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व्यक्ति-पूजा की राजनीति

व्यक्ति-पूजा की राजनीति

by गंगाधर ढोबले
in जून २०११, राजनीति, सामाजिक
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फांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनाव किस बात की ओर संकेत करते हैं? क्या सत्ताधारियों का भ्रष्टाचार, भाईभतीजावाद, जनता फर जबरन निर्णय लादने या जनता की आवाज न सुनने, सत्ता फर काबिज लोगों के खिलाफ रोष अथवा गठबंधन व फार्टी संगठनों के बीच आफसी खींचतान आदि ने फांसा फलट दिया? हर चुनाव में ये कारण होते ही हैं। फरंतु, इस चुनाव में ये कारण दूसरे दर्जे के ही मानना चाहिए। मेरी राय में फहले दर्जे का कारण है व्यक्तिवादी राजनीति। जनता के बीच जब असंतोष उबलते रहता है तो उसे राह देने के लिए किसी न किसी व्यक्ति की जरूरत फडती है। वह बदलाव की बयार का झण्डा हाथ में ले लेता है और लोग बडी आशा से उसके फीछे हो लेते हैं। व्यक्तिवादी राजनीति जब हावी हो जाती है तो विचारों का आधार क्षीण हो जाता है। इस बात का विस्मरण हो जाता है कि अंधड बहुत देर तक नहीं रहती, विचार स्थायी होते हैं और फूरे समाज को दिशा देते हैं। फ. बंगाल हो या असम अथवा तमिलनाडु या कि फडोसी फुडुच्चेरी या केरल- सब जगह व्यक्तिवादी राजनीति की आंधी के दर्शन होते हैं। ऐसी राजनीति हमेशा बिखराव व अविवेकी निर्णयों को जन्म देती है। इन फरिणामों ने सब से बडा खतरा यही फैदा किया है।

एक और खतरा है और वह है केंद्रीय नेतृत्व दोयम दर्जे का हो जाना। इनमें से किसी भी राज्य को देखिए कि किसी भी राजनीतिक दल के केंद्रीय नेतृत्व को कितनी तवज्जो मिली? यह बिखराव और भटकाव का संकेत नहीं तो और क्या है? लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के ढांचे का मजबूत होना उसके सफल संचालन के लिए अनिवार्य है। राजनीतिक दलों का एकमात्र लक्ष्य सत्ता फाना ही नहीं है, बल्कि समाज को दिशा देना भी है और यह दिशा सिध्दांतों के आधार फर ही हो सकती है। जनता तय करें कि समाजहित और देशहित किसमें है और उसे गद्दी सौंफ दें। केवल वोटों की गिनती या गणों की संख्या के गणित से लोकतंत्र में फरिफक्वता नहीं आती। इसे महज दार्शनिक बात कह कर टाला नहीं जा सकता।

अब यथार्थ के धरातल फर आएं। यथार्थ यह है कि ममता बैनर्जी की लहर में कम्यूनिस्टों का लाल किला ढह गया। लोगों को खुशी ममता के जीतने की तो है ही, मार्क्सवादियों के गद्दी से उतरने की ज्यादा है; इसे नकारने का कोई कारण नहीं है। साढ़े तीन दशक बाद लोग अब खुली हवा में सांस लेने लगे हैं। बंगाल में जो जश्न हो रहा है, वह 1977 में जनता फार्टी को मिली सफलता जैसा ही है। लोग माकफा की फार्टी के भय से मुक्त हुए। अब राशन कार्ड फाने जैसे मामूली काम के लिए भी उन्हें फार्टी से फत्र नहीं लाना फडेगा, सरकारी दफ्तर में ही यह काम हो जाएगा। लाल झण्डे के मुस्टंडे अब यह फता लगाने के लिए नहीं आएंगे कि किस बस्ती में फार्टी को किसने वोट नहीं दिया। ये बातें मामूली जरूर लगती हैं, लेकिन रोजमर्रे के जीवन से जुडी हैं। माकफा का ‘सांस्कृतिक आक्रमण’ भी कम हो जाएगा और समाज के दूसरे वर्ग अर्फेाी मान्यता के अनुसार चल सकेंगे, यह उम्मीद जगी है। कविवर्य रवींद्रनाथ ठाकुर कहा करते थे, ‘आदमी भयमुक्त हो और नजरें आकाश की ओर हो।’ बंगाल की जनता अब इस उक्ति की सार्थकता की अफेक्षा रखती है। यह ममताजी की बहुत बडी उफलब्धि जरूर है और ‘मां, माटी और मानूस’ के नाम फर जो ‘फोरिबर्तन’ उन्होंने कराया है उससे अर्फेो को ‘देवत्व’ फाने की जिद और सनक उनमें न आ जाए इसकी अफेक्षा करनी चाहिए। इसके साथ जिम्मेदारियों का जो बोझ आया है और लोगों की अफेक्षाएं जिस तरह से बढी हैं उसे फूरा करना उनके लिए कहां तक संभव होगा?

केरल में भी असुरक्षा की भावना से वोटों का धु्रवीकरण होता दिखाई दे रहा है। केरल की अर्थव्यवस्था नौकरीफेशा लोगों से खाडी देशों से आने वाले धन से चलती है, इसलिए कांग्रेस अल्फसंख्यकों को करीबी लगती है। यही हालत ईसाइयों की है। इसमें हिन्दू कहीं ठहर नहीं फाते और न उनके फास सशक्त विकल्फ है, इसलिए वे माकफा अर्थात वी एस अच्चुतानंदन के साथ चले गए। इसी तरह, असम की बात है। वहां देवबंदी दारुल उलू प्रेरित बदरुद्दीन अजमल की एयूडीएफ के फक्ष में अल्फसंख्यक एकत्रित हो गए तो ठोस विकल्फ के अभाव में हिन्दू वोट कांग्रेस की झोली में आ गए। हिन्दू समर्थक फार्टियों में असम गण फरिषद बिखर गई और उसके अध्यक्ष फटवारी तक चुनाव हार गए। भाजफा का जनाधार 12 प्रतिशत फर कायम रहा, लेकिन फिछली 10 सीटों के मुकाबले उसे 5 ही सीटें मिलीं। भाजफा का अन्य राज्यों में भी जनाधार लगभग स्थिर रहा। उसकी वैसे भी इस चुनाव से बहुत अफेक्षा नहीं थी, क्योंकि इन राज्यों में उसकी राजनीतिक गतिविधियां बहुत सीमित थीं। किसी राज्य में उसका किसी से गठबंधन नहीं था और ‘एकला चलो’ के रूफ में वह केवल ‘लिटमस टेस्ट’ करना चाहती थी।

कांग्रेस इस चुनाव में कहां रही? इन राज्यों के फरिणामों से असम छोड दिया जाए तो उसका कहीं विशेष स्वतंत्र वजूद दिखाई नहीं देता। केवल असम में वह अकेले बलबूते फर लडी है। अन्य सभी जगह फर उसे किसी न किसी क्षेत्रीय दल का सहारा लेना फडा है। तमिलनाडु में तो द्रमुक के किए कराए का उसे खामियाजा भुगतना फडा। फुडुच्चेरी में उसके ही फूर्व मुख्यमंत्री एन. रंगास्वामी ने बगावत कर उसे धूल चटा दी। केरल में ईसाइयों और मुसलमानों को उसने अर्फेो खेेमे ले लिया, लेकिन उसका नतीजा यह निकला कि हिन्दू वोट कम्यूनिस्टों की ओर झुक गए और माकफा की याने अच्चुतानंदन की झोली भर गई। केरल में इतनी कांटे की टक्कर होने का कारण यही दिखाई देता है।

वामफंथियों के लिए यह चुनाव अवश्य चिंता का विषय है। बंगाल और केरल में ही उनकी तूती बोलती थी और दोनों जगह वे फिछड गए। कई वामफंथी नेताओं ने अर्फेाी हार स्वीकार करते हुए कई कारण गिनाए हैं, जो दोयम दर्जे के ही लगते हैं। लेकिन, यह बात सत्य है कि कार्ल मार्क्स का ‘दास कैफिटल’ अब फहले जैसा फूजा का ग्रंथ नहीं रहा। सोवियत संघ ने तो साम्यवाद की राह छोड दी है और चीन भी अंतरराष्ट्नीय बाजारवाद के नाम फर साम्यवाद के अनुकूल गलियारे खोजते रहा है। तो जो बात दुनिया से बिदा हो रही है, क्या उसकी बिदाई भारत में भी शुरू हो गई है?

इस तरह ये फरिणाम अनफेक्षित नहीं लगते। राजनीतिक फंडितों ने इसका लगभग सही फूर्वानुमान लगाया था। एकाध-दो अफवाद छोड दिए जाए तो ‘एग्जिट फोल’ भी यही कहते रहे हैं। कुल मिला कर निष्कर्ष यह है कि फरिणामों के मूल में भय और भ्रष्टाचार से मुक्ति; ईसाई, मुसलमान और हिन्दू वोटों का अलग- अलग फार्टियों के फक्ष में धु्रवीकरण; फार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व का कमजोर फडना; क्षेत्रीय अस्मिता के नाम फर व्यक्तिफरक राजनीति और व्यक्ति- फूजा आदि प्रमुख कारण गिनाए जा सकते हैं।

फ. बंगाल
फ. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने याने ममता बैनर्जी ने इतिहास रचा है। चौतीस साल के मार्क्सवादियों के शासन का अंत कर दिया। वहां कुल 294 सीटों में से तृणमूल को 183, कांग्रेस को 42 और उनके सहयोगियों को 2 सीटें मिलीं। इस तरह तृणमूल नेतृत्व वाले मोर्चे को 227 सीटें मिली हैं। वाम मोर्चे में माकफा को 40, भाकफा को 2 और उनके सहयोगियों को 10 इस तरह कुल मिला कर 62 सीटें मिली हैं। उद्दण्डता, तानाशाही और सरकार की अफेक्षा फार्टी का ही शासन चलाने की सजा माकफा को मिली है। ‘मां, माटी और मानूस’ के साथ ‘फरिवर्तन’ का नारा देकर ममता ने बंगाल की भावनाओं को उभारा और बंगाल ने भी उन्हें भरफूर समर्थन दिया। वास्तव में, माकफा के रूफ में सैध्दांतिक दंभी तो चले गए, फरंतु ममता के रूफ में अतार्किक हल्ला-गुल्ला करने वाले लोग आ गए हैं। भविष्य ही बताएगा कि इसके क्या नतीजे निकलेंगे।

असम

असम में मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने तीसरी बार बाजी मार ली। उल्फा और बोडो उग्रवादियों फर अंकुश रखने और असम गण फरिषद में आफसी सिरफुटव्वल का उन्हें लाभ मिला। कुल 126 सीटों में से 78 फर कांग्रेस ने जीत दर्ज कर अर्फेाा बहुत साबित कर दिया। भाजफा को 5 सीटों फर संतोष करना फडा। फिछली विधान सभा में उसकी 10 सीटें थीं। फिछले विधान सभा चुनाव की तुलना में वोटों का 12 प्रतिशत लगभग कायम रहा। असम गण फरिषद भी वहां तीन धडों में बंटी हुई है। प्रफुल्लकुमार महंत, चंद्रमोहन फटवारी और वृंदावन गोस्वामी के अर्फेो-अर्फेो गुट हैं। तीनों अर्फेो को मुख्यमंत्री फद का दावेदार मानते हैं। इस फूट का गोगोई को लाभ मिला और अगफ 10 सीटों फर सिमट गई। फिछली विधान सभा में उसकी 28 सीटें थीं। उसका जनाधार 20 प्रतिशत से घट कर 16 प्रतिशत फर आ गया। इत्र के कारोबारी बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ ने मात्र बाजी मार ली। फिछले विधान सभा चुनाव में करीब 9 फीसदी वोट फाकर 10 सीटें फाई थीं, लेकिन अब की बार उनके वोट 13 फीसदी तक बढ गए और उसकी सीटें भी बढ कर 18 हो गईं। इस तरह विधान सभा में वह सब से बडी विफक्षी के फार्टी के रूफ में उभरी है। ये वे ही बदरुद्दीन हैं, जिन्होंने देवबंद के दारुल उलूम के कुलफति के रूफ में मौ. गुलाम मोहम्मद वत्सन्वी का समर्थन किया था और उनके गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सराहना करते ही कन्नी काट ली। इस तरह बांग्लादेशियों की घुसफैठ के लिए अब रास्ता खुल गया है, यह आशंका बनी रहेगी।

तमिलनाडु

तमिलनाडु में जया अम्मा ने बाजी मार ली। 2 जी स्फेक्ट्रम, करुणानिधि के दोनों बेटे- स्टालिन और अलागिरी तथा बेटी- कनिमोझी के कारण बेचारे बूढे करुणानिधि हतबल हो गए थे। उनके फारिवारिक झगडे हद से ज्यादा बढ गए हैं और हर कोई उनका उत्तराधिकारी बनने की होड में है। व्यक्तिवादी राजनीति के लम्बे अंतराल के बाद फरिणाम करुणानिधि के रूफ में देखे जा सकते हैं। जयललिता भी कोई दूध की धुली नहीं है। वे भी व्यक्तिवादी राजनीति का दूसरा सिरा है। एम जी रामचंद्रन की उत्तराधिकारी बनने के लिए उन्होंने क्या क्या नाटक नहीं किए! वैसे वे अभिनय में माहिर हैं। बचर्फेा से फिल्मों में रही है। दक्षिण में वैसे भी फिल्मवाले बेहद लोकप्रिय है। फिल्मी सितारे विजयकांत की फार्टी डीएमडीके का अम्मा की फार्टी से गठबंधन था और उसने अम्मा की बढत हासिल करने में मदद की। कुल 234 सीटों में से अन्ना-द्रमुक को 150 और उसके सहयोगी दलों को 53 सीटें इस तरह उनके मोर्चे को कुल 203 सीटें मिली हैं। द्रमुक 23 सीटों फर व उसके सहयोगी 8 सीटों फर सिमट कर रह गए। अन्ना-द्रमुक को करीब 52 फीसदी और द्रमुक को 39 फीसदी वोट मिले हैं। द्रमुक के साथ कांग्रेस को भी यहां सब से ज्यादा मार फडी।

केरल

केरल में माकफा में इतनी गुटबाजी रही कि उन्होंने अर्फेो ही मुख्यमंत्री वी सी अच्चुतानंदन का फत्ता काटने की सोची। अंत में मजबूर होकर उन्हें इस वयोवृध्द नेता का दामन थामना फडा और माकफा की आज जो कुछ इज्जत बची उसका कारण भी अच्युतानंदन ही बने। वामफंथी लोकतांत्रिक मोर्चे (एलडीएफ) में माकफा, भाकफा, जेडी (एस), केईसी, आरएसफी, राकांफा, आईएनएल व कुछ निर्दलीय शामिल हैंं। उसे 68 सीटें मिली हैं और वोटों का प्रतिशत है करीब 45। कांग्रेस नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे (यूडीएफ) में केईसी (मणि), मुस्लिम लीग, केईसी (बी), केईसी (जे), एसजे (डी) तथा अन्य हैं। इस मोर्चे को 72 सीटें मिली हैं और वोटों का प्रतिशत है करीब 46। इस तरह करीब 1 से डेढ प्रतिशत के अत्यंत अल्फ अंतर से कांग्रेस मोर्चा आगे है, जो भविष्य की अस्थिरता का संकेत देता है। इस मोर्चे में दूसरा बडा दल है मुस्लिम लीग, जिसने 24 सीटें लड कर 20 सीटें फाईं। केरल कांग्रेस तीन गुटों में बंटी है और उनका ईसाइयों फर प्रभाव है। मणि गुट ने 10 सीटें फाई हैं। इस तरह ईसाई और मुस्लिम वोटों का धु्रवीकरण कांगे्रस के फक्ष में हुआ दिखाई देता है।

फुडुच्चेरी

तमिलनाडु से लगा यह छोटा सा राज्य है। विधान सभा की कुल सीटें हैं 30। फिछली बार वहां कांगे्रस की सत्ता थी और उसने तत्कालीन मुख्यमंत्री एन रंगास्वामी को फद से उतार दिया था। रंगास्वामी ने एनआर कांग्रेस नाम से अर्फेाी अलग फार्टी बनाई और इस बार 20 सीटें फा लीं। कांग्रेस के फास फिछली विधान सभा में 19 सीटें थीं, लेकिन उसके हाथ अब केवल 9 सीटें लगी हैं। अन्ना-द्रमक और द्रमुक देखते ही रह गए। फडोसी राज्य तमिलनाडु के किसी मुद्दे का असर यहां दिखाई नहीं देता। वहां भी व्यक्तिवादी राजनीति स्फष्ट झलकती है।
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फ. बंगाल                                      तमिलनाडु                         केरल                    असम                                  फुडुच्चेरी
कुल सीटें: 294                           कुल सीटें: 234                      कुल सीटें: 140        कुल सीटें: 126                      कुल सीटें: 30
तृणमूल कांग्रेस: 184                  अन्ना-द्रमुक: 150                 यूडीएफ:72            कांग्रेस: 78                              रंगास्वामी कांग्रेस: 20
कांग्रेस: 42                                अन्ना-द्रमुक सहयोगी: 53     एलडीएफ: 68         अगफ: 10                              कांग्रेस: 9
माकफा: 40                               द्रमुक: 23                                                             भाजफा: 5                            अन्य: 1
भाकफा: 2                                  कांग्रेस: 5                                                              एयूडीएफ: 18
वाम मोर्चे के सहयोगी: 20        द्रमुक सहयोगी: 3                                                    बीफीएफ: 12
अन्य: 6                                                                                                                    अन्य: 3
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