युद्धपिपासु नेता व मासूमों की बलि

अमेरिका-ईरान के बीच संघर्ष के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और ईरान के सर्वेसर्वा अयातुल्ला खुमैनी की युद्धोन्मत्त मानसिकता जिम्मेदार है। अमेरिका विश्व का दरोगा बनना चाहता है, जबकि ईरान मध्ययुगीन जिहादी मानसिकता का गुलाम है। यदि युद्ध छिड़ा तो भारत पर इसके दुष्परिणाम अवश्य होंगे।

2020 का पहला हफ्ता सारी दुनिया को तनाव देने वाला साबित हुआ। तनाव का कारण था अमेरिका द्वारा ड्रोन से हमला कर ईरान के वरिष्ठ फौजी कमांडर कासिम सुलेमानी की हत्या कर देना। पिछले सालभर से अमेरिका-ईरान के बीच धमकियों और जवाबी धमकियों का सिलसिला जारी था ही। इस घटना ने संघर्ष को एक गंभीर मोड़ दे दिया। कासिम सुलेमानी ईरान के लिए तुरूप का पत्ता था। ईरान की फौजी कार्रवाइयों में उसका उल्लेखनीय योगदान था और पूरा ईरान उसी दिशा में चल रहा था। इसी कारण ईरान के सर्वेसर्वा अयातुल्ला खुमैनी का इस घटना के प्रति गुस्सा और बदले की कार्रवाई की धमकी समझने लायक है। खुमैनी इसे अमेरिका का सबसे बड़ा गुनाह मानते हैं। उनके गुस्से के इजहार के पांच दिन बाद ही ईरान ने अमेरिका के इराक स्थित फौजी अड्डों पर मिसाइलों से हमला कर दिया। इस हमले में 80 अमेरिकी फौजी मारे जाने का ईरान ने दावा किया है, जबकि अमेरिका कहता है कि कोई जीवित हानि नहीं हुई है। अब जवाब में अमेरिका के ईरान पर हमले की आशंका से वहां अफरातफरी मची हुई थी। नतीजा यह हुआ कि ईरान ने तेहरान हवाई अड्डे से उड़े युके्रनी एयरलाइन्स के यात्री विमान को ही गलतफहमी में मार गिरा दिया। इस हमले में 176 मासूम लोगों की जान चली गई। घटना भले ही किसी चूक के कारण हुई हो, परंतु इससे ईरान की अमानवीयता, असंवेदनशीलता और लापरवाही ही उजागर होती है। इस दुर्घटना का दोष किसे दें? उत्तर साफ है- अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और ईरान के सर्वेसर्वा अयातुल्ला खुमैनी। दोनों नेता युद्धपिपासु और अहंकारी हैं। अमेरिका को लगता है कि इस दुनिया पर राज करने का अधिकार केवल उसे ही है और अयातुल्ला को लगता है कि जिहाद जैसी मध्ययुगीन धार्मिक कट्टरता ही सत्ता पर बने रहने का जरिया है। दोनों लड़ाकू मानसिकता रखते हैं।

कौन था कासिम सुलेमानी?

अमेरिका दुनिया में सुपर पावर बनने को लालायित है। वह और किसी को सह नहीं सकती। अमेरिका ईरान के समृद्ध तेल कुओं पर अपनी धाक बनाए रखना चाहता है। ईरान खनिज तेल के निर्यात में अग्रणी है और मालामाल हो रहा है। अमेरिका यह बात कैसे सहन कर सकती है? उसे लगता है कि दुनिया पर हुकूमत चलाने के लिए तेल के इन कुओं पर अंकुश रखना बहुत जरूरी है और इसलिए वह ईरान पर किसी न किसी बहाने दबाव बनाए रखता है। दुनिया की सारी सत्ता और सम्पदा को अपने नियंत्रण बनाए रखने की अमेरिका की ख्वाईश है। ईरान के प्रति अमेरिका की दादागिरी का असली मकसद यही है।

कासिम सुलेमानी ईरान, इराक व सीरिया में दबदबा रखते थे। मजदूर के बेटे से वरिष्ठ फौजी अधिकारी बनने तक उनकी जीवन यात्रा है। विदेश में फौजी कार्रवाइयों के लिए ईरान ने कुद्ज फोर्स नामक अलग बल का गठन किया था। लेबनान, इराक, सीरिया तथा पड़ोसी मुस्लिम राष्ट्रों में ईरान का प्रभाव बढ़ाने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। मित्र राष्ट्रों की ताकत बढ़ाने में सुलेमानी का बहुत योगदान था। अमेरिका की दृष्टि से सुलेमानी आतंकवादी था, क्योंकि अमेरिका मानता है कि उसके हाथ अमेरिकियों के खून से सने हैं। परंतु, ईरान में सुलेमानी बेहद लोकप्रिय था। ईरान के खिलाफ अमेरिकी दबाव तंत्र को ठुकराने और ईरान के बहिष्कार के अमेरिकी कदमों के खिलाफ प्रखर संघर्ष का सुलेमानी ने नेतृत्व किया। मार्च 2019 में ईरान ने अपने सर्वोच्च सम्मान ‘आर्डर ऑफ जुल्फकार’ (जुल्फकार हजरत अली की तलवार का नाम था। याने सुलेमानी की श्रेष्ठता जुल्फकार जैसी थी।) से सम्मानित किया। ईरान के शाह अयातुल्ला खुमैनी, सुलेमानी को ‘जीवित हुतात्मा’ कहा करते थे। सुलेमानी अत्यंत लोकप्रिय तो थे ही, मध्यपूर्व में बहुत ताकतवर जनरल माने जाते थे। ईरान के संभावित राष्ट्रपति के रूप में भी उनके नाम की चर्चा थी। सुलेमानी की इस तरह की लोकप्रियता अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को खटक रही थी। अमेरिका और उसके मित्र देश सुलेमानी को कड़ा प्रतिस्पर्धी मानते थे।

अमेरिका ने सुलेमानी को आतंकवादी करार दिया था। अमेरिका कहता है कि सुलेमानी ने देश व विदेश में अमेरिकी हितों को चोट पहुंचाने और अमेरिकियों की हत्याओं की साजिश रची थी। मध्यपूर्व के अनेक आतंकवादी संगठन सुलेमानी के पनाह में थे। हमास से लेकर हिजबुल तक अनेक आतंकवादी संगठन सुलेमानी के इशारे पर काम करते थे। यह तो सब ठीक है, लेकिन प्रश्न है कि अमेरिका ने सुलेमानी के खात्मे के लिए यही समय क्यों चुना?

अमेरिका का कहना है कि सुलेमानी इराक स्थित अमेरिकी फौज और अमेरिकी नागरिकों पर हमले की योजना बना रहा था। इसलिए अमेरिका ने उसका खात्मा किया। इस हमले से अमेरिका ने दो लक्ष्य पाने की कोशिश की- एक यह कि अमेरिका ने ईरान को सीख दे दी और दूसरा यह कि खाड़ी में अमेरिका अपने मित्र राष्ट्रों की सुरक्षा के लिए समर्थ है। कुद्स के प्रथम दर्जे के अधिकारी सुलेमानी को ड्रोन हमले में मारकर अमेरिका ने अपने प्रतिरोध की तीव्रता और अचूकता दिखा दी, लेकिन दुनिया भर में हुई प्रतिक्रिया अमेरिका की दादागिरी को इंगित करती है। अमेरिका का वियतनाम से ईरान तक युद्ध इतिहास देखें तो अमेरिका की दादागिरी ध्यान में आ जाएगी।

अमेरिकी हमला इसी समय क्यों?

अमेरिका ने हमले के लिए यही समय क्यों चुना, इस पर गहराई से विचार करना होगा। ईरान-इराक युद्ध के दौरान अमेरिका पहले इराक के पक्ष में था। ईरान पर परमाणु अस्त्रों को विकसित करने का आरोप लगाकर अमेरिका ने कई बार उसके खिलाफ बहिष्कार के अस्त्र का उपयोग किया। अमेरिका की खाड़ी के देशों के तेल पर नजर है और इसलिए वह उन देशों को आपस में लड़ाते रहता है। अब अमेरिका के राष्ट्रपति पद का चुनाव निकट आ रहा है। इस बीच ट्रम्प के विरोध में महाभियोग को कनिष्ठ सदन ने मंजूर किया है।

ट्रम्प को उनके दल में ही चुनौती दी जा रही है। इसी बीच ईरान समर्थक मिलिशिया की ओर से अमेरिकी दूतावास पर हमला किया गया। ट्रम्प को तो बहाना चाहिए था। ट्रम्प को इससे अवसर मिल गया। कासिम सुलेमानी ने कई बार अमेरिका पर हमले की धमकियां दी थीं। कुद्स फोर्स ईरानी फौज का ही एक अंग है। ईरान उसके जरिए देश के बाहर कार्रवाइयों को अंजाम देता है। 2003 में अमेरिका ने इराक में सद्दाम हुसैन को सत्ता से उतारा था। इसके बाद मध्यपूर्व में कुद्स फोर्स ने अपने अभियानों को तेज किया था।

गौरतलब हो कि जब कोई नेता अपने देश में कुछ कर नहीं पाता, नागरिकों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने में विफल होता है, आर्थिक सामाजिक समस्याओं का कोई उचित समाधान खोज नहीं पाता, तब अस्मिता के विषयों को हवा देना सब से आसान मार्ग माना जाता है। एक बार यदि जनता पर अस्मिता का नशा चढ़ गया कि फिर कितने भी कष्ट हो वह अपने नेता के साथ खड़ी होती है। ऐसी अनेक मिसालें हैं। अमेरिका को मध्य पूर्व में फौजी संघर्ष में उलझाना ईरान की रणनीति का एक हिस्सा है। इस रणनीति के तहत ही बगदाद में अमेरिकी दूतावास का घेराव किया गया। अमेरिकी फौज के एक ठेकदार को मार दिया गया। ट्रम्प ने इसी बहाने सुलेमानी को मार गिराया। ऐसा करते समय उनका मुख्य लक्ष्य अमेरिका की घरेलू राजनीति थी। पिछले चुनाव में ट्रम्प ने इसी तरह के मुद्दे पर अपनी प्रतिद्वंद्वी हिलरी क्लिंटन को निशाना बनाया था। घटना 2012 की और लीबिया की है, जब अमेरिकी राजदूत की वहां हत्या हुई थी और उस समय हिलरी अमेरिका की विदेश मंत्री थीं। ट्रम्प को लगता था कि लीबिया की घटना का जिस तरह हिलरी क्लिंटन पर असर हुआ वैसा ईरान की घटनाओं का उन पर न हो और इसीके चलते ट्रम्प ने सुलेमानी की हत्या का आदेश दे दिया। राष्ट्रपति पद के चुनाव के ऐन मौके पर ईरान के खिलाफ फौजी कार्रवाई कर ट्रम्प ने विरोधियों का मुंह बंद करने की कोशिश की है। अमेरिका में ट्रम्प की अनेक नीतियों की इस समय कड़ी समीक्षा की जा रही है। ट्रम्प को महाभियोग का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में अमेरिकी जनता का ध्यान बंटाने के लिए ही ट्रम्प इस तरह की उठापटक कर रहे हैं। विश्व भर में लगभग यही सोच है।

कोई भी राष्ट्र युद्ध नही चाहता

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ईरान के साथ परमाणु समझौता किया था। ट्रम्प ने इस संधि से हटने की घोषणा की है। इसके बाद अमेरिका और ईरान में तनाव बढ़ता चला गया। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ट्रम्प के खिलाफ महाभियोग और अमेरिका में प्रस्तावित राष्ट्रपति पद के चुनाव को देखते हुए ट्रम्प दुनिया को यह संदेश देना चाहते हैं कि वे मजबूत, सक्षम और फैसले लेने का साहस रखनेवाले नेता हैं।

इस पृष्ठभूमि में खाड़ी देशों में स्थिति संकटपूर्ण होने के बावजूद कोई युद्ध नहीं चाहता। ईरान तो बिल्कुल नहीं चाहता। आम तौर पर अमेरिका का साथ देने वाले उसके मित्र राष्ट्रों को भी लड़ाई नहीं चाहिए। फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी आदि देश भी ईरान के साथ सम्बंधों को सुधारना चाहते हैं। ईरान का तेल यूरोप को चाहिए। तेल के बारे में पूरी तरह दूसरों पर निर्भर यूरोप के लिए ईरान से विवाद करना महंगा पड़ेगा। 2015 के समझौते को रद्द कर ईरान को परेशान करने का डोनाल्ड ट्रम्प का एकसूत्री कार्यक्रम है; फिर भी ईरान को उम्मीद है कि आने वाले चुनाव में ट्रम्प पराजित हुए तो अमेरिका के साथ उसके सम्बंध सुधर सकते हैं।

भारत को आंच सहनी पड़ेगी

अमेरिका-ईरान संघर्ष केवल दो राष्ट्रों तक सीमित नहीं है। खाड़ी के अन्य देशों के साथ भारत को भी इसकी आंच बडे पैमाने पर सहनी पड़ेगी। ईरान दुनिया में सबसे बड़ा शिया देश है। इसलिए सुन्नी बहुल देश ईरान का साथ नहीं देंगे। यदि युद्ध भड़का तो मध्यपूर्व में शिया-सुन्नी संघर्ष और तेज होगा। अमेरिका के सऊदी अरब के साथ अच्छे रिश्तें हैं। सऊदी अरब सुन्नी देश होने से उसके अन्य सुन्नी देशों से अच्छे सम्बंध हैं। लेकिन ईरान के साथ उसकी सीधी दुश्मनी है। इस संघर्ष की बहुत बड़ी मार खाड़ी देशों को सहनी पड़ेगी।

इसलिए दुनिया भर के युद्धविरोधी वैश्विक संगठन इन युद्धपिपासु राष्ट्रों के बीच संघर्ष कम करने का प्रयास कर रहे हैं। ईरान की आय का मुख्य स्रोत तेल निर्यात है और वह घटने से उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो गई है। दैनिक खर्चों के लिए भी ईरान सरकार के पास पैसे नहीं है। पूरे देश में बेचैनी का माहौल है। महंगाई आसमान छू रही है और जनता सड़कों पर उतर रही है। दुनिया अब इस चिंता में है कि ईरान क्या वाकई अमेरिका के खिलाफ कोई घातक कदम उठाएगा? ईरान ने 2018 में सुरक्षा पर 19 अरब 60 करोड़ डॉलर खर्च किए। अमेरिका हर साल 693 अरब डॉलर सुरक्षा पर खर्च करता है। इस स्थिति में ईरान युद्ध का खतरा मोल नहीं ले सकता। इसी कारण सुलेमानी की हत्या के बाद अमेरिका के फौजी अड्डों पर कुछ मिसाइलें दाग कर लड़ाई का माहौल उसने पैदा किया है।

ईरान-अमेरिका संघर्ष का तेल की कीमतों पर असर पड़ा है। वैश्विक बाजार में कीमतों में तीन से चार प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारत जैसे बड़े पैमाने पर तेल आयात करने वाले देश पर इसका बहुत विपरीत असर पड़ेगा। पिछले कुछ दिनों से पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस की कीमतें बढ़ रही हैं। अमेरिका और ईरान में युद्ध छिड़ने पर मध्यपूर्व में कार्यरत लगभग 80 लाख भारतीयों की रोजीरोटी संकट में पड़ जाएगी। यह तनाव बढ़ता ही रहा तो अन्य कुछ परिणाम भी हो सकते हैं। इससे भारत का चिंतित होना स्वाभाविेक है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में पहुंचती नजर आ रही है। ऐसी स्थिति में तेल के दाम बढ़ते हैं तो भारत को इसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे। एक और महती बात यह है कि इस तनाव से वैश्विक बाजार में अनिश्चितता का माहौल बना है। इससे उत्पन्न होने वाली अनिश्चितता के अनेक परिणाम भारतीय बाजार को भी भुगतने पड़ेंगे। फलस्वरूप देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निवेश व उत्पादन प्रक्रिया प्रभावित होंगे।

ईरान का संकट केवल ईरान तक सीमित नहीं है; बल्कि जिन-जिन देशों को ईरानी तेल का निर्यात होता है उन-उन देशों में बड़ा संकट पैदा होने वाला है। भारत में 24 करोड़ मुस्लिमों में 48% शिया हैं। यदि अमेरिका-ईरान युद्ध छिड़ा तो शिया-सुन्नियों में आपसी धार्मिक रंजिश और बढ़कर स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। ईरान के चाबहार बंदरगाह, ईरान-अफगानिस्तान-यूरेशिया रेलवे परियोजनाओं में भारत ने दो अरब डॉलर का निवेश किया है, जो व्यर्थ चला जाएगा। ऐसा होने पर भारतीय अर्थव्यवस्था को नए संकट का सामना करना पड़ेगा।

अमेरिका-ईरान के बीच तनातनी से युद्ध न हो इसकी चिंता वैश्विक युद्धविरोधी संगठनों को करनी चाहिए। किसी तरह यह संकट टल गया तो भारत और सम्पूर्ण विश्व के समक्ष संकट टल जाएगा। यह बात आश्वस्त करने वाली होगी। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जैसे आधुनिक और ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी जैसे मध्ययुगीन नेता की युद्धपिपासा की कीमत  अब तक 176 मासूम लोगों को निरर्थक चुकानी पड़ी है। भविष्य में इस तरह के अमानवीय भयानक परिणामों तक यह संघर्ष न पहुंचे इसका विवेक इन अमेरिका और ईरान में जागृत हो यह पूरी दुनिया के हित में है।

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