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बंदउ गुरु पद कंज

बंदउ गुरु पद कंज

by वीरेन्द्र याज्ञिक
in जुलाई - सप्ताह दूसरा गुरु पूर्णिमा विशेष, विशेष, संस्कृति
3

गुरु वह प्रज्ञावान, ज्ञानवान महापुरुष और श्रेष्ठ मानव होता है जो अपने ज्ञान का अभीसिंचन करके व्यक्ति में जीवन जीने तथा अपने कर्तव्य को पूरा करने में उसकी सुप्त प्रतिभा और प्रज्ञा का जागरण करता है।

आज जब संपूर्ण मानवता एक अभूतपूर्व व अप्रत्याशित संकट से जूझ रही है, ऐसे समय में इस वर्ष ‘गुरु पूर्णिमा’ के पवित्र पर्व पर समाज गुरू पूजन कर रहा है। भारतीय चिंतन परंपरा और मनीषा में गुरु का स्थान सर्वोच्च है, क्योंकि वही तो व्यक्ति को, समाज को जीवन जीने की दृष्टि और ज्ञान देता है। गुरु वह प्रज्ञावान, ज्ञानवान महापुरुष और श्रेष्ठ मानव होता है जो अपने ज्ञान का अभीसिंचन करके व्यक्ति में जीवन जीने तथा अपने कर्तव्य को पूरा करने में उसकी सुप्त प्रतिभा और प्रज्ञा का जागरण करता है। इसीलिए भारतीय मनीषा कहती है –

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥

गुरु वह महापुरुष है जो अपने शिष्य को अज्ञान के अंधकार में उसकी आंखों में ज्ञान का अंजन लगाकर उसे उन्मीलित करता है, जीवन जीने की दृष्टि प्रदान करता है, ऐसे गुरु को प्रणाम है।

यही तो हुआ था कुरुक्षेत्र के मैदान में, महाभारत के युद्ध के समय, कौरव और पांडवों की सेनाएं युद्ध के लिए रणांगण में आ गईं तो पांडवों के सेनापति अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि मैं दोनों सेनाओं को देखना चाहता हूं, अत: हे कृष्ण! सेन येरु भयोर्भेद्य स्थापयित्वा रथोमाम। आप कृपया दोनों सेनाओं के बीच मेरे रथ को स्थापित करें, ताकि मैं ठीक ढंग से शत्रु पक्ष का निरीक्षण कर सकूं। कृष्ण अर्जुन के रथ को दोनों सेनाओं की मध्य में खड़ा करते हैं।

अर्जुन शत्रुपक्ष में पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, कृपाचार्य तथा अपने सगे संबंधियों को देखकर विचलित हो जाता है, उसके मन में संशय और मोह पैदा हो जाता हैः

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।

हे कृष्ण! मेरा मुंह सूख रहा है, मेरा शरीर कांप रहा है, मेरे मन में युद्ध की इच्छा समाप्त हो गई है, मैं युद्ध नहीं करूंगा। तब कृष्ण कहते हैंः

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।

तुम्हारे मन में यह विकार, यह पाप कैसे आ गया और अर्जुन तब कृष्ण को गुरु रूप में मान कर उनसे प्रार्थना करते हैंः

कार्पण्य दोषो पहत स्वभाव, पृच्छामि त्वां धर्म संमूढ चेता।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं बृहि तन्मे, शिष्यस्तेशाधिमां त्वां प्रपन्नम्॥2/7॥

हे कृष्ण, मेरे स्वभाव में कायरता, कृपणता आ गई है, मुझे अपना धर्म (कर्तव्य) विस्मृत हो गया है, अतएव जो मेरे लिए श्रेयस्कर और मंगलमय है, उसके लिए मेरा मार्गदर्शन करो, मैं तुम्हारा शिष्य हूं, मुझे निर्देश दो ऐसे संकटापन्न स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए? और तब गीता का उपदेश भगवान रणभूमि में देते हैं। उस उपदेश को हृदयंगम करके अर्जुन पुनः स्वस्थ होते हैं। किंतु कृष्ण अपने पूरे गीतोपदेश में कहीं भी अपनी बात अर्जुन पर लादते नहीं और न ही उसके लिए आग्रह करते हैं। कृष्ण ने अंत में अर्जुन से कहा और सच्चा गुरु भी यही कहता है-

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥

मैंने जीवन की बड़ी से बड़ी बात तुम्हें बता दी है, अब इस पर हे अर्जुन तुम विचार करो और उसके बाद तुम्हारी जो इच्छा हो वह करो। अर्जुन ने कृष्ण को गुरु के रूप में प्रणाम किया और कहा-

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।
॥18.73।

हे कृष्ण, मेरा मोह, मेरा भ्रम समाप्त हो गया है। श्रुति कथा अर्थात मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना इसका ज्ञान हो गया है। अब आपने जो मुझे उपदेश दिया है, निर्देश दिया है, तदनुसार मैं इसका पालन करूंगा और अर्जुन पुनः युद्ध के लिए सन्नद्ध होते हैं और उनके नेतृत्व में पांडवों को विजय प्राप्त होती है।

उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति के जीवन में किसी श्रेष्ठ व्यक्ति, मार्गदर्शक और गुरु की भूमिका बहुत ही महत्व की है, इसीलिए भारतीय जीवन पद्धति में गुरु को भगवान या उससे भी बढ़कर बताया गया है, क्योंकि कबीर ने तो कहा कि गुरु तो ईश्वर से भी बढ़कर है, गुरु हो तो बताता है कि ईश्वर कौन है और उसको कैसे प्राप्त किया जा सकता है।
यही बात तो पूछी थी युवक नरेंद्र ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस से कि क्या आप मुझे ईश्वर के दर्शन करा सकते हैं, तब स्वामी रामकृष्ण ने नरेंद्र को कहा- बिल्कुल। नरेंद्र ने फिर पूछा कैसे, स्वामी ने कहा- वैसे ही जैसे तुम मुझे या मैं तुम्हें देख रहा हूं। युवा नरेंद्र ने स्वामी रामकृष्ण के शिष्यत्व को स्वीकार किया और वे स्वामी विवेकानंद के रूप में संपूर्ण विश्व को उपहार के रूप में प्राप्त हुए, जिन्होंने विश्व पटल पर हिंदुत्व और हिंदू धर्म की श्रेष्ठता को भारत के जनमानस में अभूतपूर्व आत्मविश्वास का संचार किया।

इसी प्रकार ‘नेशनल हेराल्ड’ अंग्रेजी समाचार पत्र में काम करने वाले पत्रकार श्री बालकृष्ण मेनन, ऋषिकेश स्वामी शिवानंद आश्रम में, अपनी पत्रकारिता का धर्म निभाने गए थे। उनका उद्देश्य था कि वे साधु, संतों की गतिविधियों को उजागर करेंगे। किंतु उनका जब स्वामी शिवानंद से साक्षात्कार हुआ तो उस महापुरुष के संस्पशर्र् से बालकृष्ण मेनन फिर ऋषिकेश से ऋषि बनकर ही निकले और संपूर्ण विश्व में स्वामी चिन्मयानंद के नाम से समाहित हुए और चिन्मय मिशन की स्थापना की। संपूर्ण विश्व में गीता ज्ञान का प्रचार प्रसार करने में आज चिन्मय मिशन अग्रणी भूमिका का निर्वाह कर रहा है। यह सर्वविदित है कि मुंबई के चिन्मय मिशन के सांदीपनी आश्रम में स्वामी चिन्मयानंद जी की अध्यक्षता में 29 अगस्त 1964 में संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूजनीय श्री गुरुजी की प्रेरणा में विश्व हिंदू परिषद की स्थापना हुई थी।

सुप्रसिद्ध विचारक चिंतक रंगाराजन कहते हैं- गुरु वह है जो आप को मुक्त कर दें। यह गहन प्रेम, श्रद्धा, समर्पण और विश्वास का संबंध होता है। गुरु सृजन करता है, रूपांतरित करता है और जिज्ञासु को नव जीवन प्रदान करता है। गुरु में अवर्णनीय गुरुत्वाकर्षण होता है, एक अनवरत आकर्षण-आमंत्रण होता है, जो सचमुच चुंबकीय होता है। गुरु एक सानिध्य है, एक ऐसा सानिध्य जो आपके पूरे व्यक्तित्व को ही रूपांतरित कर देता है।

यह सच है कि गुरु आपको आपके कर्तव्य और दायित्व सेे युक्त भी करता है और मुक्त भी करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक परम पूजनीय रज्जू भैया का भी इसी प्रकार रूपांतरण हुआ था। वर्ष 1942 में उन्होंने पू. भाऊराव देवरस जी की प्रेरणा से संघ की भारद्वाज शाखा में प्रवेश किया था। उस समय वे तो प्रयाग विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के विद्यार्थी थे, किंतु संघ की शाखा और कार्यक्रम में वे स्वयंस्फूर्त भाव से सक्रिय हो गए। तथापि उनका रूपांतरण तो वर्ष 1943 में ही हो गया था, जब वह एमएससी कर रहे थे, तभी परम पूजनीय श्री गुरुजी के दर्शन और उनका बौद्धिक संघ शिक्षा वर्ग में सुना था। ‘शिवाजी का जयसिंह को पत्र‘ विषय पर पू. गुरुजी के बौद्धिक ने रज्जू भैया को पूरी तरह से राष्ट्र और हिंदू समाज के प्रति समर्पित होने की प्रेरणा दी, जिनके बारे में महान वैज्ञानिक डॉ. होमी जे भाभा ने प.पू. श्रीगुरुजी से कहा था कि आपने विश्व के प्रसिध्द भावी वैज्ञानिक को उनसे छीन लिया है। बाकी शेष बातें अब इतिहास है।

तथापि, हमारे शास्त्र एक और बात की ओर भी इशारा करते हैं कि गुरु को खोजने या ढूंढने की आवश्यकता नहीं होती। यदि गुरु खोजने के लिए जाओगे तो फंसोगे, तुम्हारा अपहरण होगा, तुम्हारा शोषण हो सकता है। क्योंकि यह कलयुग है, जब त्रेता युग में भगवती सीता का हरण रावण ने किया था, तो साधु बनकर ही आया था और सीता जी को लक्ष्मण रेखा लांघने के लिए विवश किया था। वर्तमान में ऐसी अनेक प्रणालियां, प्रवृत्तियां चल रही हैं। गुरुउम एक नए शब्द का प्रयोग हो रहा है और उसके कारण गुरु शब्द और गुरु संस्था का अवमूल्यन भी हुआ है। उससे बचने की आवश्यकता आज सबसे अधिक है। अतएव हमारी सनातन परंपरा के ऋषि कहते हैं गुरु खोजने मत जाओ, बल्कि स्वयं के अंदर अधिकारी शिष्य बनने की पात्रता पैदा करो। अधिकारी शिष्य को कहीं गुरु खोजने की आवश्यकता नहीं होती, वह स्वयंमेव प्राप्त होते हैं। आचार्य शंकर को भगवत गोविंदपाद को खोजना नहीं पड़ा, वे स्वयं नर्मदा के तट पर उन्हें मिले और बाद में शंकर आद्य शंकराचार्य के रूप में प्रसिद्ध हुए। जब व्यक्ति के भीतर जिज्ञासा जागृत होती है चाहे वह लौकिक हो, सांसारिक हो या आध्यात्मिक हो तो उसे स्वयं कोई अधिकारी गुरु मिल जाता है और जीवन सार्थक ही नहीं समृद्ध होता है।

गुरु वह तत्व है जो अधिकारी शिष्य के मन में प्यास को जगाता है या यह भी हो सकता है कि देव योग से संयोग से किसी अधिकारी सद्गुरु को अच्छा शिष्य मिल जाए। यह भी हो सकता है कि जो शिष्य मिला है, वह सक्रिय ना हो, उसमें जिज्ञासा का भाव ना हो, लेकिन गुरु उस व्यक्ति में कुछ चिंगारी को जागृत कर दे। रामायण का प्रसंग है कि सीता की खोज के लिए सभी बंदर, भालू, जाम्बवान, अंगद, हनुमान के नेतृत्व में सागर के किनारे बैठे हैं। समुद्र पार करके लंका कौन जा सकता है, किसमें इतना सामर्थ्य है, इस पर विचार विमर्श चल रहा है। तभी सद्गुरु रूप में जाम्बवान की दृष्टि हनुमान पर पड़ती है।
सद्गुरु अपनी दृष्टि से सुयोग्य शिष्य को पहचान लेते हैं। जांब्मवान हनुमान से कहते हैं- तुलसी ने लिखा, हे हनुमान-
कवन सो काज कठिन जग माहीं, जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।

राम काज लगि तब अवतारा, सुनतहिं भयउ पर्बताकारा – ऐसा कौन सा काम है हनुमान जो तुम्हारे लिए कठिन है, जो तुम नहीं कर सकते हो, तुम्हारा तो जन्म ही राम कार्य के लिए हुआ है। श्री हनुमान जो अब तक अपनी सामर्थ्य और शक्ति को भूले बैठे थे, आत्मविश्वास से भर गए, पर्वताकार शरीर हुआ, लंका गए और सीता का पता लगाकर सफलतापूर्वक वापस आए। तो कभी-कभी गुरु भी अपने पात्र शिष्य को खोजता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने प.पू. गुरुजी के व्यक्तित्व में एक विलक्षण तथा दैवी संपदा से युक्त व्यक्ति को पहले ही पहचान लिया था। प. पू. गुरुजी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व को आज संघ के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है।

भारतीय आर्ष परंपरा में पूर्णिमा तिथि का बड़ा महत्व है। वर्ष की बारह पूर्णिमा हमें जीवन की संपूर्णता के लिए अलग-अलग संदेश देती है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा भी कहीं जाती है। भगवान वेदव्यास, जिन्होंने वेदों को संहिता बध्द किया, अठारह पुराणों की रचना की, विश्व के सबसे बड़े 1 लाख श्लोकों में निबध्द महाभारत की रचना की, ऐसे व्यास भगवान और उसी परंपरा में आचार्यों, भौतिक तथा आध्यात्मिक जगत के सभी विद्वानों महापुरुषों को प्रणाम तथा उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का पर्व गुरु पूर्णिमा के अवसर इस श्लोक से सबको प्रणाम करें-

न धर्मनिष्ठोऽस्मि न चात्मवेदी, न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविन्दे।
अकिंचनोऽनन्यगति: शरण्य ! त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये॥

अर्थात हे शरण्य, हे सद्गुरु, हे प्रभु न मैं धर्म निष्ठ हूं, न आत्मावचन आपके चरण कमलों में भक्तिमान ही हूं। कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि समस्त साधनों से रहित अकिंचन होकर और सबका सहारा छोड़कर अनन्य गति होकर मैं आपके चरणों की शरण ग्रहण करता हूं।

तस्मै श्री गुरुवे नमः
——–

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वीरेन्द्र याज्ञिक

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Comments 3

  1. Anonymous says:
    2 years ago

    to शिष्यस्तेहंशाधिमां

    Reply
  2. Anonymous says:
    2 years ago

    Please correct शिष्यस्तेशाधिमां

    Reply
    • Anonymous says:
      2 years ago

      to शिष्यस्तेहंशाधिमां

      Reply

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