड़े विषय न बन सके। इसका दूसरा वृहद् अध्याय अफगानिस्तान में लिखा गया जब वहां पर रूसियों और कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ लड़ रहे अफगान मुजाहिदीनों के पास पाकिस्तान की बदनाम आईएसआई के लोग हथियार और सहायता लेकर पहुंचने लगे। लक्ष्य था इस जिहाद की कमान को धीरे-धीरे हाथ में लेकर अफगानिस्तान को पाकिस्तान का उपनिवेश और उसके अपने आतंकियों के प्रशिक्षण केंद्र और रहवास के रूप में विकसित करना। फिर, रूस को पश्चिम एशिया के तेल भंडारों की ओर सरकता देख चिंतित अमेरिका ने सऊदी अरब और दूसरे अरब देशों को साथ करके वहां ख़ुफ़िया कार्रवाई शुरू की। अरब का पैसा, अमेरिका की शस्त्र आपूर्ति और आईएसआई के गुर्गों की मदद से रूसियों को वापस लौटने पर मजबूर कर दिया गया। अमेरिकी भी लौट गए। लेकिन पाकिस्तानियों और अरब सत्ताओं के मुंह खून लग चुका था। दुनिया में जिहादी आतंक के माध्यम से अपनी ताकत बढ़ा कर विश्व की शक्तियों से मोलभाव करने को इच्छुक पाकिस्तानी फौज और अरब जगत की शिया-सुन्नी प्रतिस्पर्धा ने पाकिस्तान से लेकर स्वेज नहर तक जिहादी आतंक के लिए उर्वरा जमीन तैयार कर दी।
आतंक की राज्य नीति
अपने-अपने स्वार्थों के कारण अनेक मुस्लिम देश जिहादियों का उत्पादन और निर्यात कर रहे हैं। सब से ज्यादा पेचीदा है अरब जगत की राजनीति। इसका ताज़ा उदाहरण है बहुचर्चित इस्लामी नाटो का ऐलान। जिसे शिया विरोधी सुन्नी नाटो कहना ज्यादा ठीक होगा। सब एक दूसरे के लिए खाई खोदने में लगे हैं। लड़ाई के मोर्चे का दृश्य इस प्रकार है। मुस्लिम नाटो का नेता सऊदी अरब इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ने को प्रतिबद्ध है; लेकिन इस्लामिक स्टेट से खूनी जंग लड़ रहे सीरिया के बशर-अल-असद को भी मिटाना चाहता है। मुस्लिम नाटो का दूसरा शक्तिशाली देश तुर्की अब बगदादी के खिलाफ लड़ने की कसमें खा रहा है; लेकिन बगदादी के खिलाफ बहादुरी से लड़ रहे पेशमार्गा लड़ाकों को नेस्तनाबूत करने पर तुला हुआ है। ईरान, सऊदी अरब इराक की जमीन पर इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ते दिखते हैं, जबकि यमन में एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं। अरब जगत इस्लामिक स्टेट के विरूद्ध है लेकिन इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ रहे दूसरे खतरनाक सुन्नी आतंकियों को पैसा और हथियार मुहैया करवा रहा है। ईरान शिया आतंकी गुट हिजबुल्ला को पाल-पोस रहा है। रूस सभी सुन्नी गुटों पर कार्रवाई करना चाहता है। अमेरिका हिजबुल्ला को काबू में करना चाहता है। इस्लामिक स्टेट यदि समाप्त भी हो गया तो ये दुश्मनी नए बगदादी खड़े करने में कितनी देर लगाएगे? फिर, आपसी झगड़ों के अलावा, अफ्रीका से लेकर दक्षिण पूर्व एशिया तक लगी हुई इस्लामी आतंकवाद की आग के पीछे अरब का ही तेल है।
आतंक का सब से बड़ा कारखाना है पाकिस्तान। पाकिस्तान आतंक का निर्यात सिर्फ भारत में ही नहीं कर रहा है, बांग्लादेश, फिलीपींस से लेकर चेचेन्या तक आईएसआई के तार जुड़े हैं। अफगानिस्तान की पूरी की पूरी आग रावलपिंडी से आ रहे बारूद के दम पर सुलग रही है। विश्व राजनीति को बदल देने वाले ९/११ के हमले के बाद अफगानिस्तान के तालिबानी ठिकानों पर अमेरिकी सेनाएं हमला कर रही थीं तब पाकिस्तानी सेना के विमान तालिबानियों को चुपचाप पेशावर पहुंचा रहे थे। इसमें प्रमुखता दी जा रही थी हक्कानी गिरोह को, जिसने हाल ही में अफगानिस्तान में हमले किए हैं। इस धोखेबाज़ी के लिए सालों-साल दुनिया पाकिस्तान पर उंगली उठाती रही, पाकिस्तान इंकार करता रहा, हक्कानी, तालिबानियों और अल क़ायदा को पालता भी रहा। अमेरिकी अफगानिस्तान में चल रही लड़ाई को लंबा नहीं खींचना चाहते, इसलिए पाकिस्तान की नस-नस जानने के बावजूद उसे दबा कर या कुछ टुकड़े फेंक कर अपना काम निकालने की कोशिश कर रहे हैं। ये मृगमरीचिका जब तक नहीं टूटेगी, अफगानिस्तान तपता रहेगा।
मूल में है विचार
इस्लामिक जिहाद न तो राजनैतिक समस्या है न ही भौगोलिक अथवा आर्थिक। इसकी जड़ में विचार और मान्यताओं की खाद है। इस समस्या पर सीधी चर्चा करने के स्थान पर गोल-मोल बातें करना, टालमटोल करना, बहाने बनाना और बहाने उपलब्ध करवाना (जो वामपंथी/तथाकथित सेक्युलर और प्रगतिशील बुद्धिजीविता का पसंदीदा शगल है) समस्या को और गंभीर बनाता जा रहा है।
कुछ सामान्य बहाने इस प्रकार हैं -‘ये तो पश्चिम की तेल की राजनीति है, मुसलमानों को आपस में लड़वाया जा रहा है। अमेरिका ने ही तो अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट को खड़ा किया है’ आदि। आधा सच पूरे झूठ से भी ज्यादा घातक होता है क्योंकि वह आपको हमेशा वास्तविकता से दूर रखता है और आप भ्रमित रहते हैं कि आपको पूरा सत्य पता है।
पश्चिमी देश तेल की राजनीति कर रहे हैं तो क्या ‘ओपेक देश’ तेल की राजनीति नहीं करते? क्या चीन, रूस और ईरान तेल के खेल में नहीं उलझे हैं? अमेरिका अकेले ने अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट को खड़ा नहीं किया। सऊदी अरब, क़तर, कुवैत और पाकिस्तान जैसे मुस्लिम देशों ने इसमें बराबर की भूमिका निभाई है। जब ये जिहादी संगठन हाथ के बाहर चले गए तो अमेरिका और पश्चिम ने इनके समर्थन से अपना हाथ पीछे खींच लिया। अमेरिका १५ सालों से तालिबान और अलकायदा से लड़ रहा है। ़फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन आदि इस्लामिक स्टेट पर हमले कर रहे हैं, लेकिन सऊदी अरब, क़तर, तुर्की, पाकिस्तान आज भी इस्लामिक स्टेट या इसके जैसे दूसरे सुन्नी जिहादी संगठनों की हर प्रकार से सहायता कर रहे हैं।
रही बात मुसलमानों को आपस में लड़वाने की तो इस्लाम के विभिन्न सम्प्रदायों में १४०० सालों से खूनी संघर्ष चल रहा है। तब न तो अमेरिका था, न सीआईए। फिर क्या पाकिस्तान सहित सुन्नी बहुल अरब देश और ईरान इतने भोले हैं कि अमेरिका के बहकावे में आ कर क्रमशः शियाओं और सुन्नियों की हत्या के लिए हर साल अरबों डॉलर खर्च कर रहे हैं? दुनिया भर के मुसलमानों को नफरत की आग में झोंकने वाले अरब देश पश्चिमी समाज के ईसाइयों को या भारत के हिंदुओं को आपस में क्यों नहीं लड़वा पा रहे हैं? उनके निशाने पर भी तो इन समाजों के मुस्लिम ही हैं। एक और विचित्र तर्क चल रहा है कि श्रीलंका का बौद्ध-मुस्लिम संघर्ष या बर्मा में रोहिंग्या समस्या बौद्ध समाज द्वारा की जा रही मजहबी हिंसा का उदाहरण है। ये एक भ्रामक बयान है। ये दोनों समस्याएं नस्लीय संघर्ष की समस्याएं हैं और श्रीलंका और बर्मा के बौद्धों का स्थानीय हिंदुओं अथवा ईसाइयों से कोई संघर्ष नहीं है, जबकि इस्लामिक कट्टरपंथी हरेक के खिलाफ हैं- ईसाई, हिंदू, बौद्ध, यहूदी, यज़ीदी, शिया-सबके। सबकी गर्दनें रेती गई हैं।
आम तौर पर कट्टरपंथी इस्लाम से निपटने के नाम पर ‘इस्लाम भाईचारा सिखाता है’, ‘इस्लाम शांति सिखाता है…’ जैसी बयानबाज़ी करके इतिश्री की जाती है। लेकिन सवाल तो उन लोगों का है जो ये ‘शांति और भाईचारा’ समझ नहीं पा रहे हैं और ‘काफिरों’ को जहन्नुम भेजने के लिए प्रतिबद्ध हैं। सवाल इस सोच से लड़ने का है। ये भ्रम भी अब टूट चुका है कि चरमपंथी सोच रखने वालों की संख्या नगण्य है। निरंतर सामने आ रहे सर्वेक्षण बता रहे है कि इस्लामिक स्टेट और ओसामा बिन लादेन से सहानुभूति रखने वालों का प्रतिशत कतई नगण्य नहीं है।
प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा किए गए एक सर्वे में यूरोपियन मुस्लिमों से सवाल पूछा गया था कि क्या इस्लाम की रक्षा के नाम पर नागरिकों पर किए जा रहे आत्मघाती तथा दूसरे जिहादी हमलों को उचित ठहराया जा सकता है? फ्रांस में ३६ प्रतिशत मुस्लिमों ने कहा कि ये हमले जायज़ हो सकते हैं। इसी प्रकार ब्रिटेन में ३० प्रतिशत, जर्मनी में १७ प्रतिशत और स्पेन में ३१ प्रतिशत मुस्लिमों ने इन हमलों को इस्लाम संगत बताया।
इसी प्रकार समय-समय पर हुए अनेक सर्वेक्षणों में कई प्रकार के सवाल पूछे गए जैसे कि क्या गैर मुस्लिम देशों में भी शरिया क़ानून लागू होना चाहिए अथवा क्या इस्लाम छोड़ने वाले को मौत की सजा दी जानी चाहिए, आदि। और सभी सर्वेक्षणों में इसी प्रकार के चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। निश्चित रूप से सभी मुस्लिम आतंकवाद का समर्थन नहीं करते, लेकिन कट्टरपंथियों की अच्छी खासी संख्या है इस पर कोई शक करने की गुंजाइश नहीं है।
जब तक सारी दुनिया के मुस्लिम विद्वान एकजुट हो कर यह घोषणा नहीं करते और मुस्लिमों में यह समझ पैदा नहीं करते कि इक्कीसवीं सदी में हथियारों द्वारा किया गया जिहाद अप्रासंगिक हो गया है, इस्लाम को न मानने से कोई काफ़िर नहीं हो जाता, इस्लाम का पालन न करने से कोई मुसलमान ‘वाजिबुल-क़त्ल’ (हत्या करने योग्य) नहीं हो जाता और किसी भी कीमत पर, किसी भी परिस्थिति में कानून हाथ में नहीं लिया जा सकता; तब तक ये खूनखराबा रुक नहीं सकता और नफरत की आग शांत नहीं हो सकती। साथ ही दुनिया भर के लोकतांत्रिक और जिम्मेद्दार देशों के राष्ट्राध्यक्षों को भी समझना होगा कि अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद, अच्छा कट्टरपंथी और बुरा कट्टरपंथी, मेरा आतंकवाद और तुम्हारा आतंकवाद जैसी कोई चीज़ नहीं होती और दुनिया में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सर्वमान्य जीवन मूल्यों का पालन करना और करवाना प्रत्येक व्यक्ति और समूह की ज़िम्मेदारी है। जिसे सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
धरती को लाल करता लाल आतंक
जिहादी आतंकी कहता है कि इस्लाम स्वीकार करो या मरो। वामपंथी उग्रवाद कहता है कि वामपंथ और उसकी तानाशाही स्वीकार करो या मरो। लेनिन के सिद्धांतों का व्यावहारिक प्रयोग, माओ की क्रांति, स्तालिन का खौफ, पोलपोट का खमेररूज़, ये कम्युनिस्ट क्रांति की रक्तरंजित उपलब्धियां रही हैं जो करोड़ों जिंदगियों को लील गईं। माओ ने कहा था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। इन्ही आदर्शों और उदाहरणों को सामने रख कर कम्युनिस्ट आतंकियों ने धरती पर तबाही का खेल खेला है। कोलंबिया की एफएआरसी ने मानवाधिकारों के हनन की सारी नजीरें पेश की हैं, तो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ पेरू के सीने पर तीस हज़ार लाशों के तमगे लटक रहे हैं। लाल सलाम के शोर में दस हज़ार लाशों के खौफ के नीचे नेपाल की आवाज़ ने किस तरह दम तोड़ा ये दो दशक पहले सारी दुनिया ने देखा। भारत में नक्सली हिंसा पिछले पांच दशकों में हज़ारों जानें ले चुकी है।
दुनिया के किसी भी हिस्से में लाल क्रांति ने अपने सैद्धांतिक स्वर्गलोक को साकार करके नहीं दिखाया, बल्कि तानाशाही, शोषण और भीषणतम हत्याकांडों से दुनिया को दहलाया है। कम्युनिज्म के प्रवर्तक ने भविष्यवाणी की थी कि कम्युनिज्म यूरोप के औद्योगिक जगत के मजदूरों से शुरू होकर सारी दुनिया में फैल जाएगा, लेकिन हुआ ठीक उलटा। कम्युनिज्म विकसित यूरोप में कभी पैर नहीं जमा पाया। उसने जड़ें पकड़ी वहां जहां विकास नहीं पहुंचा। जहां लोगों के पास खोने को कुछ भी नहीं था। और इसलिए माओवादी सड़कों और पुलों को तोड़ते, विद्यालयों को आग लगाते और मोबाइल व इंटरनेट टावर ध्वस्त करते नज़र आते हैं। इसीलिए झूठ और आतंक की ये दुकान अब घाटे में जा रही है क्योंकि दूरदराज के इलाकों में विकास की भूख पैदा हो रही है। यही लाल आतंक के अवश्यंभावी खात्मे के संकेत हैं।
एक बेहतर विश्व का सपना
सच और संवेदना यही उम्मीद की किरण हो सकती है। दोगली बातों और छिपे इरादों ने परिस्थिति को उलझा कर रखा है। उदाहरण के लिए मदीना पर हुए हमले के बाद सउदी सुल्तान ने ‘मज़हबी कट्टरता’ के खिलाफ लड़ने की कसम खाई। बोले कि हम उन लोगों पर फौलादी मुक्के बरसाएंगे जो हमारे युवाओं के दिल-दिमाग पर निशाना साध रहे हैं्। सुनने-सुनाने के लिए ये सीधी बात है लेकिन सुल्तान के सउदी अरब में १४ साल के बच्चों के लिए जो सरकारी पाठ्यक्रम की किताब है उसमे मौजूद एक हदीस की बानगी देखिए- ‘‘फैसले का दिन (कयामत का दिन) तब तक नहीं आएगा जब तक मुसलमान यहूदियों से लड़ेंगे नहीं और यहूदियों को कत्ल नहीं करेंगे। और जब यहूदी किसी पेड़ या पत्थर के पीछे छिप जाएगा तो वो पेड़ या पत्थर चीख उठेगा कि ‘‘ओ मुस्लिम! ओ अल्लाह के गुलाम! मेरे पीछे एक यहूदी छिपा है। आओ और इसे कत्ल कर दो। केवल वही पेड़ चुप रहेगा जो यहूदी पेड़ होगा। वाद कोई भी हो, दुनिया को लाल या हरे रंग में रंगने के पीछे के पागलपन और स्वार्थों को निशाने पर लेना होगा। और कोई राह नहीं है। आवश्यकता है कि जड़ें काटी जाएं, सिर्फ पत्ते नहीं।
बातें साफ हैं। हल सादा है। और रास्ता सीधा है। धुंधली है देखने वालों की नज़र और चक्करदार है सोच। जो समझ रहे हैं, जो जाग रहे हैं उनकी ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी है।

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