फिल्मों में संगीत काबढ़ता शोर

उस समय एक फिल्म में एक गीतकार और एक संगीतकार होता था। अब ऐसा नहीं होता। अब फिल्म में गानों की संख्या कम होती है और गीतकार संगीतकारों की संख्या अधिक होती है। लगता है जैसे कोई प्रतियोगिता चल रही हो।

आठ साल पहले आशा भोंसले के पेडर रोड स्थित प्रभु कुञ्ज नामक उनके निवास पर उनसे मिलने का मौका मिला। बातचीत के दौरान उनके द्वारा बताई गयीं दो बातें मुझे हमेशा के लिये याद रह गयीं। पहली यह कि ‘‘जब भी मैं किसी हिंदी या मराठी फिल्म की रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो में जाती हूँ, तो सबसे पहले संगीतकार से पूछती हूं कि यह गीत किस अभिनेत्री पर फिल्माया जायेगा। अभिनेत्री की अभिनयशैली और फिल्म के प्रसंग को ध्यान में रखकर मैं पार्श्वगायन करती हूं। अतः पुरानी फिल्मों के कई गीतों को सुनते ही उस अभिनेत्री का चेहरा भी सामने आ जाता है।

उनके द्वारा बताया गया दूसरा बिंदु भी महत्वपूर्ण था। उन्होंने बताया कि पुरानी फिल्म की अभिनेत्रियां गाने की रिकॉर्डिंग के समय जानबूझकर वहां उपस्थित रहती थीं, जिससे यह समझा जा सके कि जब यह गाना चित्रित होगा तो कैसा अभिनय या नृत्य करना है। ये आशाजी के अनुभवी शब्द थे। परन्तु आज फ़िल्मी गानों के शोर -शराबे में तथा आज के गतिमान, स्पर्धात्मक और तात्कालिक सफलता प्राप्त करने की होड़ में क्या ये संभव है ? इस शोर -शराबे में कुछ ही गाने अपवाद हैं, परन्तु उनकी संख्या नगण्य है। आशिकी२ के ‘सुन रहा है न तू ’,एक विलेन के ‘गलियां तेरी गलियां ’,या ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा के ‘सूरज की बॉंहों मैं है यह ज़िंदगी ’ जैसी कुछ गिनी -चुनी रचनाओं को छोड़कर क्या सुनाई देता है ?

बबली बदमाश (शूट आउट एट वडाला ), आता माझी सटकली (सिंघम२ ) चार बोतल वोदका (रागिनी एम एम एस२ ) लुंगी डांस (चन्नै एक्सप्रेस ) गन्दी बात (आर .राजकुमार ) साडी के फाल सा (आर . राजकुमार ), चिकनी चमेली, जलेबी बाई इत्यादि जैसे गानों के बोल पढ़कर आज के गीत -संगीत और नृत्य की शैली आपके ध्यान में आ ही गयी होगी। इन गीतों के बारे में एक खास बात यह है की ये किसी भी फिल्म में चल जायेंगे।

फ़िल्मी संगीत की इस ढलान के कई सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक कारण हैं। हिंदी फिल्मों का दर्जा नीचा हो गया। साथ ही गीत -संगीत और नृत्य का भी दर्जा गिर गया।

पहले एक फिल्म निर्माण होने में कम से कम तीन चार साल लगते थे (मुगल -ए -आजम तैयार होने में तो ग्यारह साल लगे ) अतः गीत, संगीत, नृत्य के लिए मेहनत करने का समय मिल जाता था।अब समय बहुत बदल गया है। नामी कलाकारों को एक साथ लेकर बनायीं गयी फिल्म भी एक से डेढ़ साल में पूरी करनी पड़ती हैं। मुहूर्त के दिन ही फिल्म के प्रदर्शन की तारीख तय कर दी जाती है। जैसे ही कलाकारों की तारीखें मिलती हैं फिल्म का काम शुरू हो जाता है।इसी जल्दबाजी में गानों की रिकॉर्डिंग की जाती है। इस सारी जल्दबाजी में गीतों का दर्जा अच्छा कैसे रहेगा ? पहले के जमाने में किसी गाने पर निर्माता, निर्देशक, गीतकार, संगीतकार, प्रमुख कलाकार इत्यादि लोगों की लम्बी चर्चा होती थी। गीतकार की प्रतिभा के लिए यह एक आव्हान होता था। उसके द्वारा तैयार किये गए कई मुखड़ों को रद्द करने के बाद किसी एक मुखड़े के लिए सर्वसम्मति बनती थी। बनाये गये गीत की धुन बनाना उसकी संगीत रचना करना संगीतकार के लिए आव्हान होता था। इसमें कितने दिनों का समय जायेगा कोई नहीं बता सकता था। ओ .पी . रहन निर्देशित तलाश फिल्म के ’खाई है हमने कसम ’गीत की धुन एस . डी . बर्मन को लम्बे अरसे के बाद मध्यरात्रि को सूझी। वे तत्काल रहन के घर पहुंचे। इससे अपने काम के प्रति निष्ठा, प्रयत्नों की पराकाष्ठा, ईमानदारी साफ़ दिखाई देती है। हालांकि यह उस समय की सामाजिक स्थिति का प्रभाव था। अब संगीतकार मोबाइल या इंटरनेट के माध्यम से अपनी धुन गीतकार के पास भेज देते हैं। उस पर गीतकार मुखड़ा और अन्तरा फिट करने की कोशिश करता है। तैयार गाना संगीतकार के पास जाता है। उसमें आवश्यक परिवर्तन करके रिकॉर्डिंग की जाती है। आज एक ही इंस्ट्रूमेंट से सभी वाद्यों की ध्वनियां निकली जा सकती हैं।रिकॉर्डिंग के समय कभी -कभी केवल गायक उपस्थित रहता है। ऐसे में साथ काम करने का मजा और अनुभव कैसे मिलेगा ?आज कितनी गायीकाएं जानती हैं कि वे किस अभिनेत्री के लिए पार्श्वगायन कर रही हैं। कई बार तो एक गायक रेकॉेर्डिंग करके जाता है और जब गाना प्रदर्शित होता है तब उसे पता चलता है की उसके द्वारा गाया गया गाना बाद में किसी और की आवाज़ में फिर से रिकॉर्ड किया गया है।

मदर इंडिया, मुग़ल -आजम, बैजू बावरा, नागिन, गूँज उठी शहनाई, गाइड, कोहिनूर जैसी पुरानी फिल्मों में १० -१० गाने होते थे और लगभग सभी श्रवणीय होते थे। कभी कभी कोई फिल्म सामान्य होती थी परन्तु उसके गाने बहुत सुन्दर होते थे।

उस समय एक फिल्म में एक गीतकार और एक संगीतकार होता था। अब ऐसा नहीं होता। अब फिल्म में गानों की संख्या कम होती है और गीतकार संगीतकारों की संख्या अधिक होती है। लगता है जैसे कोई प्रतियोगिता चल रही हो। पहले किसी गाने को सुनकर उसके संगीत से समझा जा सकता था कि यह किस संगीतकार ने बनाया है। इसे ही संगीत क्षेत्र में ‘सिग्नेचर ट्यून ’कहा जाता था। ऐसा आज के गानों के साथ नहीं होता। आज यह उत्सुकता ही लगभग समाप्त हो गयी है कि कौन सा गाना किस संगीतकार ने बनाया है। पूरी फिल्म का कोई एक गाना भी हिट हो जाये तो बहुत है जैसी ऐसी अल्प संतुष्टि कि भावना बढ़ गयी है। चैनेलो, इंटरनेट, मोबाइल के माध्यम से सुपर हिट होने के कारण फिल्म ने चार दिन में कुछ करोड़ रुपये कमाने का शोर किया जा सकता है इस तरह की सोच व प्रवृत्ति बढ़ रही है। हैैदर, हैप्पी न्यू ईयर जैसी बड़ी फिल्में जैसे ही प्रदर्शन के लिए तैयार होती हैं, वैसे ही उसके गानों के ट्रेलर आने लगते हैं जिसे देखने कि उत्सुकता कई लोगों में होती हैं। इस ट्रेलर को सोशल साइट्स पर अच्छा प्रतिसाद मिलता है। यह आंकड़ा जब कुछ लाख तक पहुंच जाता है तो यह समझा जाता है की गाना लोकप्रिय हो गया है।

पहले के गाने देखने के लिए थियेटर में जाना पड़ता था। उस ज़माने में लाउड स्पीकर, आकाशवाणी, जूक बॉक्स जैसे थोड़े से साधन उपलब्ध थे। सन १९६७ में सबसे पहले दिल्ली में दूरदर्शन का आगमन हुआ। सन १९७२ में यह मुंबई आया। लगभग १० १सालों में यह पूरे देश में फ़ैल गया। तब सबसे पहले ’छायागीत ’ और रविवार की फिल्म के माध्यम से घर बैठे गाने देखने को मिलने लगे। सन १९८२ में एशियाड के समय रंगीन दूरदर्शन और विडिओ का आगमन हुआ। लगभग एक दशक के बाद विभिन्न चैनलों का आगमन हुआ। चौबीस घंटे समाचार और मनोरंजन का खजाना लूटनेवाले चैनलों की बारिश होने लगी। गाने सुनने के लिए हैं यह भावना पीछे रह गयी और गाने देखने के लिए बने हैं यह प्रवृत्ति आगे आई। अतः गाने सुनने में मधुर लगें इसके स्थान पर वे दिखने में अच्छे लगें इस बात पर जोर दिया जाने लगा। रिक्शा, ट्रक, बार में संगीत की बाढ़ आ गयी। यहां भी चोली के पीछे क्या है जैसे उटपटांग गानों की मांग बढ़ी।

इन सब के बीच साठ -सत्तर के दशक के गाने नए कलाकारों द्वारा गए जाने लगे, जिसे ’कवर वर्जन ’कहा गया। एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण होने लगा जो यह सोचती है थी कि गाना तो वही है न, फिर वो किसी ने भी गया हो उससे क्या फर्क पड़ता है। उनके कान ऐसे गाने सुनने के लिए भी तैयार होने लगे। शहरों में बार संस्कृति बढ़ने के कारण छम -छम गीतों की मांग बढ़ गयी। उच्चवर्गीय लोगों के पब में भी नाचने की परंपरा आ गयी। उन्हें भी शांत संगीत की जगह फ़ास्ट रिदमवाले गीत पसंद आने लगे। मुन्नी बदनाम हुई, शीला की जवानी जैसे गानों की पब कल्चर में मांग बढ़ने लगी। इस बदलती जीवनशैली में हिंदी फिल्म संगीत की शांति, नरमाई, मिठास कहां खो गयी पता ही नहीं चला। इन गानों की बढ़ती मांग और लोकप्रियता के कारण इसी तरह के गानों का निर्माण करना आवश्यक हो गया।बाजार का तो नियम ही है जैसी मांग वैसी आपूर्ति।

फिल्मों के अर्थ से मार्केट कब अधिक बलवान हो गया यह फिल्म इंडस्ट्री को भी समझ में नहीं आया। हालॉंकि इसमें स्पेशल छब्बीस, लगान, स्वदेश, मद्रास कैफ़े, मेरी कॉम, चक दे इंडिया, भाग मिल्खा भाग जैसे कुछ अपवाद भी हैं।

अर्थपूर्ण कहानी हिंदी फिल्मों की ताकत होती थी। पटकथा में गानों के लिए योग्य स्थान होता था और गानों के माध्यम से कथा आगे बढ़ती थी। आज की फिल्मों में शायद निर्देशक को यही समझ में नहीं आता की गाने कहां डाले जायें। इसलिए शायद वे फिल्म खत्म होने के बाद गाने शुरू करते हैं।

गीत, संगीत, नृत्य तो हमारे देश की संस्कृति है। हमारे सर्वधर्म समभाववाले देश में सभी धर्मों, राज्यों, भाषाओँ का अपना लोकसंगीत है। पहले के कुछ गीतकारों और संगीतकारों ने इन लोकसंगीत को अपने गानों में शामिल किया था। अतः हिंदी फिल्म जगत में देशभर के गीत -संगीत का मेल हुआ। एक दूसरे के पास पहुंचे। यहॉं हर उत्सव में गीत -संगीत नृत्य का विशेष स्थान है। जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के हर पड़ाव पर गाने होते हैं। बच्चे के नामकरण पर गीत गाए जाते हैं तो कुछ समाज में मृत्यु के समय भी गाने गए जाते हैं।

हमारे सारे जीवन से गीतों के एकरूप होने कारण हिंदी फिल्मों में गानों का होना बहुत जरूरी है और उससे भी ज्यादा जरूरी है दर्जेदार गानों का होना। विदेशी फिल्मों में कहां गाने होते हैं, भारतीय फिल्मों में भी इनकी जरूरत नहीं, ऐसी मांग करनेवालों को आम आदमी का गीत संगीत नृत्य के प्रति लगाव समझ में ही नहीं आया है और उसे फिल्मों के मामले में अज्ञानी कहा जाना चाहिए।

आजकल ‘हॉन्टिंग सांग्स ’ का चलन बढ़ गया है। हम के ‘जुम्मा चुम्मा दे दे ’गीत ने इसे शुरू किया। परदे पर नायक -नायिका के आसपास अन्य कलाकारों की भीड़ होती है। ‘किक ’के जुम्मे की रात हो ’बैंग बैंग ’के ’तुम मेरी ’ जैसे गानों में भी वही दिखाई दता है। पब -क्लब में ऐसे ही गानों का बोलबल रहता है।

हिंदी फिल्मों के गानों के चमकदार प्रस्तुतिकरण में कुछ निर्देशकों की ’मास्टरी ’ थी। उनके गानों के प्रस्तुतिकरण के लिए ’द ग्रेट ’शब्द ही उपयुक्त है। राज कपूर, गुरुदत्त, विजय आनंद, राज खोसला, मनोज कुमार और सुभाष घई की फिल्मों का खास उल्लेख किया जाना चाहिए। नई पीढ़ी की इन लोगों के गीतों के प्रस्तुतीकरण से सीखना चाहिए।

हिंदी फिल्मों की यात्रा और उसमें आई गिरावट, यह विषय कई मोड लेनेवाला है। साथ ही वह संगीत सभ्यासकों तथा फिल्म जगत के लिए भी विचारणीय विषय है। उसके सामाजिक घटक, बदलती फ़िल्में आधुनिक प्रसार माध्यम इन सभी का ‘बायपास ऑपरेशन ’ करने का विचार इस लेख में किया गया है। हिंदी फिल्मों के गीत -संगीत नृत्य केवल पर्देतक सीमित नहीं रह गए हैं। उसने आम आदमी के आनंद, भावविश्व, यादों में भी जगह बना ली है। आज के ‘मार्केट ओरिएंटेड ’ लोगों को यह समझना बहुत आवश्यक हैं।

 

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