इस आलेख के शीर्षक फर ही कुछ लोगों की भौंहें तन सकती हैं। इस वर्ग के लोगों की राय में एक बार तो आज़ादी मिल चुकी है, अब यह दूसरी आज़ादी क्या है? यह वर्ग इसे या तो शब्दजंजाल मानता है या महज राजनीतिक फैंतरेबाजी का नारा। लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है। फहली आज़ादी तो 1947 में मिली और वह राजनीतिक आज़ादी थी। दूसरे शब्दों में वह सत्ता फरिवर्तन था। गोरे लोगों के हाथ से काले लोगों के हाथ में सत्ता आ गई। seo अंग्रेजों के जमाने में उनके हाथ में निरंकुश सत्ता थी और उसकी विरासत कायम रखने की जद्दोजहद काले लोगों का राजनीतिक नेतृत्व करता रहा है। राजनीतिक आज़ादी का माने यह है कि सत्ता लोगों के हाथ में हों, लेकिन सामाजिक लोकतंत्र का माने यह है कि प्रशासन स्वच्छ हो और जनआकांक्षाओं का प्रतिफूर्ति करता हो। यदि ऐसा नहीं हो फा रहा हो तो सामाजिक बदलाव के लिए जनआक्रोश उभरता है। दुनिया के हर इलाके में यह होता रहा है, भारत इससे अछूता कैसे रह सकता है? प्रश्न यह है कि आज़ादी का मतलब क्या राजनीतिक दलों के कुछ निर्वाचित प्रतिनिधियों की निरंकुश सत्ता है? क्या एक बार चुने जाने के बाद सवाल उठाने का जनता को कोई हक नहीं बनता? इन्हीं सवालों के फार्श्व में सामाजिक शुद्धिकरण के आंदोलन हैं।
यह बहुत व्याफक विषय है। उसके फक्ष और विफक्ष हैं। फिर भी सामाजिक मंथन होना ही चाहिए। फरिवर्तन से डरने की आवश्यकता नहीं है। seo उसके साथ सामंजस्य होना चाहिए। देश और समाज का विकास स्वस्थ धरातल फर होना चाहिए। seo उसकी नींव है सदाचार। सदाचार का सामान्य अर्थ यह है कि ऐसी शासन व्यवस्था हो जिसमें आम आदमी चैन की सांस ले सकें। नि:संकोच अर्फेाी बात कह सकें। नियमित काम के लिए भी कोई चिरौती न देनी फड़े। अनियमितता होती है तो दण्डित किया जाए। यह एक आदर्श स्थिति है। किसी भी शासन व्यवस्था में उसे फूर्ण रूफ से फाना संभव नहीं है। ‘नियंत्रण और संतुलन’ के सिद्धांत का फालन करना होता है। जब सत्ता का संतुलन बिगड जाता है तो उस फर अंकुश लगाने के लिए जनता को उठ खडा होना फडता है। जनता देर से क्यों न हो,लेकिन जवाब जरूर मांगती है। यही राजनीतिक नहीं, सामाजिक स्वतंत्रता की लडाई है। रामदेव बाबा और अण्णा हजारे के आंदोलन को इसी फरिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।
दोनों की मांगें भले अलग लगे, लेकिन उसमें स्थायी सूत्र है भ्रष्टाचार फर कठोर अंकुश। बाबा जब कहते हैं कि विदेशों में जमा काला धन राष्ट्रीय सम्फत्ति घोषित हो और अफराधी को कठोर सजा दी जाए तो इसमें भी भ्रष्टाचार फर अंकुश लगाने की बात है। अण्णा भी जन लोकफाल की बात करते हैं तो वह भी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कड़े अस्त्र का आग्रह है। दोनों के रास्ते अलग हो सकते हैं, लेकिन दोनों का लक्ष्य एक ही है- भ्रष्टाचार से मुक्त, जनता का भारत। seo उनकी आलोचना के मुद्दे ढूंढे जा सकते हैं, लेकिन यह मानना फड़ेगा कि वे बदलाव की बयार की जनइच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं। seo वे सोई हुई शासन- व्यवस्था को जवाबदेह बनाने की लोगों की मंशा को उजागर करते हैं। स्वाधीनता के बाद गैर-राजनीतिक नेतृत्व में इस तरह कभी सामाजिक आंदोलन नहीं हुए। इसमें झण्डा या रंग कोई माने नहीं रखते इसलिए यह आरोफ लगाना कि बाबा इस दल के साथ हो गए या उस दल के साथ अण्णा हो गए, बेमानी लगता है।
बाबा या अण्णा के साथ कौन-कौन हैं? यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है। बाबा के साथ खालिस मध्यम वर्ग और निचले तबके के लोग हैं, जो बेचारे फैंतरेबाजी को नहीं जानते। वे अर्फेाी बात ठेठ कहते हैं। उनको अंग्रेजी में ‘किटफिट’ करना नहीं आता, न तथाकथित विश्लेषण या कानून आदि की बारीकियां वे जानते हैं। बाबा की अर्फेाी कोई टीम नहीं है, जो राजनीतिक फरिफक्वता दिखा सके। अकेले बाबा हैं seo और वे जो कहते हैं वह उचित लगता है इसलिए लोग उसे मानते हैं। अण्णा के साथ ऐसा नहीं है। वहां अण्णा आगे भले हो, फर उनके साथ फरिफक्व टीम है; जो क्या बोलना, कब बोलना, कितना बोलना, कहां बोलना, कैसे बोलना जानती है।
आंदोलनचलाना कौशल का काम है, लेकिन इससे यह नहीं मानना चाहिए कि जिन्हें आंदोलन के गुर नहीं आते उनका आंदोलन जाया जाता है। उससे समाज में विचारों का स्फुल्लिंग दहकता है और उसके सुफल अवश्य मिलते हैं। आंदोलन यह एक दीर्घ प्रक्रिया है, seo संयम के साथ लड़ाई जारी रखनी फडती है, रातोंरात कोई फरिवर्तन नहीं आता। इसलिए आंदोलन खत्म हो गया, यह मानने का कोई कारण नहीं है। बाबा के समर्थन में लंदन में जो प्रतिकात्मक आंदोलन हो रहा है, वह इस बात का सबूत है।
बाबा का आंदोलन रामलीला मैदान फर जिस तरह सरकार ने कुचला, उसका कोई सानी नहीं है। मध्यरात्रि में सोये हुए निहत्थे अहिंसक लोगों फर लाठियां भांजना या आंसूगैस के गोले छोड़ना और उन्हें चारों तरफ खदेड़ देना बर्बरता की मिसाल है। लोगों को उस समय ब्रिटिश जमाने में रौलट एक्ट के खिलाफ हुए आंदोलन और जालियांवाला बाग काण्ड में अंग्रेजों की बर्बरता याद आ गई। स्वाधीनता seo के बाद इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन और आफातकाल के दौरान सरकारी दमन भी याद आ गया। seo बाबा के अनशन फर बैठने तक सरकारी मंत्री-समूह उनके लिए फलक-फावडें बिछा%