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बलशाली राष्ट्र निर्माण ही सेवा कार्यों का लक्ष्य

बलशाली राष्ट्र निर्माण ही सेवा कार्यों का लक्ष्य

by हिंदी विवेक
in मई-२०१२, सामाजिक
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य और लौकिक रूप से जिसे ‘सेवा कार्य’ कहा जाता है, ये दो बातें पृथक मानना ठीक नहीं है। क्या अपने राष्ट्र के पोषण और संरक्षण के लिए राष्ट्रीय गुणवत्ता की मनुष्यशक्ति खड़ी करना सेवा कार्य नहीं है? सब से मौलिक तरह का यह सेवा कार्य संघ पिछले 86 वर्षों से निरंतर कर रहा है। फिर भी कई लोग अब भी पूछते हैं कि संघ का रचनात्मक कार्य कौन सा चल रहा है? इसका कारण यह है कि कुछ शब्दों या वाक्य प्रयोगों को उनके मोटे रूप से इस्तेमाल के कारण संकुचित अर्थ प्राप्त हो गए हैं। स्कूल, अस्पताल चलाना अथवा अकाल, बाढ़ आदि के समय सहायता करने वाले प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले काम ही आम तौर पर सेवा कार्य मान लिए जाते हैं। इस लौकिक अर्थ में सेवा कार्य माने जाने वाले कार्य भी संघ स्वयंसेवकों के लिए नए नहीं हैं। संघ के आरंभ से लेकर आज तक इस तरह के काम स्वयंसेवक करते रहे हैं। फर्क केवल इतना ही है कि इस तरह के काम पहले सेवा कार्य की श्रेणी में नहीं लिए जाते थे। दूसरी बात यह है कि इस तरह के सेवा कार्योे की विविधता और व्याप्ति अब बढ़ गई है। संघ में प्राप्त शिक्षा की प्रत्यक्ष व्यवहार में प्रतीति प्रस्तुत करने का माध्यम ही सेवा कार्य है।

सामाजिक आशय

संघ के स्वयंसेवकों की ओर से देशभर में जो हजारों विविध जनोपयोगी कार्य जारी है, उसके पीछे सामाजिक आशय का सूत्र है। सामाजिक आशय का अर्थ विविध मार्गों से संघ का समाज से व्यापक पैमाने पर सम्पर्क बढ़ाना व उसके जरिए राष्ट्रसेवा के संस्कार विभिन्न माध्यमों से लोगों तक पहुंचाना है। इस तरह के सेवा कार्यों को गति प्राप्त होने के तीन प्रमुख कारण हैं‡ समय की अनुकूलता, सामाजिक जरूरत और ऐसे कामों के लिए स्वयंसेवकों की उपलब्ध संभाव्य संख्या।

विभिन्न प्रकार के सेवा व रचनात्मक कार्यों की देशभर में बड़े पैमाने पर आवश्यकता महसूस की जा रही है। सरकार की ओर भी इस तरह के काम किए जाते हैं, लेकिन अपेक्षा के अनुसार सफलता नहीं मिल रही है। इसी कारण सरकार की ओर से सेवाभावी संस्थाओं और संगठनों से सहयोग का अनुरोध भी समय‡समय पर किया जाता है। ऐसा होने पर भी भारत के विस्तीर्ण भूप्रदेश, भारी जनसंख्या, भौगोलिक, शैक्षणिक, आर्थिक व सामाजिक विषमता के कारण उत्पन्न सामाजिक भेद, स्वार्थी वृत्ति इत्यादि कारणों से वास्तविक बंधुभाव, कर्तव्यनिष्ठा और निस्वार्थ भाव से समाजोपयोगी काम करने वाली संस्थाओं व कार्यकर्ताओं की कमी देश में महसूस की जा रही है। योजनाएं, कल्पनाएं बहुत हैं, लेकिन ईमानदारी से उनका संचालन करने वाले विश्वसनीय मनुष्यबल का अभाव है। यह विरोधाभास विविध क्षेत्रों में अनुभव किया जा रहा है। सरकार भी इसका अपवाद नहीं है।

कार्यकर्ताओं की उपलब्धता

कार्यकर्ताओं की उपलब्धता की बड़ी आवश्यकता आज देश में है। इसे पूरी करने की सिध्द शक्ति आज हमारे देश में दुर्भाग्य से नहीं है। आत्मगौरव के रूप में नहीं, अपितु वास्तविकता के रूप में हम कह सकते हैं कि इस आवश्यकता को कुछ मात्रा में ही क्यों न हो, परंतु पूरी करने की अधिकाधिक क्षमता रा.स्व.संघ में ही है। इसका एकमात्र कारण यह है कि पिछले साढ़े आठ दशकों से निरंतर और परिश्रमपूर्वक अपना कार्य देशभर में फैलाने वाला इतना बड़ा और स्थिर संगठन संघ के अलावा दूसरा अन्य कोई नहीं है। राष्ट्रभक्ति के दृढ़ संस्कार पाने वाले हजारों कार्यकर्ता संघ के पास हैं। इनमें से जो कुछ कारणों से संघ के दैनिक कार्यों की जिम्मेदारी स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है, ऐसे प्रौढ़, अनुभवी व तत्पर कार्यकर्ताओं को सेवा कार्यों के लिए प्रोत्साहित करने के प्रयास बड़े पैमाने पर हुए हैं और हो रहे हैं। उसमें काफी सफलता भी मिली है। पुरुष ही नहीं, महिलाएं भी आगे आ रही हैं। सांसारिक दायित्व से निवृत्त होकर किसी सेवा कार्य में पति‡पत्नी दोनों सहभागी हो रहे हैं और वैसी आवश्यकता भी है।

मनोभूमिका प्रशिक्षण

संघकार्य करना और किसी विशेष प्रकल्प में काम करना दोनों में अंतर है। सेवा कार्य के लिए प्रवृत्त करना आसान और फौरन होने वाला काम नहीं होता। क्योंकि व्यक्ति‡व्यक्ति की प्रवृत्तियां व उनके मानसिक रुझान प्राकृतिक रूप से ही अलग‡अलग होते हैं। जिनका रुझान स्वभाव से ही सेवाभावी होता है, उनका सेवा कार्य किसी के कहने या न कहने पर निर्भर नहीं होता। उनके कदम अपने‡आप उस ओर बढ़ते हैं। अलबत्ता उनकी संख्या कम होती है। इसके विपरीत जिनका रुझान उस ओर नहीं है, उन्हें सेवा कार्यों की ओर मोड़ने के लिए विशेष प्रयास करने होते हैं। उसमें कुछ समय भी लगता है। कार्यकर्ताओं की इस तरह की तैयारी के लिए प्रशिक्षण भी आयोजित किया जाता है।

सेवा कार्यों के विविध प्रकार, उनमें आनेवाली दिक्कतों, जिनके लिए ये काम किए जा रहे हैं, उनकी उदासीनता इत्यादि बातें वाकई कसौटी के समान होती हैं। इन कसौटियों पर खरा उतरना हो तो कार्यकर्ताओं की अपनी विशिष्ट मानसिक बुनियाद बनानी होती हैा इसके लिए जो बातें मन में स्थिर करनी हों, उनके कुछ मुद्दे निम्नानुसार बताए जा सकते हैं‡

1. समाजोपयोगी कोई काम करने का मतलब समाज पर उपकार करना या दया करना नहीं है। उसे सामाजिक ऋण को उतारना चाहिए। जिस समाज ने अपना, अपने परिजनों और पुरखों का परिपालन किया उनका ऋण यथाशक्ति चुकाना हमारा कर्तव्य ही है। इस कर्तव्य को पूरा करने के लिए सेवावृत्ति की साधना करना जरूरी है।

2. समाज के बहुसंख्य लोग ईश्वरनिष्ठ और धर्मनिष्ठ होते हैं। हमारे साधु‡संतों ने पीढ़ी‡दर‡पीढ़ी इन निष्ठाओं की ही हमें शिक्षा दी है। उन्होंने बारम्बार हमें बताया है कि दीनदुखियों जैसे जरूरतमंदों की सेवा करना ही ईश्वर की पूजा है, यह सेवा ही धर्मपालन है। उन्होंने स्वयं भी यह कर दिखाया है। संत एकनाथ महाराज का उदाहरण सब जानते हैं। स्वामी विवेकानंद, संत गाडगे बाबा, संत तुकडोजी महाराज आदि के अनेक वचन व उपक्रम इस संबंध में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। उनके आदर्शों पर भावात्मक श्रध्दा रखकर उस तरह की ईश्वरपूजा व धर्मपालन करना ही हमारे जीवन का सार्थक है।

3. सेवा कार्य जनसम्पर्क का बहुत बड़ा व आसान साधन है। इस जनसम्पर्क से जनसंग्रह, जनसंग्रह से जनप्रबोधन, जनप्रबोधन से जनसंस्कार, जनसंस्कार से जनसंगठन और जनसंगठन से राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान इसे राष्ट्रीय सोपान कहा जा सकता है। इसीलिए हम कौन सा काम कर रहे हैं या कितना कर रहे हैं, इस पर कार्य की श्रेष्ठता या न्यूनता निर्भर नहीं होती। ‘सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रति गच्छति’ इस वचन के अनुसार हमारा प्रत्येक छोटा‡बड़ा सेवा कार्य राष्ट्र के चरणों में अर्पित होगा ही, यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए।

स्वाभिमान व आत्मनिर्भरता

4. सामाजिक अनुभूति के अभाव के कारण आज सामाजिक आत्मनिर्भरता का भी लोप हुआ है। हमारी हर समस्या के निराकरण के लिए सरकार अथवा अन्य किसी पर निर्भर रहना, निरंतर दूसरों से रियायतों की अपेक्षा करना, अन्यथा उसका दोष सरकार पर अथवा समाज पर थोपना यह घातक प्रथा समाज में फैल चुकी है। यह प्रथा समाज की जीवंतता का लक्षण नहीं है। समाज के विकलांग होने का यह लक्षण है। इस विकलांगता में ही हमारी बहुसंख्य समस्याओं की जड़ है। इसीलिए इस विकलांगता को दूर कर समाज को हमें आत्मनिर्भर बनाना है। इसीलिए हमारी दिक्कतों और समस्याओं को अपने बल पर अपने तईं सुलझाने की शिक्षा समाज को दी जानी चाहिए। ऐसी शिक्षा सामाजिक या धार्मिक संस्थाओं के जरिए आसानी से दी जा सकती है, यह अनुभव है। इसीलिए ऐसी विविध संस्थाओं की स्थापना कर उनके जरिए आत्मनिर्भरता का संस्कार समाज पर करना आवश्यक है।

5. आत्मनिर्भरता के साथ स्वाभिमान का संस्कार करने की भी उतनी ही आवश्यकता है। स्वााभिमान का अभाव आज तीव्रता से अनुभव किया जा रहा है। लाचारी तो आज दोष नहीं, उल्टे अधिकार या पराक्रम बनता जा रहा है। भिखारियों की संख्या दिन‡प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। गरीबों व दुर्बलों को दी जानेवाली सुविधाओं का झूठे प्रमाणपत्र देकर लाभ उठाने वाले सधन लोग क्या कम हैं? गरीब छात्रों को मिलने वाली शुल्क की सुविधा अपने बच्चों को दिलाने का प्रयास करने वाले अभिभावक भी बहुत हैं। अपनी गरीबी या विकलांगता का बहाना लेकर घर‡घर जाकर याचना करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। अपने छोटे और किशोर बच्चों को पुस्तकों व शुल्क के नाम पर पैसे मांगने के लिए चौराहों पर खड़े करने या घर‡घर भेजने में अभिभावकों को शर्म महसूस नहीं होती। इसके विपरीत गरीब परिवारों में भी स्वाभिमानी, नीतिमान व दूसरों के लिए दर्द सहन करने वाले लोग आज भी मिलते हैं। लेकिन ऐसे उदाहरण तुलनात्मक दृष्टि से कम ही होते हैं। फिर भी सुसंस्कारों से उनमें वृध्दि हो सकती है। स्वाभिमानपूर्वक, स्वपरिश्रम से मैं अपना जीवन उज्ज्वल बनाऊंगा, इस तरह की विजयी महत्वाकांक्षा का परिपोषण किया गया, तो समाज में भी स्वाभिमान का परिपोषण होगा यह स्पष्ट है। ऐसे संस्कार जिन्होंने धारण कर लिए हैं ऐसे लोग ही अन्य पर संस्कार कर सकते हैं। इसीलिए ऐसे कुछ काम करते समय ‘पहले करें और फिर बताएं’ वाला सूत्र मन में रखना चाहिए।
6. समाजसेवा के उदात्त उद्देश्य से आरंभ हुई कई संस्थाएं हैं। इनमें से अच्छा काम करने वाली कई हैं। परंतु इनमें से कुछ एकाकी हैं, तो कुछ आर्थिक और मनुष्यबल की दृष्टि से कमजोर हैं। इसी कारण ऐसी संस्थाओं के कार्यों से जो सामाजिक शक्ति निर्माण होनी चाहिए वैसी हो नहीं सकती। इसीलिए ऐसी वर्तमान उपयुक्त संस्थाओं में आपसी सहयोग व समन्वय की भावना पैदा कर उनकी एक ऐसी शृंखला बनानी चाहिए जिससे सुदृढ़ सामाजिक शक्ति का निर्माण होगा।

कई संस्थाओं में भ्रष्टाचार, अनैतिकता, गुंडागर्दी इत्यादि दोषों का भी प्रादुर्भाव हुआ है। फलस्वरूप सामाजिक संस्थाओं की विश्वसनीयता कम हुई है। सामाजिक कार्यों में फैली स्वार्थपरता आज सब से बड़ी चिंता का विषय है। इस परिस्थिति में परिवर्तन करने की चुनौती हम सबके सामने है। इसके लिए अनेक जगहों पर सच्चे सेवाभाव से व व्यावहारिक दृष्टि से निर्दोष रूप से चलने वाली संस्थाओं के उदाहरण प्रत्यक्ष पेश करने की आवश्यकता है।

इन सभी मुद्दों का बहुत विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है। ‘संघे शक्ती:: कलौ युगे’ यह वर्तमान समय का सूत्र है। रचनात्मक संगठित शर्िंक्ति ही सभी सामाजिक समस्याओं की दवा है, यह मानकर सभी सेवाकार्यों का लक्ष्य सेवा, संस्कार व संगठन के बल पर बलशाली राष्ट्रनिर्माण ही है।

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