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मातेश्वरी

by डॉ. किरण चतुर्वेदी
in कहानी, जनवरी २०१८
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प्रिय मामा के देहांत से उबर भी नहीं पाई कि मां का समाचार मिला उन्हें ब्रेनहेम्ब्रेज हो गया है. परिवार में सभी ने अनुमान लगा लिया मां अपने छोटे भाई की, जिसे वह अपना बेटा ही मानती थी, मृत्यु का सदमा सह नहीं पाई. मेरे लिये बहुत दु:खद स्थिति थी. मामा अचानक छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर चले गये. मामी रोते-रोते उन पर आरोप लगाती. हार्ट सर्जरी के बाद वे डॉक्टर के निर्देशों का पालन नहीं करते थे, स्वास्थ्य को लेकर लापरवाह रहते थे, जिंदगी को बहुत हल्के में लेते. इस बात पर उनका मामी से झगड़ा होता, एक-दो दिन बोलचाल बंद रहती फिर सामान्य हो जाते. मामी को जिस बात की शंका हमेशा रहती वह एक दिन सच हो गई. मामा सब का मोह तोड़कर अनंत यात्रा पर निकल गये. जिंदगी को जिंदादिली के साथ जीने वाला निर्मोह होकर चला गया. जीवन की क्रूर नियति को स्वीकार करना सबकी विवशता थी. मामा का तेरहवां करके उसी शाम मैं मां के पास कलकत्ता चली गई.
मां को लकवा मार गया था. शरीर के साथ-साथ जबान पर भी असर आ गया था. डॉक्टरों ने उन्हें बचा तो लिया था पर शरीर, जबान से लाचार हो गईं. इस स्थिति में सुधार की आशा कम थी. उम्र व जीने की इच्छा शक्ति न होना बहुत महत्व रख रहा था.
अस्पताल में मां को देखकर धक्का लगा. कितना रौबिला व्यक्तित्व था. परिवार के सभी सदस्य आदर ही नहीं करते थे, डरते भी थे. बहुत स्पष्टवादी, परिवार का कोई भी सदस्य परेशानी में होता तो उसकी सहायता के लिये सदैव तत्पर रहतीं. वे हमेशा कहती, ‘समस्या को लेकर घबराने की जरूरत नहीं है, समाधान ढू़ंढो. ऐसी कोई समस्या नहीं होती जिसका समाधान व कोई रास्ता नहीं होता, विकल्प ढू़ंढो, सब मिलते हैं.’ आज मां से पूछने का मन हो रहा है- आपके इस जीवन का विकल्प या दूसरा रास्ता क्या है? मैं विचारों में खोई थी तभी नर्स व्हील-चेयर लेकर आई. उसे देखकर मैं घबरा गई. मां के जीवन का यह विकल्प है, मन रो उठा. दबंग व्यक्तित्व वाली महिला इस तरह रहेगी. क्या उन्हें यह रूप स्वीकार होगा. जिसने कभी किसी से एक गिलास पानी नहीं मांगा आज इतनी असहाय हो गई कि बिना किसी सहायता के उठ-बैठ नहीं सकेंगी.
मां आज घर आ गई. पापा ने उसकी सभी सुविधाओं का प्रबंध घर में कर दिया या यह कहें घर ही अस्पताल में परिवर्तित हो गया. विशेष पलंग, विशेष गद्दा, आक्सीजन देने के सभी साधन, मां की सेवा के लिए दिन-रात की नर्स रखी गई. नर्स मां का सभी कार्य करती. मां बोलने में असमर्थ हो गई. अस्पष्ट शब्द ध्यान से सुनने पर समझ में आता कि वह क्या बोल रही हैं. डॉक्टर का कहना था कि फिजियोथेरपी प्रभाव करेगी पर कम क्योंकि उम्र है. मां की जीवन के प्रति इच्छा समाप्त हो गई है, इस भाव ने उनकी शक्ति को कमजोर कर दिया. पापा उनको समझाते तुम व्हील-चेयर पर बैठने की आदत डालो, मैं तुम्हें स्विट्जरलैंड घुमा दूंगा. वे मुस्करा देती, मानो कहती अब ऊपर का टूर करेंगे, नीचे क्या घूमें!
मां की वजह से पापा ने सभी सोशलाइजिंग छोड़ दी थी. हमेशा कहते, तुम्हारी मां ने ५३ वर्ष मेरा साथ दिया अब मेरी बारी है उनका साथ देने की. इस चांस में कोई शिकायत तुम्हारी मां को नहीं होने दूंगा, नर्स के भरोसे छोड़कर मैं नहीं जा सकता, पापा ने पूरी ईमानदारी और सच्चाई के साथ इस वचन को निभाया. मुझे आज ज्ञात हुआ प्रेम की भाषा नहीं होती, न शब्द होते हैं, न रूप होता है. हृदय में बसने वाली एक अनुभूति होती है जिसे किसी शब्द- रूप भाषा की क्या जरूरत? वेद उपनिषद का ज्ञान प्रेम को व्याख्यायित न कर सका. वह ज्ञान मार्ग बताता है. कब कहां कैसे मिलेगा यह नहीं बता पाता. कबीर का दोहा याद आता है- प्रेम गूंगे का गुड़ है मात्र अनुभव होता है व्यक्त नहीं. पापा द्वारा शादी के समय लिया सातवां वचन- ‘‘जीवन भर एक दूसरे का साथ देंगे’’ – पूरी श्रद्धा के साथ पूरा किया. उन्होंने वचन तो- अग्नि देवता, समाज, परिवार को साक्षी में लिया और उसे उसी सच्चाई से निभाया भी. सच क्या समर्पण था- पापा आपकी हर सांस समझते!
आज कई महीनों बाद मां से मिलने कलकत्ता आई. उनके हाव-भाव बता रहे थे मुझे देखकर बहुत खुश थी. अस्पष्ट शब्दों में पूछ रही थी घर में सब कैसे हैं, बेटा क्या कर रहा है, तुम कुछ रुको जल्दी मत जाना. मैं उनकी हर बात का उत्तर अंदाज से ठीक है ठीक है कह देती. थोड़ी देर में वे भावुक होकर रोने लगती. मैं ज्यादा से ज्यादा समय उनके साथ गुजारती.
मां बेटी के बीच नर्स दुभाषिये का काम करती. वह उनकी बात अच्छे से समझती. यह स्थिति मेरे लिये बड़ी दुखद और असहनीय होती. जिस मां ने मुझे जन्म दिया आज उसकी बात समझने में क्यों अपने को असहाय पाती हूं. बचपन में इसी मां ने मेरे तोतले अस्पष्ट शब्दों को समझा, जरुरतें पूरी कीं. उस समय मां ने किसी अन्य की सहायता नहीं ली मेरी बात समझने के लिये. आज नर्स मुझे बताती है उनकी बात उनके मन के भावों को स्पष्ट करती है. जिंदगी का सबसे कड़वा सच रोते-रोते न चाहते हुए भी स्वीकार कर रही थी. ऊपर वाले तू इतनी कठोर परीक्षा मुझ मां बेटी की क्यों लेता है, तेरी कृपा से ही इस धरा पर मां संतान के रिश्तों को जन्म मिला जिसे तू भी प्रणाम करता है.
आज मैंने मन ही मन निश्चित किया, बिना नर्स की सहायता के मां से बात करेंगे, ध्यान देकर एक-एक शब्द सुनकर बोलूंगी. हम दोनों धीरे-धीरे एक दूसरे की बात समझकर बोल रहे थे कि अचानक मां जोर-जोर से रोने लगी, मैं डर गई. नर्स को बुलाया, उसने धीरज देकर उनसे पूछा तब पता चला मैं उनकी बात नहीं समझ पा रही थी गलत उत्तर दे रही थी. इस बार फूट-फूट कर रोने की मेरी बारी थी. मां के साथ हमेशा सभी तरह की बातों को साझा किया अब क्यों नहीं कर पाती? आज कितनी विवश हूं, मां तूने हमेशा परेशानी में मेरा साथ दिया. आज तुझे मेरी जरुरत है, मैं साथ नहीं दे पा रही. कभी-कभी लगता है पिछले जन्म का कोई अभिशाप भोग रही हूं तभी अपनी मां से बातें नहीं कर पा रही. पिछले जन्म में जरूर किसी मां का दिल दुखाया होगा तभी आज मैं दु:खी हूं.
आप बच्चों के तोतले अस्पष्ट शब्दों को सही समझतीं, उनकी जरुरतें पूरी करतीं. आज वही संतान तुझे क्यों नहीं समझती? मैं आपको समझना चाहती हूं, आपके मन की बातें सुनना चाहती हूं, जीवन की वे हिदायतें सुनना चाहती हूं जो हम सब भाई बहनों को देती थीं. मुझसे पहले की तरह घर का काम करवाओ, डांटो, तरस गई तुम्हारी डांट खाने के लिये, प्लीज मां.
मेरे ‘मातेश्वरी’ कहने पर तुम कितना हंसती. मैं कहती तुम पर लाड़ आ रहा है मातेश्वरी. तुम पूछती क्यों…? पता नहीं क्यों मैं हंसते हुए तेरे गले लग जाती. मुझे झटकते हुए कहती तुम्हारा इतराना अच्छा नहीं लगता. अम्मा बन गई हो गंभीर बनो, मैं जोर-जोर से हंसती. मां बनने और आपसे इतराने का क्या सम्बंध?
आज मां कितनी शांत हैं. उन्हें अपने कष्टों व घुटन से मुक्ति मिल गई. इस मुक्ति का अरसे से इंतजार कर रही थीं, तुम तो अनंत यात्रा पर चली गई. मैं अपने अपराध बोध के साथ बैठी हूं. अचानक लगता है तुम मेरे पास खड़ी डांट रही हो. कह रही हो घर में इतना काम पड़ा है और तुम यहां बैठी हो, उठो काम करो……. मैं खाली कमरे में चारों तरफ नजर डालती हूं…!

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डॉ. किरण चतुर्वेदी

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