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डिप्रेशन को ना करें नज़रअंदाज़

डिप्रेशन को ना करें नज़रअंदाज़

by हिंदी विवेक
in महिला, मार्च २०२० - सुरक्षित महिला विशेषांक
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जरूरी है कि मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोगों विशेष कर महिलाओं में भी जागरूकता फैलें और वे अपनी परेशानियों में दब कर ना रहें। इसके लिए परिवार का संवेदनात्मक सहयोग जरूरी है।

शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक स्वास्थ्य का होना भी बेहद जरूरी होता है; मगर भारत में मानसिक स्वास्थ्य एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर लोग बात करने से कतराते हैं। जिस कारण मानसिक परेशानियों से जूझने के बावजूद भी लोग सामने नहीं आते क्योंकि उन्हें लगता है कि मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा करने पर लोग उन्हें ‘पागल’ कहेंगे। हाल ही में आई फिल्म ‘जजमेंटल है क्या’ ने एक माहौल को गढ़ने का प्रयास किया है कि लोग मानसिक स्वास्थ्य पर खुलकर बात करें।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के मुताबिक भारत की 135 करोड़ की आबादी में 7.5 प्रतिशत (10 करोड़ से अधिक) मानसिक रोगों से प्रभावित हैं। अध्ययन बताते हैं कि 2020 के अंत तक भारत की 20 प्रतिशत आबादी किसी ना किसी मानसिक रोग से ग्रस्त होगी। डब्लूएचओ द्वारा जारी आंकड़ों की बात करें तो विश्व भर में लगभग 350 मिलियन लोग अवसाद से प्रभावित होते हैं।

पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की स्थिति

पुरुषों और महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य की बात करें तो सामाजिक ढांचे के कारण महिलाओं में अवसाद के लक्षण ज्यादा देखे जाते हैं। समान्यतः एक महिला के कंधे पर ही घर की जिम्मेदारियां टिकी रहती हैं, जिस कारण वह घर के कामों में ही उलझ कर रह जाती हैं। जिससे जब वह स्वयं को एकांत में पाती हैं, उस वक्त उनके मन में अनेकों ख्याल आने लगते हैं। घर के सभी सदस्यों को एक महिला से अनेकों अपेक्षाएं होती हैं, जिसे पूरा करने में वह स्वयं को तवज्जो नहीं दे पाती।

वहीं अगर एक कामकाजी महिला की बात करें तो बढ़ती प्रतिस्पर्धा के दौर में स्वयं को साबित करने और बेहतर कार्य करने का दबाव इतना ज्यादा होता है कि वह अवसाद में चली जाती है। ऑफिस की राजनीति और काम के दबाव के कारण भी महिला डिप्रेशन में जाने लगती है; क्योंकि उसके सिर पर दोहरी जिम्मेदारी होती है। ऑफिस में हुए मनमुटाव का असर घर के संबंधों में भी दिखने लगता है और वह अपराध बोध महसूस करने लगती है।

क्या कहते हैं अध्ययन और रिपोर्ट्स

एक ताजा अध्ययन के अनुसार भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाएं डिप्रेशन और चिंता की ज्यादा शिकार होती हैं। ’द लांसेट साइकेट्री’ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक डिप्रेशन के कारण महिलाएं आत्महत्या जैसे कदम ज्यादा उठाती हैं। यह भारत में इस तरह की मानसिक बीमारियों का पहला सबसे बड़ा अध्ययन है, जिसमें पाया गया है कि साल 1990-2017 के बीच देश में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी बीमारियां दोगुना हो गई हैं। इसके साथ ही यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है।

रिपोर्ट के अनुसार, हर सात में से एक भारतीय में किसी ना किसी रूप में दिमागी बीमारी पाई गई है। इसके कई रूप हैं जिन्हें अवसाद, चिंता, सिज़ोफ्रेनिया और बायपोलर डिसऑर्डर के नाम से जाना जाता है। देश में 3.9 फीसदी महिलाएं एंग्जाइटी की शिकार हैं, वहीं पुरुषों में इसका स्तर 2.7 फीसदी ही है।

क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. बिंदा सिंह के अनुसार बदलते वक्त के साथ महिलाओं के अंदर भी सकारात्मक बदलाव हुए हैं फिर भी डिप्रेशन का खतरा बरकरार है। महिला अपने जीवन के विभिन्न चरणों में मानसिक परेशानियों का शिकार होती है। जैसे-

मासिक धर्म से जुड़ी भ्रांतियां- मासिक धर्म को लेकर आज भी समाज के एक बड़े हिस्से में खुल कर बात नहीं होती है। यही कारण है कि अधूरे ज्ञान के कारण वह चिंता और डिप्रेशन से घिर जाती है। यह स्थिति उन्हें शारीरिक के साथ ही भावनात्मक रूप से भी कमजोर कर देती है तथा उन्हें चिड़चिड़ापन और थकान महसूस होने लगती है।

शादीशुदा जिंदगी- शादी को लेकर लड़कियों में कई तरह की चिंताएं होती हैं। वे यह सोच कर डिप्रेशन में आ जाती हैं कि शादी के बाद उनकी जिंदगी कैसी रहेगी। वहीं कुछ लड़कियां अपने पति और नए परिवार से कई उम्मीदें लगा बैठती हैं, जिसके पूरे नहीं होने पर डिप्रेशन हावी हो जाता है।

गर्भावस्था और प्रसव के दौरान- गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के मन में तरह-तरह के विचार आते हैं और वे डिप्रेशन में चली जाती हैं, यही स्थिति प्रसव के दौरान भी बनती है।

डायस्टियमिया- यह डिप्रेशन का वह रूप है, जो लंबे समय तक रहता है। यह कामकाजी महिलाओं में कम मगर गृहिणियों में ज्यादा पाया जाता है। इसमें महिलाएं उदास रहती हैं तथा उनकी नींद भी कम हो जाती है। उनका आत्मविश्वास डगमगाया हुआ रहता है, जिस कारण ऐसी महिलाएं आत्महत्या अधिक करती हैं।

महिलाएं होती हैं नज़रअंदाज़

वे आगे बताती हैं कि अनेकों मामले ऐसे भी आते हैं, जहां लोग महिला के स्वास्थ्य को शुरू से नज़रअंदाज करते हैं। जिस कारण उनकी समस्या विकराल रुप लेने लगती है। हर महिला अपनी परेशानी शेयर करना चाहती है मगर बातचीत के अवसर कम होने के कारण बोल नहीं पातीं। यह स्थिति उऩ महिलाओं में ज्यादा होती है, जिनका दायरा घर तक ही सीमित रहता है। कुछ शहरी महिलाएं जो किटी पार्टियों में जाती हैं, वे अपनी बात दो लोगों के बीच कह लेती हैं, जिस कारण उऩका मन हल्का हो जाता है; मगर यह स्थिति भी बहुत कम संख्या में देखी जाती है।

डिप्रेशन को पहचानना जरूरी है

डिप्रेशन अर्थात् अवसाद के लक्षणों को पहचानना भी बेहद जरूरी होता है। जैसे-

* उदासी, खालीपन या निराशा की भावनाएं।

* गुस्से और चिड़चिड़ाहट में वृद्धि।

* सुखद गतिविधियों में भी रूचि का ना होना और लगातार बोरियत की भावना बनी रहना।

* नींद की समस्या होना।

* छोटे कार्यों में भी थकान और ऊर्जा की कमी होना।

* ध्यान केंद्रित करने और निर्णय लेने में परेशानी होना।

* काम और पेशेवर कैरियर में दक्षता की कमी होना।

* खानपान का चक्र गड़बड़ा जाना।

* जागरुकता के लिए पहल

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी परेशानियों के बढ़ने के कारण ही हर साल पूरे विश्व में 10 अक्टूबर को विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है ताकि लोग जागरूक होकर आगे आएं और अपनी समस्या को सामने रखें। इसके साथ ही भारत में मानसिक बीमारी से प्रभावित लोगों की देखभाल और उपचार के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी सुरक्षा के लिए मेंटल हेल्थ केयर एक्ट (एमएचसीए), 2017 को लाया गया है।

इसलिए जरूरी है कि मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोगों विशेष कर महिलाओं में भी जागरूकता फैलें और वे अपनी परेशानियों में दब कर ना रहें। परिवार का संवेदनात्मक सहयोग जरूरी है, अगर समस्या ज्यादा जटिल हो तो साइकोलॉजिकल काउंसलिंग और मनोचिकित्सा से परहेज़ ना करें।

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