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वीरांगणाओं की भूमि भारत

वीरांगणाओं की भूमि भारत

by पूनम नेगी
in महिला, मार्च २०२० - सुरक्षित महिला विशेषांक
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भारतीय नारी के इस शक्ति स्वरूप की विषद् व्याख्या भारतीय वाङ्मय में मिलती है। … पुराण काल से वर्तमान समय तक हमारी भारतभूमि तमाम ऐसी पुरुषार्थ साधिकाओं के शौर्य से गौरवान्वित होती आ रही है।

ऋग्वेद के देवी सूक्त में मां आदिशक्ति स्वयं कहती हैं, अहं राष्ट्रे संगमती बसना अहं रूद्राय धनुरातीमि… अर्थात मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं और मैं ही रुद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं। हमारी तत्वदर्शी ऋषि मनीषा का उपरोक्त प्रतिपादन वस्तुत: स्त्री शक्ति की अपरिमितता का द्योतक है। सनद हो कि भारत की यशस्वी संस्कृति स्त्री को विभिन्न रूपों में सम्मान देती है। वह जन्मदात्री मां के रूप में पोषक है, पत्नी के रूप में गृहलक्ष्मी तथा बहन व बेटी के रूप में घर की सुगंध। भारतीय नारी ने ममता, करुणा, दया, क्षमा, प्रेम जैसे सद्गुणों के बल पर ही नहीं; साहस व शौर्य के कारण भी समूची दुनिया में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है।

युग नायक स्वामी विवेकानंद की स्पष्ट मान्यता थी कि नारी के सशक्तिकरण से ही समाज का सशक्तिकरण संभव है। इसलिए भारतीय-संस्कृति मातृशक्ति को तीन रूपों में अभिव्यक्त करती है- बुद्धि, शक्ति और समृद्धि। इन तीनों शक्तियों के प्रतीक रूप में क्रमशः सरस्वती, दुर्गा व लक्ष्मी को प्रतिष्ठा मिली है। वैदिक काल में नारी सशक्तिकरण की इससे बड़ी स्वीकृती भला और क्या हो सकती है! भारतीय नारी की गरिमा को पोषित करते हुए हमारा ऋषि चिंतन यह उद्घोष करता है कि शक्ति के बिना शिव सिर्फ शव है। भारतीय नारी के इस शक्ति स्वरूप की विषद् व्याख्या भारतीय वाङ्मय में मिलती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मार्कण्डेय पुराण में पुरुषार्थ साधिका देवी के रूप में मां दुर्गा की अभ्यर्थना है, जिन्होंने देवताओं को आसुरी शक्तियों के विनाश से मुक्ति दिलाई। पुराण काल से वर्तमान समय तक हमारी भारतभूमि तमाम ऐसी पुरुषार्थ साधिकाओं के शौर्य से गौरवान्वित होती आ रही है।

इस दृष्टि से पूरा इतिहास का अवलोकन करें तो राजा दशरथ की तीसरी रानी कैकेयी का वीरांगना रूप इसकी एक अनूठी मिसाल है। पुराण ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि देवासुर संग्राम में युद्धरत दशरथ के रथ की धुरी को रोकने के लिए कैकेयी रथ-चक्र में अपनी अंगुली लगा कर उन्हें विजयी बनाती है। अद्भुत रामायण के अनुसार मिथिला की राजकुमारी जनक नंदिनी सीता अनुपम योद्धा भी थी। लोकप्रिय युवा उपन्यासकार अमीष त्रिपाठी के उपन्यास ‘मिथिला की वीरांगना’ में सीता के योद्धा रूप का अत्यंत रोचक वर्णन किया गया है। इसी तरह शकुंतला व दुष्यंत के पुत्र भरत ने महज तीन वर्ष की आयु में शेर के दांत गिनने के लिए अपने नन्हें हाथ जिस निर्भीकता से उसके जबड़े में डाल दिए थे; उसका श्रेय उसको साहस का संस्कार देने वाली उसकी वीर माता को ही दिया जाना चाहिए। महाकवि जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य ‘कामायनी’ में नायिका श्रद्धा ही निराश और हताश मनु को नई सृष्टि का विकास करने के लिए प्रेरित करती है। इसी क्रम में मध्ययुगीन इतिहास की वीरांगनाओं की बात करें तो रानी पद्मिनी, वीर माता जीजाबाई, महारानी दुर्गावती, महारानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं की प्रेरक गाथाएं आज भी मातृशक्ति के शौर्य का यशोगान कर अनुपम प्रेरणा दे रही हैं।

मां की ललकार ने शिवा को बनाया छत्रपति 

आज हम भारतीय जिस छत्रपति शिवाजी महराज के शौर्य को शीश झुका कर नमन करते हैं, उनमें इन वीरोचित संस्कारों का प्रस्फुटन वीर माता जीजाबाई के कारण ही हुआ था। कहते हैं कि वह शिवाजी की सिर्फ माता ही नहीं बल्कि उनकी मित्र और मार्गदर्शक भी थीं। उन्होंने जीवन भर कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने पुत्र को राष्ट्र प्रेम व समाज कल्याण का पाठ प़ढ़ाया। समर्थ गुरु रामदास की मदद से उन्होंने शिवाजी के पालन-पोषण में खुद को पूरी तरह झोंक दिया था। शिवाजी को शौर्य का पाठ पढ़ाते वक्त का जीजाबाई का एक किस्सा खासा मशहूर है। जब शिवाजी एक योद्धा के रूप में आकार ले रहे थे, तब एक दिन मां जीजाबाई ने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा, बेटा तुम्हें सिंहगड़ के ऊपर फहराते हुए विदेशी झंडे को किसी भी तरह से उतार फेंकना होगा। इस पर जब शिवाजी ने उनको टोकते हुए यह कहा कि मां! हम अभी मजबूत स्थिति में नहीं हैं इसलिए इस समय ऐसा करना अत्यंत कठिन है। कहते हैं कि शिवा के यह शब्द मां को तीर समान लगे। उन्होंने क्रोध में आकर कहा- तुम अपने हाथों में चूड़ियां पहन कर घर बैठो, मैं खुद सिंहगड़ पर आक्रमण कर उस विदेशी झंडे को उतार कर फेकूंगी। मां के इस उत्तर ने शिवाजी को हैरान कर दिया और उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से सिंहगड़ पर आक्रमण कर दिया और बड़ी जीत भी दर्ज कर मां की इच्छा पूरी की।

शौर्य की किंवदंती रानी लक्ष्मीबाई

भारत में जब भी महिलाओं के सशक्तिकरण की बात होती है तो महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की चर्चा जरूर होती है। रानी लक्ष्मीबाई ना सिर्फ एक महान नाम है बल्कि वह एक आदर्श हैं उन सभी महिलाओं के लिए जो खुद को बहादुर मानती हैं और उनके लिए भी एक प्रेरणा हैं जो सोचती है कि वे तो महिलाएं हैं वे कुछ खास कर नहीं सकतीं। देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई अपनी वीरता के किस्सों को लेकर किंवदंती बन चुकी हैं। हम सब जानते हैं कि घुड़सवारी और तलवारबाजी की धनी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने रणचंडी का रूप धर कर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेज सेना के दांत बुरी तरह खट्टे कर दिए थे। इनकी वीरता और शौर्य के किस्से आज भी जन-जन में गाये जाते हैं। सन 1855 में पति राजा गंगाधरराव की मौत के बाद जब उन्होंने झांसी का शासन सम्भाला तो अंग्रेजों ने उनको शासक मानने से इंकार कर दिया। इस अन्याय के खिलाफ लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर दी और तात्या टोपे की मदद से झांसी ही नहीं वरन ग्वालियर पर भी कब्जा कर लिया था। रानी लक्ष्मीबाई की मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा था, यहां वह औरत सोई हुई है, जो विद्रोहियों में एकमात्र मर्द थी। जानना दिलचस्प हो कि महिला नारी सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने साल 2015 में लक्ष्मीबाई महिला एवं बाल सम्मान कोष शुरू किया है। इस सम्मान कोष के माध्यम से हिंसा से पीड़ित महिलाओं के इलाज/पुनर्वास के लिए 3 से 10 लाख रुपये तक की मदद का प्रावधान है। इसका मकसद उत्तर प्रदेश में किसी भी तरह की हिंसा से पीड़ित महिलाओं को मदद करना है।

वैदिक युग में महिलाएं युद्ध में भी भाग लेती थीं। हालांकि, मध्यकाल के पुरुषवादी समाज ने नारी को कुंठित मर्यादाओं के नाम पर चार-दीवारी में कैद कर रखने में कोई कसर नहीं छोडी, परन्तु तब भी माता जीजाबाई, रानी दुर्गावती और लक्ष्मीबाई सरीखी वीरांगनाओं ने न केवल शास्त्रों से, अपितु शस्त्रों का वरण कर राष्ट्र की एकता और संप्रभुता की रक्षा की। गौरतलब हो कि एक समय था जब भारतीय सेना में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर थी लेकिन बीते कुछ सालों में इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अपने आप में एक मिसाल कही जा सकती है।

मौजूदा दौर में महिला अफसर सेना के लीगल, शिक्षा, इंजीनियरिंग, ऑर्डिनेंस, इंटेलीजेंस और एयर ट्रैफिक सिंग्नल जैसी स्ट्रीम में अपनी सेवाएं दे रही हैं। इनकी उपलब्धियों की लंबी फेहरिस्त है। बताते चलें कि पुनीता अरोरा सेना के दूसरे सबसे बड़े पद लेफ्टिनेंट जनरल बनने वाली पहली महिला अधिकारी हैं। जिन्होंने अपने 36 साल के सेवा काल में 15 सैन्य मेडल प्राप्त कर देश की मातृशक्ति को गौरवान्वित किया है। इसी तरह भारत की पहली महिला एयर वाइस मार्शल होने का गौरव डॉ. पद्मा बंदोपाध्याय को जाता है। डॉ. पद्मा भारतीय वायु सेना की एयर कमोडोर पद पर पदोन्नत होने वाली पहली महिला अधिकारी और भारत के एयरोस्पेस मेडिकल सोसायटी की पहली सदस्य भी हैं। वह उत्तरी ध्रुव में वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाली पहली भारतीय महिला हैं। इसी तरह मेजर मिताली मधुमिता भारतीय सेना में अपनी बहादुरी और विशिष्ट सेवा के लिए गैलेंट्री अवार्ड जीतने वाली पहली महिला हैं। गौरतलब हो कि वर्ष 2010 में काबुल स्थित भारतीय दूतावास के कर्मियों पर आतंकवादी हमले के दौरान महिलाओं ने साहस का परिचय दिया था और गंभीर रूप से घायल लोगों की जान बचाने में अहम् भूमिका निभायी थी। भारतीय सेना के इतिहास में पहली बार खुफिया अधिकारी लेफ्टिनेंट के पद के लिए गेनेवी लालजी नामक महिला को चुना जाना भी बेहद गौरवपूर्ण उपलब्धि है। लेफ्टिनेंट गेनेवी लालजी को सेंट्रल कमांड के जनरल ऑफिसर कमाडिंग इन चीफ की एडीसी बनाया गया है।

गौरतलब हो कि समंदर के रास्ते दुनिया की सैर यानी मिशन 21600 नॉटिकल मील; वह भी महज 55 फुट की एक छोटी सी नाव में सिर्फ हवाओं के भरोसे। ऐसे कठिन सफर की कल्पना ही सहज ही रोमांचित कर देती है। लेकिन भारतीय नौसेना की लेफ्टिनेंट कमांडर वर्तिका जोशी के नेतृत्व में इस साहसिक अभियान को पूरा करने वाली सेना की महिला ऑफिसर्स की टोली का साहस वाकई प्रणाम के योग्य है। खास बात यह है कि 2017 – 2018 में आइएनएस तारिणी नामक नौका से आठ महीनों की सागर यात्रा पर निकलने वाली नौसेना की इन छह युवा महिला अफसरों के दल में से किसी के भी पास कोई अस्त्र – शस्त्र नहीं था। इनका हौसला और ट्रेनिंग ही उनका एकमात्र हथियार था। इसी तरह वायुसेना की महिला फाइटर पायलटों (अवनी चतुर्वेदी, भावना कांत और मोहना सिंह) की तिकड़ी भी साहस व शौर्य की अनूठी मिसाल है। ये तीनों देश की पहली ऐसी युवा महिलाएं हैं, जिन्हें पिछले दिनों वायुसेना के लड़ाकू विमानों के पायलट के तौर पर कमीशन दिया गया है।

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