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गीता और रूसी मूर्खता

गीता और रूसी मूर्खता

by गंगाधर ढोबले
in जनवरी -२०१२, सामाजिक
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चीन और उत्तर कोरिया को छोड दिया जाए तो कम्यूनिज्म सारी दुनिया से विदा हो चुका है। चीन तो शांघाई के रूफ में कम्यूनिज्म और फूंजीवाद के मिले-जुले रूफ को अख्तियार कर चुका है। मात्र उत्तर कोरिया ही बचा है जहां किम फरिवार की तानाशाही के चलते साम्यवाद सरकारी तौर फर टिका हुआ है। वहां भी वह कब और कैसे ढह जाएगा कोई नहीं जानता। रूस में अक्टूबर 1917 की साम्यवादी क्रांति के महज 70 साल में ही कम्यूनिज्म की इमारत ढह गई। गोर्बाचौफ के जमाने में ‘ग्लासनोस्त’ (सामाजिक-आर्थिक सुधारों के लिए प्रचलित रूसी शब्द) आ गया और धीरे-धीरे कार्ल मार्क्स, एंजिल, दास्तोवस्की, स्तालिन, लेनिन के नाम फिछड़ गए। कार्ल मार्क्स का ‘दास कैफिटल’ अब फहले जैसा आराध्य ग्रंथ नहीं रहा। धर्म को नकारना, अर्फेाी संस्कृति को भूल जाना, व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों को ठुकराकर उसे सत्ता के हाथों खिलौना बना देना और इस तरह स्वाभाविक मानवी प्रेरणा को कुचल देना ही साम्यवाद के ढह जाने का मूल कारण है। देर से ही क्यों न हो रूसी साम्यवाद की मूर्खता के प्रति सजग हो गए। लेकिन हाल के एक मुकदमे के कारण लगता है कि रूस में आज भी ऐसा एक वर्ग मौजूद है जो घड़ी की सुई उलटी घुमाना चाहता है।

यह मुकदमा साइबेरिया के तोमस्क शहर की अदालत में दायर है। मुकदमे में अभियोजकों यानी वहां की फुलिस ने हिन्दुओं के फवित्र ग्रंथ श्रीमद् भगवद्गीता फर फाबंदी लगाने का आग्रह किया है। अभियोजकों का तर्क है कि यह ग्रंथ समाज में विव्देष फैलाता है और इस तरह यह सामाजिक तानाबाना ध्वस्त करने का अस्त्र है। जिस ग्रंथ फर रोक लगाने का अनुरोध है वह गीता का रूसी अनुवाद है। इस्कान के संस्थाफक भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुफाद ने ‘यथार्थ गीता’ के रूफ में इसका मूल श्लोकों के साथ अ्रंग्रेजी अनुवाद किया। दुनिया की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में इसके अनुवाद छफ चुके हैं और अरबों-खरबों प्रतियां बिक चुकी हैं। फिर भी कहीं गीता के कारण विव्देष फैला हो ऐसा कभी सुनने में नहीं आया। यह एक तथ्य ही रूसी फुलिस के दावे को काटने के लिए फर्यापत है। हां, यदि रूसी अनुवाद में कहीं कोई गड़बड़ी हो तो उसका अध्ययन रूसी, संस्कृत और भारतीय प्राच्य विद्या के विव्दान कर सकते हैं और उसमें जरूरी मानक संशोधन भी हो सकता है। लेकिन बिना किसी गहन अध्ययन के फाबंदी की बात कर देना महज मूर्खता है। दर्शन और विचारों को किसी सीमा में बांधा नहीं जा सकता और न किसी की धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जा सकता है। रूसी शायद यह भूल रहे हैं कि कार्ल मार्क्स को भी लंदन भाग जाना फड़ा था और वहां से उनका ‘दास कैफिटल’ छफ कर चोरी-छिफे रूस में फहुंचा था। वे यह भी भूल रहे हैं कि सर्वहारा का सशस्त्र संघर्ष साम्यवाद की ही देन है, जबकि हिन्दू दर्शन अहिंसा से सामाजिक बदलाव की बात करता है।

गीता के कुल 18 अध्याय हैं। वह ‘अर्जुनविषादयोग से आरंभ होती है। यह अध्याय व्यक्ति को नैराश्य से पार कर कर्तव्य के प्रति सचेत करता है। ये अध्याय ‘सांख्ययोग’, ‘कर्मयोग’ से लेकर ‘भक्तियोग’ और अंत में ‘मोक्षसंन्यासयोग’ तक पहुंचते हैं। इस तरह व्यक्ति के जन्म से लेकर उसके अंत तक एक जीवन दर्शन को गीता परिभाषित करती है। नैराश्य को दूर कर कर्म के प्रति प्रेरित करती है। गीता पर कई टीकाएं आ चुकी हैं। देशविदेश के कई विव्दानों के गीता पर भाष्य उपलब्ध हैं। रूस में ही गीता को जीवन का आधार बनाने वाले निकोलस के. रोएरिक जैसे प्रसिध्द चित्रकार और समाजसेवी हैं। रूसी इतिहास के विव्दान माधवन पलात की टिप्पणी इस संदर्भ में उल्लेखनीय है, ‘इससे सोवियत काल की मानसिकता झलकती है। लगता है रूस अपने को कहीं नहीं पा रहा है। वह टूटता रहा है और सत्ता स्थानीय लोगों के हाथ जाती रही है। चीन और अन्य पड़ोसी इलाकों से आने वाले लोग उसकी बड़ी समस्या बनते जा रहे हैं। अन्य यूरोपीय लोगों की तुलना में रूसी अलग‡थलग पड़ते जा रहे हैं। अत: चूंकि वे बड़ी समस्याओं से जूझ नहीं पाते इसलिए मामूली बातों पर आघात करते हैं। उसे खतरा लगता है कि किसी पंथ (या दर्शन) के प्रति लोगों का झुकाव यदि बढ़ जाता है तो मुश्किल होगी। रूसियों के टूटते आत्मविश्वास का यह द्योतक है।’

भारत में भी मुगलकाल में इस तरह की बातें सामने आया करती थीं। इसका दीर्घ इतिहास है, जिसकी चर्चा करना इस आलेख का उद्देश्य नहीं है। लिहाजा मुगल युवराज दारा शिकोव का जिक्र करना जरूरी है, जिसने गीता का फारसी में अनुवाद करवाया। मुगलों को तब भय था कि कहीं दारा शिकोव हिन्दू बनने जा रहा है, लेकिन दारा शिकोव ने इस आशंका को निर्मूल कर दिया। उसका यह कथन सत्य था कि गीता शाश्वत मानवी मूल्यों की शिक्षा देती है, किसी भेदाभेद को नहीं मानती और कर्म को ही जीवन का पाथेय मानती है। दारा शिकोव ने साबित कर दिया कि गीता के आदर्शों पर चलने से इस्लाम पर कोई आंच नहीं आती।

इस मुकदमे के पीछे ईसाई कट्टरपंथी होने की बात सामने आ रही है। उन्हें जानना चाहिए कि भारत के प्रथम ब्रिटिश गवर्नर वॉरेन हेस्टिंग्ज खुद ईसाई थे, परंतु गीता के इतने भक्त थे कि 1785 में उन्होंने गीता का अंग्रेजी अनुवाद करवाया और गीता यूरोप में पहुंची। कल ‘बायबल’ को लेकर इसी तरह की कोई बात उठाए तब क्या हो? ईसाई मुल्कों, उनकी मिशनरियों को इस तरह की बात करने वाले अपने अनुयायियों को रोकना चाहिए। गीता नहीं ये लोग समाज में विव्देष फैलाने की बात कर रहे हैं यह तथ्य उजागर होना चाहिए। अमेरिकी विव्दान राल्फ वाल्डो इमर्सन से लेकर स्विस विव्दान कार्ल जंग तक सभी ईसाई थे, लेकिन उन्होंने भी गीता की महती को खुल कर स्वीकार किया। पश्चिमी विव्दान मानते हैं कि गीता मानवी मन की उलझनों को जीवन की सुलझनों में बदल देने का रास्ता दिखाती है। इतने लम्बे इतिहास में गीता के कारण कहां विव्देष फैला हो यह बात रूसियों को बतानी पड़ेगी और उसका जवाब भी विश्व समुदाय को मांगना पड़ेगा। भारत सरकार कितनी सक्रिय है और किस तरह इस बात को रूसियों और अन्य देशों के समक्ष उठाती है इस पर बहुत कुछ निर्भर है। सांस्कृतिक मामलों में भी हमारी विदेश नीति को समय की कसौटियों पर कसा जाना चाहिए।
जून 2011 से यह मामला रूसी अदालत में था। इस बीच प्रधान मंत्री रूस का दौरा भी कर आए। रूस में रहने वाले अल्पसंख्यक हिन्दुओं और इस्कान समर्थकों ने भारत सरकार से यथासमय गुहार भी लगाई। फिर भी बात बनी नहीं। लोकसभा में इस बात को लेकर दोनों यादवों‡ लालू और मुलायम ने हंगामा मचाया। यह कह कर इस हंगामे को गैरवाजिब न ठहराए कि आखिर कृष्ण भी यादव ही थे! भाजपा ने भी अपना रोष प्रकट किया और सरकार से राजनयिक हस्तक्षेप की मांग की।

सलमान रुश्दी की ‘सैटानिक वर्सेस’ हो या डच अखबार में छपे कार्टून हो इस्लामिक जगत में फौरन हंगामा हो जाता है। किसी की धार्मिक आस्था के साथ खिलवाड़ न हो यह सर्वमान्य सिध्दांत है। इस्लामिक धार्मिक ग्रंथों के साथ छेड़छाड़ करने की कोई जुर्रत नहीं करता, रूस भी नहीं, क्योंकि उसके पश्चिमी भाग में उससे टूटे हुए चेचन्या, किर्गीजिस्तान, तजाकिस्तान जैसे मुस्लिम राष्ट्र हैं। हिन्दुओं में भी आत्मविश्वास की भावना होनी चाहिए। हमारी सरकार यदि कोई कदम नहीं उठाती तो उन्हें दुनियाभर में शांतिपूर्ण, अहिंसक आंदोलन कर रूसियों को झुकाना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो आगे संत ज्ञानेश्वर की ‘ज्ञानेश्वरी’, लोकमान्य तिलक के ‘गीता रहस्य’ और रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘गीतांजलि’ पर भी पाबंदी लगाने से वे बाज नहीं आएंगे।

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