यदि शुल्क देकर मेडिकल सेवा प्राप्त की जाती है तो वह उपभोक्ता संरक्षण के दायरे में आती है। इस सेवा में कमी होने पर ग्राहक उपभोक्ता अदालत में दस्तक दे सकता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी मुकदमा जारी रख सकते हैं। अधिकांश मामलों में मुकदमेबाजी को किसी भी पक्ष की मृत्यु होने पर उसके उत्तराधिकारी को मुकदमे का पक्ष बना दिया जाता है। लेकिन जब मेडिकल लापरवाही के लिए क्षतिपूर्ति के मामले में शिकायतकर्ता की मौत हो जाती है तो कानून जटिल है।
आमतौर पर निजी क्षतिपूर्ति के लिए दायर किया गया मुआवजे का मुकदमा उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद खत्म हो जाता है। अत: काफी समय तक राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत समेत सभी उपभोक्ता अदालतें यह फैसला देती रहीं कि मेडिकल लापरवाही के मामले में यदि शिकायतकर्ता की मृत्यु का प्रत्यक्ष संबंध मेडिकल लापरवाही से नहीं है, तो मूल शिकायतकर्ता की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी मुकदमा जारी नहीं रख सकते। लेकिन जगदीश भारती नामक एक पत्रकार के मामले में राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत द्वारा दिए गए फैसले के बाद स्थिति बदल गयी है। जगदीश भारती की आंख में शिकायत थी। इलाज के लिए उन्होंने सितंबर, 1992 ई. में डा. नीरज अवस्थी से संपर्क किया। डा. अवस्थी ने उन्हें लेजर ट्रीटमेंट दिया। इसके परिणास्वरूप उनकी बांयी आंख पूरी तरह जल गयी तथा दाहिनी आंख भी क्षतिग्रस्त हो गयी। जगदीश भारती ने दूसरे डाक्टरों से भी सलाह ली। इन डाक्टरों की राय थी कि डा. अवस्थी की लापरवाही से जगदीश भारती की आंख खराब हो गयी थी।
जगदीश भारती ने मई, सन् 1999ई. में आगरा जिला उपभोक्ता अदालत में शिकायत दायर की। लेकिन आगरा जिला उपभोक्ता अदालत ने उनकी शिकायत खारिज कर दी। इस फैसले को जगदीश भारती ने उत्तर प्रदेश राज्य उपभोक्ता अदालत में चुनौती दी। राज्य उपभोक्ता अदालत में अपील विचाराधीन रहते वर्ष 2003 में जगदीश भारती मृत्यु हो गयी। राज्य उपभोक्ता अदालत ने जगदीश भारती के उत्तराधिकारियों को मुकदमा जारी रखने की अनुमति दी। उत्तर प्रदेश राज्य उपभोक्ता अदालत ने डा. अवस्थी को मेडिकल लापरवाही का दोषी करार दिया। राज्य उपभोक्ता अदालत ने डा. अवस्थी को निर्देश दिया कि वे मुआवजे के तौर पर दो लाख रुपए जगदीश भारती के उत्तराधिकारियों को अदा करें।
डा. अवस्थी ने उत्तर प्रदेश राज्य उपभोक्ता अदालत के फैसले के खिलाफ राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत में अपील दायर की। डा. अवस्थी की ओर से राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत में दलील दी गयी कि पूर्व फैसलों की नजीर के मुताबिक जगदीश भारती की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी मुकदमा जारी नहीं रख सकते। लेकिन राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत ने डा. अवस्थी की दलील मानने से इंकार कर दिया। राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत ने अपने फैसले में कहा कि उपभोक्ता संरक्षण कानून के संशोधन के बाद स्थिति बदल चुकी हैै। अब शिकायतकर्ता की परिभाषा के दायरे में मृत उपभोक्ता के उत्तराधिकारी या प्रतिनिधि भी आते हैं। राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत ने अपने फैसले में कहा कि इस तरह के कानूनी उत्तराधिकारियों को शिकायत सही पाए जाने के मामले में लाभार्थी माना जाएगा। इस टिप्पणी के साथ राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत ने उत्तर प्रदेश राज्य उपभोक्ता अदलात के फैसलों को सही करार दिया। राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत ने दो टूक शब्दों में कहा कि भारती की मृत्यु के बाद मुकदमा दायर करने का अधिकार समाप्त नहीं हुआ और उसके उत्तराधिकारी मुआवजा पाने के दावे की शिकायत जारी रख सकते हैं। डा. अवस्थी की अपील को राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत ने खारिज कर दिया। राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत ने डा. अवस्थी को निर्देश दिया कि वे दो लाख रुपये मुआवजे के अतिरिक्त मुकदमे में खर्च के तौर पर जगदीश भारती के उत्तराधिकारियों को 10 हजार रुपये अदा करें। (रिवीजन याचिका नं. 625 सन् 2006 राष्ट्रीय उपभोक्ता अदलात के न्यायाधीश बी. एन. पी. सिंह और एस. के. नायक का 2/2/ 2010 ई. का फैसला)
हमारे देश की कानून प्रणाली में यह एक बहुत बड़ी खामी है कि मुकदमे के निपटारे में काफी समय लग जाता है। मेडिकल लापरवाही के मामलों में शिकायत की सुनवाई विचाराधीन रहते शिकायतकर्ता की मृत्यु हो जाने से मामला खत्म हो जाता था। लेकिन अब उपभोक्ता संरक्षण कानून में संशोधन के आलोक में राष्ट्रीय उपभोक्ता अदालत की कानून की व्याख्या के मद्देनजर यह उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसे मामलों में भी न्याय मिल सकेगा। न्याय देर से भले ही मिले, लेकिन मिलेगा जरूर। वैसे ज्यादा अच्छा तो यह होगा कि नागरिकों को समुचित और शीघ्र न्याय दिलाने के लिए न्याय प्रणाली और कानून दोनों में जल्दी से जल्दी समुचित बदलाव किए जाएं। यदि ऐसा नहीं किया गया तो आम जनता के सब्र का बांध टूट सकता है।