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लच्छू

लच्छू

by शिवदत्त चतुर्वेदी
in कहानी, जुलाई - सप्ताह तिसरा
1

“सप्ताहभर बाद लच्छू ने कारखाने की शुरुआत की, जिसका उद्घाटन लच्छू के पिता जी के साथ क्षेत्रीय सांसद के हाथों हुआ। उस दिन गांव के बीस और युवकों को लच्छू के कारखाने ’मुन्नी अगरबत्ती प्राडक्ट्स’ में नौकरी मिली।”

कोरोना के कहर से पूरा विश्व कराह रहा था। चीन, इटली, अमेरिका और स्पेन जैसे देश कोरोना वायरस के सामने घुटने टेकते दिखाई दे रहे थे। ऐसी दिल दहला देने वाली परिस्थिति में सारी दुनिया बेबस थी। उन्नीस मार्च दो हजार बीस तक भारत में भी लगभग 172 केस दिखाई देने लगे थे। अनेक लोग मारे जा चुके थे। 19 मार्च सन 2020 को कोरोना के भयावह संकट को देखकर सरकारी आदेश से स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए थे। स्कूल बंद होने के बाद लच्छू अपने कमरे पर लौट आया था। रोजाना की दिनचर्या के अनुसार उसने भोजन तैयार किया क्योंकि भरा पूरा परिवार होने पर भी यहां उसका कोई नहीं था। कमरे का दरवाजा बंद करके वह छत पर जा बैठा। छत पर बैठे बैठे उसके मन मस्तिष्क में उठने वाले विचारों के तूफान से वह घिर गया। वह सोचने लगा -”विद्यालय के प्रबंध तंत्र का कहना है कि कोरोना वायरस के चलते स्कूल कब तक बंद रहेंगे, कोई पता नहीं! नौकरी प्राइवेट है। यह भी विद्यालय के प्रबंध तंत्र ने स्पष्ट कर ही दिया है कि बिना काम के वेतन देना संभव न होगा। विद्यालय में बच्चे नहीं आएंगे तो फीस नहीं आएगी और यदि फीस नहीं आएगी तो स्टाफ को वेतन भी नहीं दिया जा सकता। … नहीं…. नहीं…. फीस तो देर सवेर आएगी ही…. फिर भी स्कूल का मालिक स्टाफ को वेतन नहीं देगा क्योंकि ये अमीर लोग पहले अपना पेट भरते हैं… और जब इनसे बचता है तब कहीं किसी और को मिल पाता है।
…. तो फिर … क्या किया जाए? क्या मैं अपने गांव वापस लौट जाऊं?
…. हां यही करना होगा।
लच्छू यानी बछगांव का पढ़ा लिखा नौजवान लछमन प्रसाद। उसने हिंदी में एम ए और बी एड कर नौकरी की तलाश शुरू की। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब थी। न खेती के लिए जमीन थी और न ही छोटी मोटी दुकान खोलने के लिए रकम। पिताजी बुढ़ापे की ओर जा रहे हैं, मां बीमार रहती हैं। परिवार में एक छोटी बहन और भाई भी है जो अभी पढ़ाई कर रहे हैं।
बहुत प्रयास करने के बाद तीन वर्ष पहले लच्छू को दिल्ली के राजेंद्र नगर में रायल पब्लिक स्कूल में हिंदी शिक्षक की नौकरी बारह हजार रुपए मासिक वेतन पर मिल गई। लोग लच्छू को लछमन सर के नाम से जानने लगे।

उसने तीन हजार रुपए मासिक पर एक कमरा किराए पर ले लिया। दिल्ली में सर छुपाने की जगह भी बहुत मुश्किल से मिलती है। दोनों समय के खाने के लिए तीन हजार रुपए मासिक पर टिफिन की व्यवस्था हुई। पहले महीने तो लच्छू को कुछ अन्य आवश्यक सामान जैसे फोल्डिंग बेड, गद्दे, कपड़ेआदि खरीदने में चार हजार रुपए और भी खर्च करने पड़े। उसके बाद तो वह अब तक नियमित रूप से छः हजार रुपए हर महीने अपने गांव परिवार के खर्च के लिए भेजता है।

जब गांव वालों को पता लगा कि लच्छू दिल्ली में मास्टर हो गया है तो वे उसके पिता जी और मां को बधाई देने लगे। वह प्राइवेट स्कूल में अध्यापक है अथवा सरकारी स्कूल में, इससे किसी को कोई सरोकार नहीं था, न ही किसी को इस बात से कोई मतलब था कि उसे वेतन क्या मिलता है। बस एक बात उनकी समझ में आती है कि दिल्ली में बड़े लोग रहते हैं। इस आधार पर गांव में लच्छू के पिता जी की इज्जत बढ़ गई। इसीलिए पड़ोस के गांव तालफरा के जमींदार दुर्गाचंद ने अपनी बेटी कमलेश का रिश्ता लच्छू के साथ तय कर दिया। पिछले वर्ष लच्छू की शादी भी हो गई परन्तु वह कमलेश को कभी दिल्ली नहीं लाया। लाकर भी क्या करता, जिस कमरे में वह रहता है उस कमरे में इतनी जगह भी तो नहीं है कि पत्नी के साथ रहा जा सके। शौचालय और स्नानागार भी तो छः किरायेदारों के बीच एक ही हैं। इसके अलावा पत्नी को दिल्ली लाने पर उसका पूरा वेतन वहीं खर्च हो जाता तो फिर वह गांव भला क्या भेजता? इसलिए निर्णय लिया कि वह पत्नी को दिल्ली नहीं लाएगा। वह स्वयं ही हर महीने दिन 2 दिन के लिए गांव चला जाया करेगा। उस दिन पूरा परिवार उसे रह-रहकर याद आ रहा था। पिछली बार जब वह गांव गया था तो मां ने नया चश्मा बनवाने की बात की थी। छोटी बहन मुन्नी के कपड़े भी उसे ले जाने थे और छोटे भाई के लिए साइकिल लानी थी जिससे उसे पास के कस्बे तक जाने में आसानी रहे। कमलेश के लिए भी तो उसे श्रृंगार का सामान और चूड़ियां लेनी थीं। सबके लिए भी पैसे की जरूरत है। यह सोचकर पिछले महीने लच्छू ने रात के समय एक गिफ्ट की दुकान पर भी काम किया, जिसके परिणाम स्वरूप उसे 7000 मिल गए। ये रुपए अभी उसके पास सुरक्षित रखे हैं। लच्छू सोच में डूबा गया कि जो पैसा उसके पास है वह उससे मंगाया गया सामान लेकर जाए या उसे बुरे दिनों के लिए सुरक्षित संभाल कर रखे। पैसे की इस संकट काल में जरूरत पड़ेगी ही। और उसे भला इस परिस्थिति में कौन मदद करेगा? इसलिए वह कुछ नहीं ले जाएगा।

अगले ही पल मन में विचार आया ….नहीं यदि वह यह सामान नहीं ले गया तो परिवार के सदस्य निराश हो जाएंगे, वह किसी को निराश नहीं करेगा।

उसकी बुद्धि ने कहा- लच्छू! समझदार व्यक्ति केवल आज़ की चिंता नहीं करता, वह दूर तक की सोचता है।
लच्छू ने अपने सर को झटका दिया और वह यथार्थ में लौट आया। तब वह सीढ़ियां उतर कर नीचे आया और कमरे में पहुंचा। कमरे में एक तरफ बिछे फोल्डिंग बेड पर वह लेट गया। उसका सिर तेज दर्द कर रहा था। वह सभी विचारों से मुक्त होना चाहता था।…..परंतु विचार उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। इसी उधेड़बुन में उसकी बुद्धि ने एक बार फिर उससे कहा- लच्छू! तुम जानते हो, दिल्ली ही नहीं गांव में भी तुम्हें कोई गरीब या मजदूर नहीं मानेगा क्योंकि तुम पढ़े-लिखे हो। तुम्हारा वेतन चाहे मजदूरों के वेतन के बराबर है या कुछ मजदूर से कम भी है फिर भी तुम गरीब मजदूरों की श्रेणी में नहीं आ सकते। तुम्हें कहीं से कोई मदद नहीं मिलेगी।

अतः लच्छू ने निर्णय लिया कि वह बिना पैसा बर्वाद किए कल सुबह मकान खाली कर अपने गांव लौट जाएगा। यह सोचते सोचते उसे नींद ने आ घेरा।

अगली सुबह पांच बजे अलार्म बजते ही लच्छू उठा। गली में लोगों की आवाजाही हो रही थी। चिड़िया चहकने लगी थीं। कभी कभी कुत्तों के भौंकने की आवाज भी आ रही थी। वह अपने बिस्तर से उठा और नहा धोकर तैयार हो गया। पड़ोस की दुकान से दूध ले आया। पेट्रोमेक्स जलाकर चाय तैयार की। चाय पीकर वह अपने मकान मालिक वर्मा साहब के पास पहुंचा।

वर्मा साहब एक हाथ में चाय की प्याली थामे दूसरे हाथ की मदद से अखबार पढ़ रहे थे। सामने की दीवार पर लगी घड़ी में 7:00 बज चुके थे। लच्छू ने वर्मा साहब को हाथ जोड़कर नमस्ते की। नमस्ते की आवाज सुनते ही वर्मा साहब ने लच्छू की ओर देखा तो मुस्कुरा कर अंदर आने के लिए कहा। वर्मा साहब के आग्रह पर वह उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। नौकर चाय की प्याली ले आया तो उसने कहा -अरे नहीं! चाय तो मैं पीकर आ रहा हूं ,सर!

वर्मा साहब बोले- तो क्या हुआ? एक कप हमारे साथ भी पी लो। इस तरह बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। उसने कहा- सर! मैं सोच रहा हूं कि अपने गांव चला जाऊं।
वर्मा साहब ने पूछा- भला ऐसा क्यों?
उसने उत्तर दिया-सर कोरोना संकट के कारण विद्यालय बंद हो चुके हैं। कब खुलेंगे, यह सुनिश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता। स्कूल मालिक का कहना है कि जब तक स्कूल नहीं खुलेगा तब तक वेतन भी नहीं मिलेगा; फिर मैं यहां रहकर क्या करूंगा?

वर्मा साहब बोले – लछमन सर! यह तो बड़ी जटिल परिस्थिति है। अच्छा, यह बताएं कि मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?
उसने उत्तर दिया- सर! मैं सोच रहा हूं कि मेरे पास घर का जो सामान है, उसे बेच दूं।

यह सुनकर वर्मा साहब ने मुस्कुराते हुए कहा- अरे! बेचने की क्या जरूरत है, जब लौटकर आओगे तब फिर सामान की आवश्यकता होगी।

कुछ सोचकर वह बोला – सर! तब का तब देखा जाएगा। अभी तो मुझे मकान खाली करना होगा; बंद मकान का किराया देना मेरे लिए भी संभव न होगा।

वर्मा साहब एक बार फिर मुस्कराए और बोले- लछमन सर! आपका व्यवहार इतना अच्छा है कि मैं बंद मकान का आपसे किराया नहीं लूंगा, मैं वचन देता हूं। अपना सामान यहीं रहने दीजिए और मेरे लायक कोई बात हो तो बताइए।

लच्छू ने मुस्कुराते हुए कहा- नहीं सर! आपका आशीर्वाद ही काफी है।… लेकिन पता नहीं अब लौटना हो न हो।

वर्मा साहब उसके मन की बात समझ रहे थे। उसका स्वाबलंवन और अहसान न लेने का गुण उन्हें और भी प्रभावित कर रहा था। वो कुछ सोच कर बोले- ठीक है लछमन सर! आप अपने गांव चले जाइए। मुझे मालूम है, आपके पास जो सामान है, आज उसका बाजार मूल्य दस हजार रुपए के आस पास होगा। इसलिए मैं आपको आपके सामान के दस हजार रुपए देता हूं… लेकिन जब दिल्ली आओ, यहां अवश्य आना। इस घर में सदा सर्वदा आपका स्वागत है।

इतना कहकर वर्मा साहब उठे और उन्होंने अपनी दराज से निकाल कर दो हजार रुपए के पांच नोट लच्छू के हाथ पर रख दिए। कृतज्ञ मन से वर्मा साहब का आभार व्यक्त कर लच्छू ने विदा ली। सामान के दस हजार रुपए के साथ ही मेहनत से कमाए अठारह हजार रुपए लेकर कुल अट्ठाईस हजार रुपए लेकर लच्छू गांव पहुंचा।

उसके घर आते ही पूरा घर चहक उठा। सबसे ज्यादा खुश थे पिता जी, क्योंकि उनका प्रिय बेटा ’लच्छू’ कोरोना संकट के बादल घने होने से पहले ही अपने घर लौट आया था। कमलेश का हृदय उसे देखकर बल्लियों उछलने लगा था।

चाय -पानी के बाद कुशल क्षेम की बातें कर मां ने चश्मे के बारे में पूछा। छोटी बहन मुन्नी ने अपने कपड़ों के बारे में पूछा तो छोटे भाई रघु ने अपनी साइकिल के बारे में बात की। लच्छू ने बड़े प्यार से कहा- मुझे आप सबकी जरूरतों का पूरा ध्यान है। सभी की जरूरतें पूरी होंगी लेकिन कोरोना के इन संकटपूर्ण दिनों के बाद। अभी तो बस मां का चश्मा ही बनेगा। दिल्ली जाने से पहले मैं आप सबकी व्यवस्थाएं पूरी करके ही जाऊंगा।

उन सबकी बातें सुनकर अंदर आते हुए पिताजी ने कहा- नहीं बेटा! अब तुम दिल्ली जाकर नौकरी नहीं करोगे। जो पैसा तुम कमाकर लाए हो, उसे सुरक्षित रखो। कोरोना का संकट टलने के बाद उसी पैसे से पास के कस्बे में छोटी सी दुकान खोल लेना। रहा घर का खर्च, उसे तो अभी हम चला ही लेंगे।
पिताजी की बात का सभी ने समर्थन किया तो लच्छू ने कहा- यदि पिताजी और आप सबकी सहमति हो तो मैं अपने मन की बात कहूं।
पिताजी ने कहा- हां, बेटा, अवश्य कहो। अपने मन की बात सबको कहनी चाहिए।
लच्छू ने कहना शुरू किया- पिताजी! आज़ अपने लिए रोजगार की तलाश में हैं। क्यूं न हम कोई ऐसा काम करें कि हम अपने साथ- साथ गांव के कुछ और लोगों के लिए भी रोजगार की व्यवस्था कर सकें।

लच्छू की बात सुनकर पिताजी मुस्कुराते हुए बोले- अरे वाह! इससे अच्छा और क्या होगा? अपने गांव के लोगों के लिए भी रोजगार जुटाना सबसे अच्छी बात है… परंतु यह होगा कैसे?
लच्छू ने उत्तर दिया- सरकार युवाओं को सर्व स्थापित करने के लिए आसान किश्तों और आसान शर्तों पर लोन दे रही है। हम लोन लेकर कोई छोटा सा कारोबार कर लेते हैं।

अवश्य बेटा! मुझे तुम्हारी काबीलियत पर पूरा विश्वास है लेकिन … कौन सा कारोबार किया जाए, यह भी तो सोचना होगा।-पिताजी ने कहा। मुन्नी और रघु बोले- यह बात तो भैया ही सोचेंगे।

पिताजी बोले- ठीक है! … परंतु इस विषय पर एक बार बहू से भी पूछ लेते हैं। बहू बोलो बेटा, तुम्हारे विचार से कौन सा काम ठीक रहेगा?

कमलेश पहले तो लजाई फिर घूंघट की ओट से बोली- पिताजी! मैं जब बारहवीं कक्षा में पढ़ती थी, तब हमें महिला कल्याण योजना के अंतर्गत कॉलेज में अगरबत्ती, धूपबत्ती और हवन सामग्री बनाने की ट्रेनिंग दी गई थी और यह काम हमें अच्छी तरह आता है।

पिताजी ने निर्णय सुनाया तो फिर ठीक है, अगरबत्ती, धूपबत्ती और हवन सामग्री बनाने का काम ही शुरू किया जाएगा। मुझे अपने लच्छू और बहू पर पूरा भरोसा है।

रघु और मुन्नी ने कहा- हम भी अपने भैया और भाभी का पूरा सहयोग करेंगे।
अगले दिन लच्छू ने बैंक जाकर सारी प्रक्रिया पूरी कर पांच लाख रुपए का लोन करा लिया। सप्ताहभर बाद लच्छू ने कारखाने की शुरुआत की, जिसका उद्घाटन लच्छू के पिता जी के साथ क्षेत्रीय सांसद के हाथों हुआ। उस दिन गांव के बीस और युवकों को लच्छू के कारखाने ’मुन्नी अगरबत्ती प्राडक्ट्स’ में नौकरी मिली। गांव के लोग पिताजी और लच्छू को बधाई देने लगे। तभी लच्छू ने कमलेश की ओर देखा और कमलेश लच्छू की ओर देखकर मुस्कुरा दी।
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Comments 1

  1. Anonymous says:
    5 years ago

    अद्भुत दिल को छू ने वाली कहानी

    Reply

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