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अब और नहीं!

अब और नहीं!

by डॉ. मेघा भारती 'मेघल'
in महिला, मार्च २०२० - सुरक्षित महिला विशेषांक
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हम सभी के लिए शर्मसार होने वाली बात है कि ’घरेलू हिंसा’ को आज भी हर परिवार का आंतरिक मामला ही समझा जाता है। इन घटनाओं को रोकने के बजाय लोग इनसे दूरी बना लेना बेहतर समझते हैं। आखिर कब जागेगी दुर्गा?

जब बात होती है महिला सुरक्षा और सम्मान की तो सर्वप्रथम महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा एक अहम् मुद्दा बन कर उभर आता है। एक अरसे से महिलाएं हिंसा का शिकार रही हैं। फिर चाहे वे निजी स्तर पर हो या सार्वजनिक स्तर पर। महिलाओं के प्रति हो रहे अपहरण, बलात्कार, देह व्यापार आदि हिंसा और अपराध है। सब से घृणात्मक रूप है ’घरेलू हिंसा’ – क्योंकि इसे अंजाम देने वाले, स्त्री के सब से क़रीबी लोग होते हैं।

बार-बार अपने आत्मसम्मान से समझौता करना, अपनी इच्छाओं का दमन करना, अपने सपनों को स्वयं संजो कर स्वयं ही तोड़ देना, और भी बहुत कुछ! और ये सब महज़ इसलिए क्योंकि वे या तो किसी की बेटी है, बहन है, पत्नी है या बहू। परिवार और समाज, संबंधों और रिश्तों के नाम पर अपने अस्तित्व की आहुति दे देना – यही धर्म और कर्तव्य बताया गया है स्त्री का। कभी अपनों के लिए स्वयं को मिटा देना और कभी गैरों से जबरन मिटाए जाना।

हैरानी की बात यह है कि उसके प्रति हो रही भावनात्मक, मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक हिंसा का हर पहलू ’परिवार, समाज और संबंधों’ के नाम पर उसे स्वीकार्य भी रहा है। कुछ मामलों में तो स्थिति इतनी ख़राब होती है कि महिलाओं को ये तक पता नहीं होता कि जिन सब बातों और परिस्थितियों को वे अपना भाग्य का लिखा, माता – पिता का ़फैसला, ख़ुद का निजी निर्णय या फिर ईश्वर की इच्छा समझ कर हर क्षण बर्दाश्त कर रही है, वह दरअसल ’घरेलू हिंसा’ का ही अंग है।

किसी के ताने सहना या फिर अपने परिवार जनों या मित्रों से ना मिलना, ये सब उन्हें स्वाभाविक सा लगता है; क्योंकि वे यह मान कर चलती हैं कि शादी के बाद उनके जीवन में सब कुछ उनके पति या फिर पति के घर वालों की इच्छा से ही होगा। लेकिन ऐसा नहीं है, हर स्त्री को इस बात को समझना होगा कि आपके अपने जीवन पर सर्वप्रथम आपका और सिर्फ आपका अपना अधिकार ही होता है। तो फिर किसी अपने से मिलना या ना मिलना भी आपका ही ़फैसला होना चाहिए। आप क्या पहनेंगी? क्या खाना चाहती है? किस तरह जीना चाहती है? – ये भी आपका ही ़फैसला होना चाहिए।

किसी से मिलने जुलने पर रोक लगाना, आपके चेहरे, रंग रूप को लेकर कोई नकारात्मक बात सुनाना, आपके मायके वालों को ताना मारना, रूपए और दहेज की मांग करना, आपको खाना नहीं देना, घर का ख़र्च ना देना, आपकी इच्छा के विरुद्ध आपके पति का आपसे शारीरिक संबंध बनाना, आप पर शक करना इत्यादि जैसे मामले घरेलू हिंसा में ही आते हैं।

तो केवल यह सोच कर कि झगड़ा और मारपीट करना ही घरेलू हिंसा है, आप किसी से बाकी कोई बात साझा नहीं कर सकतीं या फिर इसके खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठा सकतीं, ऐसा सोचना ग़लत है। क्योंकि ये सब, घरेलू हिंसा के अंतर्गत ही आता है और घरेलू हिंसा क़ानून 2005 के तहत किसी भी सुरक्षा अधिकारी के पास आई. पी. सी. की धारा 489 (ए) के तहत आप अपनी शिकायत दर्ज करा सकती हैं।

शिकायत दर्ज करने के लिए घरेलू घटना रिपोर्ट या डोमेस्टिक इंसिडेंट रिपोर्ट (डी.आई.आर.) में नियुक्त सुरक्षा अधिकारी के पास आप जा सकती हैं। सरकार द्वारा हर जिले में सुरक्षा अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं, जो घरेलू हिंसा रिपोर्ट दर्ज करते हैं। कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी इसमें रिपोर्ट दर्ज कराने में अब महिलाओं की सहायता करने लगी हैं।

क़ानून में चार तरह की घरेलू हिंसा का उल्लेख किया गया है-  शारीरिक हिंसा, यौन या लैंगिक हिंसा, मौखिक और भावनात्क हिंसा और आर्थिक हिंसा।

किसी महिला के साथ मारपीट करना, उसे मारने के लिए किसी वस्तु का प्रयोग करना, उसे ठोकर मारना, उसे धकेलना या किसी भी अन्य प्रकार से उसे शारीरिक पीड़ा देना, शारीरिक हिंसा के अंतर्गत आता है।

किसी महिला को अपमानित करना, उसके साथ किसी प्रकार का दुर्व्यवहार करना, या उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा पर प्रहार करना, उसकी पारिवारिक प्रतिष्ठा पर प्रहार करना, उसके साथ बलात्कार करना, या उसे अश्लील साहित्य और तस्वीरें देखने के लिए मजबूर करना, लैंगिक हिंसा के अंतर्गत आता है।

किसी महिला के चरित्र पर आरोप लगाना या किसी भी कारण से उसे अपमानित करना, उसके लिए अपशब्दों का प्रयोग करना, मौखिक दुर्व्यवहार करना, आत्महत्या की धमकी देना, उसकी इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह कराना, मौखिक और भावनात्मक हिंसा के अंतर्गत आता है।

किसी महिला से उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके द्वारा कमाए जा रहे धन का हिसाब – किताब मांगना, उसे रोज़गार चलाने से रोकना, उसे बच्चों की पढ़ाई और पालन पोषण पर हो रहा ख़र्च ना देना, आर्थिक हिंसा के अंतर्गत आता है।

साथ ही, इस पर भी ग़ौर करें कि घरेलू हिंसा केवल ससुराल से ही सम्बन्धित नहीं होती। यदि किसी लड़की के घर वाले उसकी पढ़ाई पर रोक लगाते हैं, या उसके पहनावे पर रोक लगाते हैं या उसकी इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह कराने का प्रयास करते हैं तो यह भी घरेलू हिंसा ही है।

सभी राज्यों में महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा के आंकड़ों को जोड़ कर यह संख्या 2016 में 338954 से 2017 में ही 359849 पहुंच चुकी थी। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो एन.सी.आर.बी. के आंकड़ों के अनुसार पिछले नौ वर्षों में महिलाओं के विरुद्ध इन अपराधों में चौंकाने वाली वृद्धि हुई है। और इन मामलों से सम्बंधित शिकायतों में सर्वाधिक मामले पति और रिश्तेदारों के ख़िलाफ़ दर्ज हुए हैं।

भारतीय दंड संहिता के तहत दर्ज मामलों के आंकड़े चौंकाने वाले हैं; क्योंकि इनमें महिला अपहरण के मामले 22 फीसदी, बलात्कार के मामले 10 फीसदी और पति के द्वारा दुर्व्यवहार और प्रताड़ना के मामले कुल 33.2 फीसदी हैं। जो इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आज भी स्त्री अपने खुद के घर में भी सुरक्षित नहीं है।

घरेलू हिंसा कितनी गहरी जड़ें लिए कहां तक फैली हुई है, इसका अंदाज़ा लगा पाना भी बेहद मुश्किल है, क्योंकि, ’घर की बात’ अधिकतर घर में ही दबाई जाती है और ज़्यादातर हिंसा का शिकार ये महिलाएं भी इसमें ख़ामोश रह कर बराबर का साथ देती हैं, जो कि स्वयं एक अपराध है।

घर की बात है, बाहर गई तो परिवार का नाम ख़राब हो सकता है, गृहस्थी टूट सकती है, यह सोच कर महिलाएं या तो स्वयं को समझाती रहती हैं, नहीं तो ये सब कह कर समझाने वाले तो असंख्य होते ही हैं आसपास। जब तक सह पाती हैं, सहती हैं, और जब स्थिति बिगड़ जाए और यदि जलाई ना गईं हों, फांसी दे कर मारी ना गईं हों तो आत्महत्या के माध्यम से इस हिंसा से सदा के लिए मुक्त हो जाती हैं।

ये सब पितृसत्तामक सोच का परिणाम है। इसलिए बेहद ज़रूरी है कि हर स्त्री इस बात को समझें कि किसी दूसरे के कारण मृत्यु को गले लगाना या फिर जब तक दूसरे के हाथों आपकी हत्या न हो जाए, तब तक इन अपराधों को ख़ामोशी से सहते रहना – ग़लत है।

क़ानून में इस तरह के प्रावधान हैं जो आपको सम्मान के साथ जीने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। लेकिन इसका फायदा तभी है जब आप अपने विरुद्ध हो रहे इन अत्याचारों और हिंसा को रोकने के लिए स्वयं सामने आकर आवाज़ उठाने की हिम्मत करें। हम सभी के लिए शर्मसार होने वाली बात है कि ’घरेलू हिंसा’ को आज भी हर परिवार का आंतरिक मामला ही समझा जाता है। और सब कुछ जानते बूझते हुए भी इन घटनाओं को रोकने के बजाय लोग इनसे दूरी बना लेना बेहतर समझते हैं।

बदलते समय के साथ, देश और समाज में बेहतरी के लिए बहुत कुछ बदला है, लेकिन महिलाओं के प्रति अपराधों और हिंसा में तेज़ी से वृद्धि हुई है। स्त्री के प्रति समाज की सोच को बदलने में इतना वक़्त क्यों लग रहा है, ये हम सब के लिए एक गहन विचारणीय बात है।

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