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राष्ट्रवाद से ओत-प्रोत भारतीय सिनेमा के सौ साल

राष्ट्रवाद से ओत-प्रोत भारतीय सिनेमा के सौ साल

by डॉ. दिनेश प्रताप सिंह
in जून २०१२, फिल्म
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इसी महीने भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरे हो रहे हैं। सन् 1912 ई. में दादा साहब फालके ने ‘राजा हरिश्चन्द्र’ फिल्म बनाकर भारत में फिल्म निर्माण की नींव रखी। यद्यपि उस समय की फिल्म मूक होती थी, किन्तु उनके विषय राष्ट्रवाद से ओत-प्रोत होते थे। जिस समय फिल्मों का निर्माण शुरू हुआ, उस समय भारत में अंग्रेंजों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम छोटे-छोटे विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों के रूप में मुखरित हो रहा था। उसी कालखण्ड में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। देश भर में स्वतन्त्रता की आशा प्रबल हो गयी थी। इसका प्रभाव फिल्मों पर भी पड़ा। देशभक्ति से भरी फिल्में खूब बनने लगी। वे फिल्में बड़े प्रभावशाली ढंग से स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाने लगी थीं। सन् 1920 ई. में बनी महाराष्ट्र फिल्म कम्पनी की फिल्म ‘सैरन्ध्री’, जिसका निर्देशन बाबूराव पेंटर ने किया था, राष्ट्रवाद को प्रस्तुत करने वाली पहली फिल्म थी। यद्यपि उस फिल्म को कड़ी सरकारी निगरानी में प्रदर्शित किया गया था। फिल्मकारों में देशभक्ति की ज्वाला इस कदर से तप्त थी कि अंग्रेजी शासन की कठोर निगरानी के बावजूद भारतीय फिल्म निर्माता परोक्ष रूप से स्वाधीनता संग्राम में अपना योगदान देते रहते थे।

स्वाधीनता आन्दोलन की मूक युग की सबसे उल्लेखनीय फिल्म ‘नेताजी पालकर’ थी। उसके निर्देशक वी. शान्ताराम और मुख्य कलाकार अनसुइया एवं गणपति बापरे थे। यह फिल्म वर्ष 1927 में बनी थी। फिल्म में छत्रपति शिवाजी की भूमिका निभाने वाले कलाकार ने महाराष्ट्र सहित पूरे देश में स्वाधीनता आन्दोलन को तेज हवा दी थी। शुरू में इस फिल्म का नाम ‘बम’ रखा गया था, जिसमें महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के समान पात्र दिखाया गया था। वह पात्र सामाजिक एकता का प्रतीक दिखाया गया था। बाद में फिल्म का शीर्षक बदलना पड़ा था। इसी तरह खूब चर्चित फिल्म ‘खुदा का बंदा’ थी। उस फिल्म को लेकर भी अंग्रेजी शासन बहुत चौकन्ना था। देश में जैसे-जैसे महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन तेज होता गया, फिल्म निर्माताओं ने भी उसमें अपना पूरा योगदान दिया। न्यू थियेटर्स की फिल्म ‘चण्डीदास’ और सन् 1936 ई. में बनी बाम्बे टाकीज की फिल्म ‘अछूत कन्या’ ने देश में राष्ट्रप्रेम की एक नयी लहर पैदा कर दी। इसी समय देश में बोलती फिल्मों का निर्माण शुरू हो गया था। सन् 1939 ई. में बनी ‘ब्रान्डी की बोतल’ और सन् 1942 में बनी फिल्म ‘भक्त कबीर’ ने प्रच्छन्न रूप से स्वतन्त्रता आन्दोलन के संघर्ष की भावना को बल दिया। महात्मा गांधी छुआछूत को हमेशा अनुचित मानते थे। उनकी इस भावना को उठाते हुए सन् 1940 ई. में रंजीत फिल्म कम्पनी ने ‘अछूत’ फिल्म का निर्माण किया। चन्दूलाल शाह के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने छूआछूत पर करारी चोट करते हुए सारे भेदभाव मिटाकर राष्ट्र के स्वाधीनता संग्राम में एक जुट हो जाने का सन्देश दिया। वर्ष 1940 में महबूब खान के निर्देशन में बनी फिल्म ‘औरत’ में विदेशी जुल्म से लड़ने की भावना को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया था। सन् 1945 ई. में बनी फिल्म ‘हमराही’ और उस दौर की ‘नया संसार’, ‘सिकन्दर’, ‘रोटी’, ‘जीवन’, ‘पन्ना’ फिल्मों में अन्याय के विरुद्ध लड़ने और भाईचारे को प्रगाढ़ करने का सन्देश दिया गया था।

यह सवाक फिल्मों का दौर था। सुप्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने सन् 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ को बनाया। यह फिल्म उनकी संस्था इम्पीरियल फिल्म कम्पनी में बनी थी, जिसमें उस समय के चर्चित कलाकार पृथ्वीराज कपूर, मास्टर विठ्ठल, डब्ल्यू. एम. खान, जुबैदा और जगदीश सेठी ने अभिनय किया था। यह फिल्म 14 मार्च, सन् 1931 ई. को मुंबई के ‘मैजेस्टिक’ सिनेमा घर में प्रदर्शित हुयी थी। इस फिल्म के साथ ही राष्ट्रवादी भावना को उभारने तथा स्वतन्त्रता की अलख जगाने वाली फिल्मों का युग शुरू हो गया, जो आज तक नये-नये प्रतिमानों के साथ जारी है।

भारत वर्ष के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भारतीय फिल्मों ने जिस तरह से अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था, उसी प्रकार से स्वतन्त्रता प्राप्त होने के उपरान्त नवनिर्माण में भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। भारत ने अब तक तीन बार विदेशी आक्रमण सहे हैं। वर्ष 1962 में चीन, 1965 और 1971 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया। सन् 1998 ई. में कारगिल संघर्ष हुआ। इन अवसरों पर भारतीय फिल्म निर्माताओं ने राष्ट्रीय भावना को जगाने वाली फिल्मों का निर्माण किया गया, मनोज कुमार ने ‘उपकार’, ‘पूरब-पश्चिम’ ‘क्रान्ति’ जैसी फिल्में बनाकर विश्व पटल पर देश की भावना का सन्देश दिया। ‘हकीकत’ फिल्म में चीन के साथ युद्ध का चित्रण किया गया। ‘शहीद’, ‘आग’, ‘बरसात’, ‘अपना देश’ जैसी फिल्में अपने दौर की प्रसिद्ध फिल्में रहीं। उसी कालखण्ड में देश के स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी आहुति देने वाले रणबांकुरों के जीवन चरित्र पर फिल्में बनी। शहीद भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गांधी इत्यादि के ऊपर फिल्मों का निर्माण किया गया। 80 के दशक में बनी फिल्म ‘गांधी’ ने फिल्मी लोकप्रियता के सारे प्रतिमान तोड़कर सफलता प्राप्त की।
वर्तमान समय में यद्यपि समाज की रुचि के साथ-साथ फिल्मों के विषय बदल रहे हैं, तकनीक बदल रही है, प्रस्तुति का तौर-तरीका बदल रहा है, किन्तु राष्ट्रवादी भावना ज्यों की त्यों बनी हुयी है। गुलजार की फिल्म ‘माचिस’ कश्मीर समस्या पर, ‘सत्या’ नक्सलवाद पर आमिर खान की ‘लगान’ अंग्रेजी गुलामी के विरुद्ध संघर्ष, ‘शहीद भगत सिंह’ देशभक्ति और ‘बॉर्डर’ पाकिस्तानी षडयन्त्र को उठाने वाली फिल्में हैं।

देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी को फिल्मों के माध्यम से निभाने वाले फिल्मकारोंने सामाजिक दायित्व को भी भली भाँति पूरा किया है। देश के सामाजिक एवं आर्थिक पक्ष, अशिक्षा, कुपोषण, बाल विवाह, राष्ट्रीय एकता, सुरक्षा, भ्रष्टाचार, इत्यादि विषयों को भी चित्रित कर रहे हैं। ये फिल्मे सामाजिक सौहार्द, देश प्रेम, अहिंसा को बढाने में सहायक हो रही हैं।

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