अपशब्दों की राजनीति

भारत में ऐसा लोकसभा चुनाव इससे पहले कभी नहीं हुआ जब पार्टियों के बीच बहस, आरोप-प्रत्यारोप का स्तर इतना नीचे गिरा हो। इसमें जिस तरह अशालीन शब्दों, मुहावरों, शब्दयुग्मों और यहां तक कि अपशब्दों का मुख्य शिकार देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हो रहे हैं इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। चुनाव में सरकार पर हमले, प्रधानमंत्री की आलोचना, आरोपों में तीखापन संसदीय लोकतंत्र की कतई अस्वाभाविक स्थिति नहीं है। इनसे ही चुनाव का वातावरण निर्मित होता है जिनके आधार पर आम मतदाता अपना मन बनाता है। शब्द और भाषा लोकतंत्र की प्राणवायु, रक्त, धमनी सबकुछ है। वैसे तो 2014 का चुनाव भी इस मायने में बहुत अलग नहीं था। जिस तरह के गिरे हुए शब्द मोदी के लिए प्रयोग किए गए वे भी उससे पहले नहीं सुने गए थे। किंतु इस सीमा तक स्तर नीचे नहीं गिरा था। दूसरे, तब मोदी प्रधानमंत्री नहीं थे। इस नाते 2019 का चुनाव बिल्कुल अलग चरित्र ग्रहण कर चुका है।

भारत का शालीन मतदाता यह देख-सुनकर हतप्रभ है। वे प्रश्न उठा रहे हैं कि हमारे नेताओं, पार्टी प्रवक्ताओं को क्या हो गया है? ये लोकतंत्र को कहां ले जा रहे हैं? यह बात अलग है कि इस तरह की प्रतिक्रिया व्यापक स्तर पर नहीं हो रही है। कुछ लोगों ने इस पर शोध करके उन कुछ अपमानजक शब्दों और अपशब्दों को एकत्रित किया है जो नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध अब तक इस्तेमाल किए गए हैं। ऐसे 50 वाकयोें की सूची हमारे सामने उपलब्ध हैं। इस नाते 2019 का चुनाव शर्मनाक रिकॉर्ड बना रहा है। तो आइए पहले महान लोगों के मुख से निकली कुछ बातों पर नजर दौड़ाएं और उनका साहस के साथ विश्लेषण करें। साहस इसलिए कि संवेदनशील व्यक्ति का तो इनको पढ़ने और सुनने से दिल दहल जाएगा।

इस समय पिछले 16 मार्च को एक टीवी बहस के दौरान कांग्रेस के वरिष्ठ प्रवक्ता पवन खेड़ा द्वारा अंग्रेजी के मोदी के चार वर्णों एमओडीआई का किया गया नामकरण सबसे ज्यादा चर्चा में है। यह वास्तव में स्तब्ध करने वाला था। खेड़ा ने कहा कि एम का मतलब मसूद अजहर, ओ का मतलब ओसामा बिन लादेन, डी का मतलब दाऊद इब्राहिम और आई का मतलब है, आईएसआई। प्रधानमंत्री को आतंकवादी मसूद अजहर, ओसामा बिन लादेन तथा दाउद इब्राहिम और भारत के लिए षडयंत्र करने वाली पाकिस्तानी एजेंसी आईएसआई का मिश्रण बताने से गिरी हुई सोच और भाषा आखिर क्या हो सकती है? खेड़ा से क्षमा मांगने और अपना शब्द वापस लेने के लिए कहा गया लेकिन वे अड़े रहे। कांग्रेस को अगर लगता है कि इससे लोग मोदी विरोधी होकर उसे वोट दे देंगे तो यह उसके राजनीतिक दिवालियेपन का ही प्रमाण है। कोई भी संतुलित मस्तिष्क का व्यक्ति चाहे राजनीतिक रूप से मोदी का विरोधी ही क्यों न हो, इस तरह की उपमा से क्षुब्ध ही होगा। यह तो सीधे-सीधे प्रधानमंत्री को दुनिया का सबसे खूंखार, हिंसक, षडयंत्रकारी और मजहबी उन्माद के वशीभूत आतंकवादी हमले कराने वाले बुद्विजीवियों को कांग्रेसी नेताओं का गाली-गलौज अगर आनंद दे रहा है तो फिर उनका मानसिक स्तर क्या है यह बताने की आवश्यकता नहीं। उन्हें लगता है कि चलो मोदी को कम से कम गालियां तो पड़ रही हैं, उसके मां-बाप को गालियां मिल रही हैं, उसे चोर और नामर्द तक कहा जा रहा है तो अच्छा ही है तो फिर कहना होगा कि इस अपराध के भागीदार आप भी हो।

किसी का राजनीतिक विरोध स्वाभाविक है किंतु इस तरह के अपशब्दों को कभी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। राजनीति में हमारे घोर विरोधी के लिए भी इस तरह का शब्द प्रयोग हो तो एक ईमानदार और लोकतांत्रिक को इसके खिलाफ खड़ा होना चाहिए। अगर ऐसा करने वाले अपने हैं तो भी उनका विरोध करना चाहिए। इस तरह की परंपरा पूरी राजनीति को गर्त में ले जाने वाली है। ध्यान दीजिए, किसी एक विरोधी नेता, मोदी से जले-भुने पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने राहुल गांधी से लेकर कांग्रेस नेताओं की प्रधानमंत्री के लिए ऐसी गंदी भाषा का प्रयोग करने की आलोचना नहीं की है। इसलिए यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि राजनीति या चुनाव अभियान की भाषा का स्तर रसातल में ले जाने या उसे सड़ांध भरे गंदे नाले में परिणत करने के लिए ये भी उतने ही दोषी हैं।

भारतीय आम चुनाव में दो अवसर ऐसे रहे हैं जब सबसे ज्यादा तनाव था। 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी के खिलाफ पूरे उत्तर एवं पश्चिम भारत में वातावरण था। उन पर आतंक और भ्रष्टाचार तथा उनके संरक्षण में नेताओं और प्रशासन द्वारा गुंडागर्दी का आरोप था जिनमें काफी सच्चाई थी। उस समय निचले स्तर पर नारा लगता था कि गली-गली में शोर है, इंदिरा गांधी चोर है। किंतु देश के किसी बड़े नेता के मुंह से यह नहीं सुना गया। नीचे स्तर के कार्यकर्ता ही ऐसे नारे लगाते थे। जयप्रकाश नारायण से लेकर मोरारजी देसाई, चरण सिंह, देवीलाल, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चन्द्रशेखर, सुंदरसिंह भंडारी, विजयाराजे सिंधिया, श्यामनंदन मिश्र, कर्पूरी ठाकुर, मधु-दण्डवते, गोविन्दाचार्य….आदि नेताओं के उस समय के भाषण या पत्रकार वार्ताओं को उठा लीजिए आपको एक शब्द भी ऐसा नहीं मिलेगा जिसे आप नीच, या गंदा या गिरा हुआ कह सके। इन सारे नेताओं को इंदिरा गांधीं ने जेल में डाला था। अनेक नेताओं-कार्यकर्ताओं को यातनाएं दी गईं थीं। कितने का अंग-भंग हो गया था। जबरन नसबंदी कर दी गई थी। इसके खिलाफ चरम गुस्सा था, पर पूरे चुनाव प्रचार में भाषा की सीमा बनी रही। दूसरा अवसर 1989 का चुनाव था जब राजीव गांधी से विद्रोह करके विश्वनाथ प्रताप सिंह बाहर आए थे। उनके साथ कई नेता थे। पूरा विपक्ष एकजुट था। राजीव गांधी पर आरोप लगाए गए लेकिन कभी इस तरह के गिरे हुए शब्द प्रयोग नहीं हुए। मिस्टर क्लिन शब्द इस तरह व्यंग्यात्मक लहजे में नेता बोलते थे जिससे संदेश निकले कि उनके हाथ भी भ्रष्टाचार से गंदे हैं।

नरेन्द्र मोदी सरकार में ऐसी कोई स्थिति भी नहीं है। न तो आपातकाल है, न नेताओं के समूह को किसी तरह प्रताड़ित किया गया है या जेल में डाला गया है, न भ्रष्टाचार का कोई आरोप सरकार पर है। तो फिर ये सब इतने क्षुब्ध क्यों हैं? क्या सत्ता हाथ से चली गई थी इसलिए? क्या कांग्रेस 44 सीटोें तक सिमट गई इसलिए? सत्ता में वापसी का यह तरीका किसी व्यवस्था या प्रणाली के लिए यथेष्ट नहीं है। कांग्रेस न भूले कि मोदी को गुजरात का खलनायक बनाकर ही आपने उन्हें देश का नायक बना दिया। 2007 के प्रदेश चुनाव में सोनिया गांधी द्वारा उन्हें मौत का सौदागर कहना कांग्रेस के लिए भारी पड़ गया। मोदी ने इसका पूरा लाभ उठाया। लोगों में इसके खिलाफ गुस्सा पैदा हुआ। 2013 से मई 2014 तक कांग्रेस के नेता-प्रवक्ता मोदी को यमराज, बिच्छु, गंदे नाली का कीड़ा, गिरा हुआ, नीच आदमी, चरित्रहीन, लड़की का जासूसी कराने वाला…न जाने क्या-क्या कहा गया और इसकी जनता में व्यापक प्रतिक्रिया हुई। वस्तुतः 2014 के चुनाव परिणाम में विरोधी नेताओं द्वारा मोदी के खिलाफ प्रयोग किए गए शब्दों की भी बड़ी भूमिका थी। तो कांग्रेस को उससे सबक सीखना चाहिए था। इसके विपरीत रणनीति के तहत इसे अपनाने के कारण राहुल गांधी के नेतृत्व मेंं कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी के लिए अपशब्द, अपमानजनक शब्द गढ़ने वाला समूह बन गया है। प्रश्न है कि इसका चुनाव पर क्या असर हो सकता है?

यह प्रश्न निश्चय ही सबसे मौजूं है कि आखिर मतदाता इससे कितने और किस तरह प्रभावित होंगे? वे इससे क्षुब्ध होकर इनके खिलाफ और मोदी के पक्ष में मतदान करेंगे या कुछ और होगा? किसी भी पहलू का मतदान पर असर डालने के लिए उसे आम जनता तक सही तरीके से ले जाने की जरूरत होती है। मोदी के लिए प्रयोग किए जा रहे सारे अपशब्द आम मतदाताओं तक पहुंच रहे होंगे ऐसा लगता नहीं। कुछ पहुंचते होंगे तो कुछ नहीं। तो जरूरी यह है कि ऐसी सारे अपशब्दों को जनता तक ले जाया जाए। उन्हें बताया जाए कि देश के प्रधानमंत्री और उनके परिवार के लिए इस तरह के शब्दों का प्रयोग करने वालों को पहचानिए और फिर तय करिए कि आप किसे मत देना चाहते हैं। उनके सामने प्रश्न रखा जाए कि क्या आप चाहते हैं कि राजनीति में इस तरह की गिरी हुई भाषा का प्रयोग करने वाले चुनाव में जीतकर देश के नियति निर्धारक बनें? अगर नही ंतो फिर इनको नकारिए। वास्तव में 2019 के चुनाव में मोदी के लिए प्रयोग किए गए शब्दों को एक प्रमुख मुद्दा बनाए जाने की जरुरत है। इसका उल्लेख कर जगह-जगह बहस आयोजित की जाए। मीडिया में भी लगातार इन पर चर्चा कराने की कोशिश हो। अगर ऐसा किया गया और मतदाताओं के बड़े वर्ग तक इनका चरित्र उजागर हुआ तो फिर इनको मतों के द्वारा जवाब मिल जाएगा। अगर इस तरह के शब्द प्रयोग करने वालों को मत मिला तो इसका मतलब यही होगा कि हम इसे प्रश्रय दे रहे हैं। जो लोग भी इससे क्षुब्ध हैं उनको खुलकर सामने आना होगा। हो सकता है जनता के बीच यदि विरोधी प्रतिक्रिया होने लगे तो ये चुनाव अभियान के बीच में ही वोट कटने के भय से इसे रोक दें। 2019 का आम चुनाव एक अवसर है ऐसी घटियां स्तर की राजनीति को रोकने का। इससे हम चूक गए तो फिर लोकतंत्र के पूरे वातावरण को कलंकित करने की जिम्मेवारी हमारी भी होगी।

Leave a Reply