भगवद्गीता सबके लिए

गीता मनुष्यमात्र को आतंकवाद, भोगवाद, पर्यावरण ह्रास, बैरभाव, ईर्ष्या आदि से बचा सकती है। संप्रदाय निरपेक्ष शाश्वत सिद्धांतों को मानव धर्म के तौर पर सिखा सकती है। आने वाले समय मेंं विश्व भगवद्गीता को मानवता की विवेक ग्रंथ के रूप में स्वीकार कर लें तो आश्चर्य की बात नहीं होगी।
कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में भयभीत एवं हताश हुए अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता सुनाई। महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत महाकाव्य का गीता एक हिस्सा है। ‘अर्जुन को युद्ध करने हेतु प्रेरित करना’- यही कृष्ण का उद्देश्य था… पर अर्जुन सवाल पर सवाल पूछते गए और इसी बहाने संसार के अद्भुत सत्य श्रीकृष्ण की वाणी से प्रस्फुरित हुए। अंग्रेज शासन के दरमियान चाफेकर बंधुओं से लेकर मदनलाल धींगरा तक सारे क्रांतिकारियों की प्रेरणा भगवद्गीता रही है। महात्मा गांधी ने भी गीता को ही अपनी प्रेरणा बताया है। जीवन के जटिल प्रश्नों के उत्तर वे गीता में खोजते थे। भारतीय न्यायालय में साक्षीदार हिन्दू हो; तो गीता पर हाथ रख कर सच बोलने की कसमें खाता है। भारत के वर्तमान प्रधान मंत्री भगवद्गीता की पुस्तक विदेशी राजनीतिज्ञों को भेंट- स्वरूप देते हैं। भगवद्गीता मानो भारत का तत्वज्ञान है, भारत का व्यक्तित्व है। भारतीयता का हस्ताक्षर ही है।
मूल गीता संस्कृत में है पर उसका हर भारतीय भाषाओं में अर्थानुवाद उपलब्ध है। अनेक विद्वान तत्वचिंतक एवं संतपुरुषों ने भगवद्गीता पर विवेचन किया है। अत: गीता आधारित साहित्य हर भाषा में उपलब्ध है।
भगवद्गीता-सबके लिए
‘गीता तो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए प्रवृत्त करने हेतु सुनाई थी। मुझे तो कहीं युद्ध करना नहीं है। मैं सैनिक नहीं हूं। मैं योगी भी नहीं हूं तो फिर मुझे गीता से क्या लेना देना है’ यह सवाल सामान्य व्यक्ति के मन में उठ सकता है।
सामान्य व्यक्ति को लगता है कि गीता विद्वानों का विषय है। मैं तो आम आदमी हूं। मेरे मन में गीता के बारे में अत्यधिक श्रद्धा है, क्योंकि वह साक्षात पूर्णावतार श्रीकृष्ण के श्रीमुख से प्रस्फुटित हुई है। मैं गीता पर फूल चढ़ा दूंगा। माथा टेक दूंगा। पर इससे ज्यादा नहीं। बहुत हुआ तो एक दो श्लोक रट लूंगा ताकि थोड़ा पुण्य हो जाए।
पर वास्तव में अर्जुन तो एक बहाना है। भगवान ने गीता तो मानवधर्म के सार के स्वरूप में ही समझाई है। गीता में कहीं भी हिंदू शब्द का उल्लेख नहीं। कृष्ण केवल हिंदुओं के नाम नहीं हैं, वे तो जगन्नाथ हैं। इसलिए गीता भी सभी मानवों के लिए मार्गदर्शक ग्रंथ है। गीता यानी व्यवहार-ज्ञान है। गीता मानसशास्त्र भी है और समाजशास्त्र भी। गीता वैज्ञानिक दृष्टिकाण भी देती है और आस्तिकता के लिए नींव भी बनाती है।
व्यक्ति-विद्यार्थी हो या गृहस्थ, व्यवसायी हो या उद्योगपति, समाजसेवक हो या राजनेता, गृहिणी हो या प्रशासकीय अधिकारी; सभी को अपने जीवन में हर कदम पर फैसले करने होते हैं। अनेक बार किसी बात को करे या न करें, क्यों करें और कितना करें…. इस प्रकार की दुविधा की स्थिति होती है। गीता ऐसे समय एक व्यवहारिक ‘हैंड-बुक’ (तैयार मार्गदर्शक) का कार्य करती है।
आइये समाज की विभिन्न श्रेणियों के विषय में गीता क्या कहती है; यह एक के पश्चात एक देखते हैं।
विद्यार्थी (व्यक्ति विकास)
साधारण विद्यार्थी गीता को धर्म पुस्तक के रूप में देखता है। उसे लगता है कि ये आध्यात्मिक पुस्तक तो निवृत्ति के बाद पढ़ने जैसी है। पर विद्यार्थी अगर युवावस्था से गीता पढ़ना शुरू कर दें- तो जब जिंदगी उगते हुए सूर्य की तरह है- तभी से गीता के सिद्धांतों को जीवन में सही ढंग से उतार सकेगा।
विद्यार्थी को गीता विनम्रता सिखाती है, गीता कहती है कि प्रणिपात-परिप्रश्न और गुरुजनों की सेवा करने से वे ज्ञानी हमें ज्ञान देंगे; विद्या ग्रहण करने वाला अगर कृतज्ञता भाव से परिपूर्ण हो तो विद्यार्जन परिणामकारी हो सकता है। उग्र, उद्दंड और अभिमानी व्यक्ति ग्रहणशील नहीं बन सकता।
विद्यार्थी अवस्था शरीर साधना की भी कालावधि है। शरीर को खेत की उपमा देकर कृष्ण समझाते हैं कि खेत में जैसे अच्छे बीज बोने पर और अनावश्यक तृण निकालने पर अच्छी फसल पायी जा सकती है। वैसे ही युवावस्था में शरीर स्वास्थ्य की पूंजी कमा लेने से जिंदगी भर का सुख पाया जा सकता है।
सात्विक सुख की व्याख्या करते हुए गीता कहती है कि जो शुरुआत में जहर की तरह कड़ुआ है मगर परिणामत: अमृत की तरह है… वही सात्विक सुख है। आज के विद्यार्थी को आलस बिस्तर त्याग कर सूर्योदय के पूर्व उठना, कसरत करना, बिना अपनी जगह से हिले दो-तीन घंटों तक अध्ययन करना, यह बड़ा तकलीफ वाला लगता है। पर इसी के फलस्वरूप उसका उज्ज्वल भविष्य संभव है। यह गीता पढ़ने पर उसे ध्यान में आता है, जो मुझे भाता है (सुरुचि) उसे करने के बजाय जो मेरे लिए योग्य है (सुनीति) उसे मैं करूं… यह विद्यार्थी का मानस गीता पढ़ने से तैयार होता है।
गृहस्थ (तनाव-व्यवस्थापन)
जीवन के सभी आश्रमों का पोषण करने वाला गृहस्थाश्रम है। आजकल स्पर्धा के कारण, संवाद की कमी के कारण एवं जीवन संघर्ष के कारण तनाव बढ़ गया है। नींद न आना, रक्तचाप बढ़ना…. ये आम तकलीफें हो गई हैं। गीता का कर्मयोग तनाव व्यवस्थापन (स्ट्रेस मैनेजमेंट) की भूमिका बनाता है।
पश्चिमी जीवनशैली का अनुसरण करने वाली व्यवस्था आदमी की लालसा बढ़ाती है। ‘टार्गेट’ रख कर कार्य करने को उकसाती है। इससे सफल होने पर अहंकार का बढ़ना, एवं निष्फल होने पर हताशा का बढ़ना; इन दोनों गलत परिणामों का शिकार मनुष्य बनता है।
गीता का कर्मयोग अनासक्त भाव से कर्म करना सिखाता है। इससे अहंकार एवं हताशा दोनों से बचा जा सकता है। ‘गहना कर्मणो गति;’ ऐसे कह कर गीता कर्म का मूल्यांकन उसके उद्देश्य पर से करना सिखाती है। इससे व्यक्ति की समझदारी बढ़ती है। उसकी उत्तेजना कम होती है। सामान्य व्यवहार सूझ-बूझ वाले होते हैं।
गृहस्थ जीवन का प्रारंभ उत्कटता से होता है। पर वह समझदारी के बल पर ही टिक पाता है। गीता का कर्मयोग मनुष्य के स्वभाव को संतुलित बनाता है। अत: हर गृहस्थ को गीता का नित्य अध्ययन करना चाहिये।
गृहिणी (ज्ञान-कर्म-भक्ति)
घर के कामकाज में इन तीनों का समन्वय करना गीता सिखाती है। रोज की रसोई बनाने का ही काम लें…. चावल धोना, सब्जी काटना, आटा गूंथना सारे काम स्त्री कुशलता से करती है। कूकर चूल्हे पर चढ़ा कर बाद में सब्जी काटनी है, ताकि कुकर में खाना पकते-पकते आगे की तैयारी भी पूर्ण हो जाए।
कर्म करते-करते यदि नमक-मिर्च कितना डालना, छौंक कितनी लगाना.. खाना स्वादिष्ट कैसे बनेगा इत्यादि का भी ज्ञान हो जाए तोे वह अधिक अच्छा काम कर सकती है।
इसमें भी अपने प्रियजनों को भोजन कराने का भाव मन में होने के कारण उस भोजन में ‘भक्तिरस’ अधिक हो जाता है। भगवान को भोग चढ़ा कर खाना परोसने से भोजन प्रसाद बन जाता है।
स्त्री स्वभाव चंचल होता है। छोटी-छोटी बातें उसे अस्वस्थ करती हैं। गीता कहती है कि धीरे-धीरे अभ्यास कर के और श्रद्धा के आधार पर ईश्वर पर सारी चिंता छोड़ कर मन को शांत किया जा सकता है। जो भगवान द्रौपदी के लिए वस्त्रहरण के समय दौड़ आए और उसे बेआबरु होने से बचा लिया वे अगर मेरे रक्षक हैं तो फिर मुझे चिंता किस बात की, ऐसी भूमिका बन सकती है। ‘जो अनन्य भाव से मेरी भक्ति करेंगे उनके ‘योगक्षेम’ की मैं चिंता वहन करूंगा’ ऐसा आश्वासन गीता ने दिया ही है।
घर में ईश्वर भक्ति का दीपक घर की गृहलक्ष्मी के हाथ में होता है, गृहणी गीता पाठ करें तो घर का वातावरण भक्तिमय हो जाएगा।
व्यवसायी (ज्ञानसाधना+कौशल्यसाधना)
व्यवसाय करने वाला व्यक्ति साहसिक होता है। आजकल स्पर्धा के कारण नई-नई तकनीक विकसित हो रही है। इंटरनेट के आधार पर मार्केटिंग के नए आयाम प्रस्तुत हो रहे हैं। हर दो महीने में मोबाइल फोन की नया मॉडल सामने आ रहा है। व्यवसाय को बढ़ाने के लिए ज्ञान-साधना और कौशल्य-साधना दोनों आवश्यक हैं। गीता ने दोनों को पवित्रता के साथ जोड़ा है।
‘न ही ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ एवं ‘योग:कर्मसु कौशलम’ इन दो सिद्धांतों को गीता दर्शाती है।
आधुनिक विश्व भी मसल पावर शस्त्र व्यक्ति -अर्थ-शक्ति इस दौर से गुजरते हुए आज ‘ज्ञान- शक्ति’ पर आकर टिका है। मनुष्य का काम रोबोट कर रहे हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर संशोधन हो रहा है। ऐसे में अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए जानकारी को हासिल करते रहना आवश्यक हो गया है।
गीता ने कौशल्य बढ़ाने को ही योग कहा है। योग यानी जोड़ना। व्यक्ति को परम चैतन्य से जोड़ना योग है। गीता कहती है कि अपने छोटे-मोटे रोजमर्रा के कामों में भी सुधार की संभावना है। अपना स्वभाव इसके अनुकूल बनाएं। अपने कपड़े साफ सुथरे हों। अपना सामान ढंग से रखा हो। कार्य सूची बनाने का स्वभाव हो, समय पालन करने की वृत्ति हो तो वह योग ही है। कार्य अधिकाधिक सुचारू रूप से करने का अभ्यास योग है। समय का, वस्तुओं का पैसों का अनावश्यक व्यय टालना भी योग है। इसलिए गीता ज्ञान व्यवसायी के लिए उपयुक्त है।
समाजसेवक (संवेदना एवं आराधना)
गीता ‘आत्मोपन्य’ भाव से सर्वत्र देखना सिखाती है। ‘आत्मोपन्य’ का अर्थ होता है अपने स्वयं को दूसरे के स्थान पर कल्पित करना। ऐसा करने से संवेदना जागृत होती है। संवेदनशील होना समाज सेवा करने के लिए आवश्यक स्वभाव है। दूसरे का दुख देखने पर जिसे स्वयं दर्द होता है, वहीं व्यक्ति उसका सेवा के माध्यम से दर्द मिटाने के लिए सोचता है।
काशी से कावड़ यात्रा करते हुए रामेश्वर के अभिषेक के लिए लाया हुआ गंगाजल संत एकनाथ ने प्यास से तड़पते हुए गधे के मुख में उंड़ेल दिया। इसे आत्मौपम्य भाव कहते है।
मूल प्रश्न यह है कि कोई व्यक्ति दूसरों की सेवा क्यों करें? गीता में कृष्ण इसका सटीक उत्तर देते हैं। ईश्वर की भक्ति तो व्यक्ति सहज रूप से कर लेता है। गीता में कृष्ण कहते हैं कि यह समाज ही तुम्हारा ईश्वर है। जिसके हाथ, पैर, आंखें, कान, मुख, सर्वत्र हैं, जो सब को समाज कर के है वह मैं हूं। एक अर्थ में मैं ही समाज के रूप में अभिव्यक्त हूं। मुझ तक पहुंचना है तो समाज की सेवा करो।
इसे ही व्यवहारिक अर्थ में ‘नर सेवा-नारायण सेवा’ कहा गया है। ईश भक्ति के भाव से समाज की सेवा करने वाला मनुष्य अहंकार के दोष से भी मुक्त रह कर सेवा करता है। दीर्घकाल तक निरपेक्ष भाव से सेवा करने के लिए आध्यात्मिक आधार होना आवश्यक है।
समाज सेवक के लिए गीता यह आधार प्रस्तुत करती है।
औद्योगिक विश्व (कार्य – जीवन – संतुलन)
कार्य-जीवन-संतुलन (वर्क-लाइफ-बैलेन्स) यह शब्द आजकल औद्योगिक विश्व में खूब उपयोग में आता है। उद्योग का उद्देश्य मुनाफा निर्माण करना है। अधिक उत्पादन से अधिक मुनाफा होता है। अधिक समय लगाने से और उत्पादक यंत्रों के पहिये घुमाने से उत्पादन बढ़ता है। पैसा कमाने के लिए व्यक्ति रोज के काम के अलावा ओवरटाइम करता है। जीवन की सारी ऊर्जा पैसा कमाने में लगा देता है। जीवन जीने के लिए ऊर्जा शेष ही नहीं बच पाती। गीता किसी भी प्रकार की ‘अति’ से बचना सिखाती है। गीता कहती है ‘युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु’ यानी जीवन में कमाने और जीवन जीना इसका संतुलन हो मैत्री, रिश्ते, समाजसेवा, कला, साहित्य, पर्यटन, आध्यात्मिकता, आत्मविकास, संगीत साधना इन सब का अंतःभाव जीवन में हो, तो जीवन परिपूर्ण होगा।
जीवन में परिपूर्णता का अभाव होने सेे आदमी पैसा कमाने के बावजूद अतृप्त रहता है। जीवन का सहज आनंद लुप्त होने के कारण वह व्यसन व्यभिचार में अपना आनंद खोजता है। मेहनत से कमाया हुआ पैसा बीमारी भोग में खर्च हो जाता है।
इसलिए व्यवसायी व्यक्ति के लिए गीता समझना उपयुक्त है।
राजकीय नेता (अंहकार की दवा)
राजनैतिक व्यक्ति को अपने कार्यस्वभाव से ही आत्मस्तुति एवं परनिंदा करनी पड़ती है। ऐसा करते करते सत्ता प्राप्त हो गई तो व्यक्ति का अंहकारी हो जाना अत्यंत स्वाभाविक है। अंहकार में ही पतन के बीज होते हैं। अत: सत्ता के मद में उन्मत्त व्यक्ति अथवा दल के एक ही झटके में धराशायी होने की संभावना रहती है।
‘‘मैं कर रहा हूं’ यह कर्ता भाव ही अज्ञान है, ऐसा गीता कहती है। प्रकृति के गुणों के अनुसार सृष्टि का संचालन होता है, ऐसा गीता कहती है। गीता में आसुरी गुणों का जो उल्लेख हैं, वे सारे गुण जैसे के दंभ, दर्प, अभिमान, क्रोध सारे राजनीति के क्षेत्र में आम बात हैं। व्यक्ति अगर जागृत नहीं है तो इसका शिकार हो जाना अवश्यंभावी है। सत्ता के सिहांसन अंहकार की बीमारी लगने से धराशायी होते हुए अनेक बार देखे गए हैं। गीता भक्त के लक्षणों में ‘यस्मानोद्विश्ते लोको-लोकान्नोद्विजते च य’ कहती है इसका अर्थ है – राजनैतिक क्षेत्र में निरंतर लोक संपर्क, लोकसंग्रह करने हेतु ऐसा स्वभाव आवश्यक है। राजकीय नेता अगर गीता पढ़े तो अधिक परिणामकारी ढंग से सारे पथ्यों का पालन करते हुए सफलता पा सकता है।
प्रशासकीय अधिकारी (समदृष्टि)
प्रशासकीय अधिकारी प्रजा के हित में निर्णय करता है और उनके अमल करने हेतु तंत्र खड़ा करता है। न्यायपूर्ण व्यवहार उससे अपेक्षित है। गीता में समदर्शी शब्द ‘पंडित‘ के लिए उपयोग किया है। समदर्शी का अर्थ है सभी स्तर के लोगों को एक समान न्याय दृष्टि से देखने वाला। प्रशासकीय अधिकारी किसी के दबाव में आए बिना और गरीब प्रजा की उपेक्षा किए बिना निर्णय करते हैं। वह ‘समदर्शी’ बनने की साधना करें तो अपना कार्य अधिक योग्यता से कर सकता है।
भक्त (श्रद्धाभाव)
अपना समाज आस्तिकतावादी है। इसमें भी साधना मार्ग अथवा ज्ञान मार्ग की अपेक्षा भक्ति मार्ग पर समाज के अधिकांश लोग चलते हैं। गीता भी ‘श्रद्धावान लभते ज्ञानम- संशयात्मा विनश्यति’ ऐसा कह कर उसे परिपुष्ट करती है।
गीता में भगवान कहते हैं कि मैं खाना हजम करके उसका रक्त बनाता हूं… मेरे कारण स्मृति बनी रहती है। मैं सब के हृदय में निवास करता हूं। मुझे बाहर ढूंढने के बजाय अपने ही भीतर झांक कर पहचाना जा सकता है।
‘भक्ति’ में कर्मकांड पर अधिक बल दिया जाता है। पर गीता भक्त के गुणों की तालिका ही बारहवें अध्याय में प्रस्तुत करती है। कर्मकांड का उद्देश्य इन गुणों का विकसन होने में है। ‘अद्वेष्टा’ इस प्रथम गुण की उपासना ही भक्ति का सारा निचोड़ मांग लेती है। भारत देश में मूर्तिपूजा को बहुतांश लोग मानते हैं। ईश्वर ने निर्गुण निराकार स्वरूप को स्वीकार करते हुए सगुण भक्ति (मूर्तिपूजा) को भी प्रतिष्ठा दी है।
राष्ट्र का पथप्रदीप (सर्वधर्मसमभाव)
‘गीता’ भारत का तत्वज्ञान है। भारत के सेक्युलेरिज्म की नींव है। ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ने तांस्तथैव भजाम्पहम’ यह है। सभी अद्भुत ‘अनुभूतियों को गीता एक ही तेज का अविष्कार मानती है।
१९४७ में स्वतंत्र होने बाद भारत ‘थियोके्रटिक स्टेट’ नहीं बना; क्योंकि गीता का तत्वज्ञान उसकी नींव में है।
‘अहिंसा’ को दैवी गुण मानने वाली गीता उसे सोलहवें अध्याय में ‘अभय’ के बाद उल्लेेखित करती है। ‘महावीर’ को ही अहिंसा शोभा देती है दुर्वासा को नहीं- यह गीता का संदेश है। भारत को आतंकवाद से जूझते समय इस पौरुष प्रधान चिंतन की अत्यधिक आवश्यकता है।
विश्वधर्म-गीता
आज तक योग साधना केवल भारतीयों के लिए- उसमें भी हिंदू भारतीयों के लिए है, ऐसा माना जाता था। आज समूचे विश्व ने २१ जून को ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में योग को वैश्विक मान्यता दी है। वैसे ही गीता मनुष्यमात्र को आतंकवाद, भोगवाद, पर्यावरण ह्रास, बैरभाव, ईर्ष्या आदि से बचा सकती है। संप्रदाय निरपेक्ष शाश्वत सिद्धांतों को मानव धर्म के तौर पर सिखा सकती है। आने वाले समय मेंं विश्व भगवद्गीता को मानवता की विवेक ग्रंथ के रूप में स्वीकार कर लें तो आश्चर्य की बात नहीं होगी।
इससे पूर्व यह आवश्यक है कि भगवद्गीता भारत में जन-जन का विषय बने। अध्ययन और आचरण का विषय बने। तभी हम गीता प्रसाद देने वाले पुरोहित बन पाएंगे।

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