विनाशकारी प्रजातियांएवं गंगा स्वच्छता

गंगा मात्र एक पवित्र नदी ही नहीं है, वरन् यह आधे भारत वर्ष की आर्थिक जीवन रेखा भी है, इसीलिए इसका आर्थिक महत्व कहीं अधिक है। गंगा का मैदान दुनिया का सबसे अधिक उपजाऊ कृषि क्षेत्र है, जिससे उत्पन्न अनाज भारत की खाद्य समस्या का बहुत बड़ा समाधान है। अनेक वनस्पतियों एवं पशुओं के साथ-साथ गंगा का जल मछलियों की असंख्य प्रजातियों, उभयचरों की नब्बे प्रजातियों और गंगा में पाए जाने वाली डाल्फीन के लिए जीवन प्रदाता है।
स्कच्छ गंगा अभियान की घोषणा के बाद अनेक देशों ने भारत सरकार को अपना सहयोग देने की पेशकश की है। इनमें इजरायल, आस्ट्रेलिया और इग्लैण्ड प्रमुख राष्ट्र हैं। विदेशी सहायता लेते समय बहुतसी सावधानियां रखने की आवश्यकता है। क्यों कि गंगा की सफाई के लिण् रासायनिक तत्वों के प्रयोग के साथ और अन्य उपाय भी करने होंगे, जो पर्यावरण को प्रभावित कर सकते हैं।

इस संदर्भ के कुछ तथ्यों का अवलोकन करना उचित होगा।
१. केरल राज्य में धान की पैदावार करने काले किसानों के लिए सल्गनिया गम्भीर चिंता का विषय बन गया है। सल्गनिया का भारत में प्रवेश १९०० के पहले हुआ, परन्तु आज यह जलाशयों के दो लाख हेक्टेयर क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है। इस घास के कारण जलाशयों का प्रवाह तो प्रभावित होता ही है, साथ में रूके हुए पानी के कारण यह मच्छरों की पैदावार के लिए अनुकूल परिस्थितियां भी उत्पन्न करता हे। जलकुम्भ के नाम से जाना जाने वाला इकोरनिमा प्रजाति का पौधा प्रारम्भ में तो जलाशयों का सौंदर्य बढ़ाने के लिए विदेश से लाया गया था, परन्तु अब यह रूके हुए पानी के लिए गम्भीर खतरा बन गया है।

२. कांग्रेस घास या गाजर घास के नाम से परिचित यह घास, हिन्दुस्तान में घुसपैठ करने वाली अपेक्षाकृत नई प्रजाति है। बिस्कास महोदय ने १९३४ में विदेशी घासों की सूची में इसे सम्मिलित नहीं किया था। १९५० में यह अमेरिकन मूल की घास भारत में प्रविष्ट हुई। जो प्ाूरे भारत प्रायद्वीप में फैल गई। आज यह भारत की अति संवेदनशील घास मानी जाती हे। फसलों के बीच तो यह तेजी से अपना स्थान बना लेती है, यह शहरी क्षेत्रों में भी तेजी से फैली है। पशुधन के लिए तो यह विषैली है ही, साथ ही संवेदनशील व्यक्ति की त्वचा एवं श्वास परिवहन तंत्र के लिए एलर्जिक भी है।

३. दस राज्यों के कृषि वैज्ञानिकों ने घास की ऐसी पांच घातक प्रजातियों को ढूंढने में सफलता प्राप्त की है, जो आयातित गेहूं के साथ भारत में प्रवेश कर गई। संप्रग शासन में २००६-०७ में लगभग ६३ लाख मिटरिक टन गेहूं रूस, आस्ट्रेलिया, कनाड़ा, हंगरी, य्ाूरोप, फ्रांस, अर्जेंटाइना, रोमानिया, नीदरलैण्ड, कजाकिस्तान और बुल्गारिया से आयात किया गया था, जिसमें पच्चीस प्रकार के फालतू घास के बीज पाए गए। एम्ब्रोसिमड ट्रिफिडा नामक विदेशी घास के पराग कणों के कारण एलर्जी होने की आशंका व्यक्त की गई है जो मानव जीवन के लिए हानिकारक हो सकती है। कृषि विशेषज्ञों की राय में इन घातक घासों के फैलाव से स्थानीय प्रजातियां विनाश के कगार पर हैं। ये घासें कृषि फसलों को तथा अन्य आर्थिक महत्वकी प्रजातियों के उत्पाद को तेजी से कम करती है।

४. देशी मछलियों के अस्तित्वके लिए एक और खतरा दिखाई दे रहा है। हिन्दुस्तान के एक प्रमुख वन्यजीव शोध संस्थान वाइल्ड लाइफ इस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के अध्ययन के अनुसार आंध्र प्रदेश के गोदावरी नदी के बेसिन में एक खूंखार शिकारी मछली का अस्तित्व ज्ञात हुआ। रेड बेलिड पिरान्हा नामक यह विनाशक प्रजाति इसके पहले कभी भी हिन्दुस्तान के किसी जलप्रवाह में नहीं देखी गई। मूल रूप से ब्राजील की यह प्रजाति सामान्यतः अमेजान नदी में तथा अन्य समुद्री नदियों के दलदली जमीन पर या नहरों में पायी जाती है। यह शिकारी मछली या तो देशी मछलियों का शिकार कर उसे समाप्त कर देती है या खाद्य सामग्रियों के लिए उत्पन्न प्रतियोगिता के कारण देशी मछलियां समाप्ति की ओर जा सकती है।
२०११ में विदेशी मछलियों पर प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार ३२४ से अधिक मछलियों की विदेशी नस्लें भारत में पाई ज रही हैं। इनमें मुख्य रूप से घरों में शोभा के लिए एक्वेरियम में प्रय्ाुक्त होने वाली, खेती के लिए प्रयोग की जाने वाली, तथा मच्छरों के लारवा को मारने केलिए उपयोगी प्रजातियां बाहर से लाई गई हैं। पर इनमें से बहुतसी अब देशी मछलियों के लिए किनाशकारी एवं उनके अस्तित्व के लिए खतरनाक सिद्ध हो रही हैं।

५. शोधकर्ताओं के एक समूह ने उत्तराखण्ड के केदारनाथ वन्य प्राणी सुरक्षा क्षेत्र के दुर्गम एवं ऊंचे स्थान पर एक विनाशक पौधे की उपस्थिति दर्ज की है। किसी को भी उसके स्रोत की जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी कि इस दुर्गम क्षेत्र में जो समुद्रतल से २२०० फीट पर स्थित है, यह ‘डेलबाटा’ नामक विनाशक पौधा कैसे पहुंचा? हिमालयीन क्षेत्र में इस पौधे को घातक प्रजाति के रूप में घोषित किया जा चुका है। जबकि प्ाुर्तगाल, स्पेन, न्य्ाूजीलैण्ड, फ्रांस तथा इटली में इसे समस्याजन्य प्रजाति के रूप में इंगित किया गया है, जहां यह देखा गया है कि यह प्रजाति देशी प्रजातियों को विस्थापित कर रही है और देशी प्रजातियों की जैवविविधता को भारी क्षति पहुंचा रही है। ये प्रजाति नदी के किनारे पर जलक्षति भी कर रही है, जिससे परिस्थितिक प्रकृति (इकालॉजिकल नेचर) में धीरेधीरे बदलाव हो रहा है।

उपरोक्त उदाहरण मात्र हैं; प्ाूरी सूची नहीं। यद्यपि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि उपरोक्त घातक प्रजातियों को जानबूझकर प्रवेश कराया गया है, परंतु अविश्वास करने का भी कोई कारण नहीं है। (कम से कम कुछ प्रजातियों को तो योजनाप्ाूर्वक प्रवेश कराया गया होगा।) प्ाुराने इतिहास में प्राप्त इस प्रकार क्रियाकलापों के प्रकाश में इसे देखा जाना चाहिए। एक उदाहरण मैं यहां दे रहा हूं – इग्लैंड में चेचक का प्रकोप फैला, जो सम्भवतः अमेरिकन कालोनी में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों के मृत्य्ाु का भी कारण बना। मेक्सिको में इसका प्रवेश स्पैनिश विजेताओं के साथ हुआ। मेक्सिको के मूल निवासियों की जनसंख्या २.५ मिलियन से घटकर १.६ मिलियन रह गई। इसकी जिम्मेदारी ईस्टर्न नार्थ अमेरिका के मूल भारतीयों पर डाल दी गई। जबकि अंग्रेज उपनिवेशकों के कारण मूल भारतीयों को चेचक का शिकार होना पड़ा था।

तो क्या मैं गंगा स्वच्छता अभियान या विदेशी सहायता का विरोध कर रहा हूं? नहीं बिलकुल नहीं। हम सब इसके साथ हैं। मैं केवल इस विषय पर जोर देना चाहता हूं कि भारत को एक केंद्रीय नीति बनानी चाहिए कि किस प्रकार इन घातक प्रजातियों को रोका जा सकता है। गंगा स्वच्छता अभियान अधिसंख्य जनसंख्या को प्रभावित करने काली योजना है, यह सही समय है जब एक सुविचारित नीति का विकास एवं क्रियान्वयन किया जा सके। अन्यथा स्वच्छता के नाम पर खतरनाक, विनाशकारी तथा अकल्पनीय क्षति की ओर पहुंचेंगे इसका भय है

दुनिया के अधिकांश देश विनाशकारी प्रजातियों के खतरे को गम्भीरता से लेते हैं। जिसकी शुरुआत ठीक हवाई उड़ानों से होती है, जहां बहुधा हर यात्रियों को एक इमीग्रेशन फार्म में घोषणा करनी पड़ती है कि वे किस देश के हैं? कोई अनाज, भोज्य पदार्थ आदि तो साथ में रखे हैं या नहीं? मुझे विश्वास है कि हम सबको याद होगा कि न्य्ाूजीलैण्ड की एग्रीकल्चर मिनिस्ट्री ने हरभजन सिंह तथा वीरेंद्र सहवाग पर १०० अमेरिकी डॉलर का जुर्माना केकल इसलिए किया कि वे गंदे जूते पहन कर हवाई जहाज से उतरे थे। स्मरण रहे न्य्ाूजीलैण्ड दुनिया के कृषि उपज का निर्यात करने वाले प्रमुख देशों में एक है, जो जैविक सुरक्षा को लेकर बहुत संवेदनशील है।

एक आकलन के अनुसार भारत वर्ष में पौधों की लगभग ४५००० प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें लगभग १८०० प्रजातियां विदेशी हैं। आर्थ्रोपोड्स (कीट मिलाकर) की ५४४३० प्रजातियां हैं। उसमें ११०० विदेशी मूल की हैं। इस प्रकार विनाशकारी प्रजातियां पर्याकरण के लिए एक महत्वप्ाूर्ण विषय है। उसमें भी जलीय घास या जलीय पादप बड़ी समस्या है।
यही समय है जब भारत को घातक प्रजातियों के अध्ययन के लिए गम्भीर दृष्टिकोण अपनाते हुए, इसके लिए आवश्यक संसाधन एवंं मानवशक्ति को लगाना होगा। इसकी शुरुआत गंगा स्व्च्छता अभियान के साथ हो सकती है।

Leave a Reply