जनतंत्र के पहरेदार

अब हम लोगों को कहाँ तक समझाएं? भारतीय विकास की भाव वाचक संज्ञा बेईमानी ही है, उसका व्यभिचारीभाव है ‘इस हाथ ले उस हाथ दे।’ उसकी शब्द शक्ति है- झूठ और फरेब, जितनी बड़ी भाव वाचक संज्ञा, उतना तेज विकास, जिसमें यह सद्गुण आ गया, वह विकासशील हो गया। देश के विकास और प्रगति के लिए हमको व्यभिचारी भाव वाले प्रशासक चाहिए। देश की प्रगति के लिए हमें बेईमानी में निष्णात स्नातकोत्तर चाहिए। ‘अजगर करे न चाकरी’ ब्राँड के शुद्ध जनसेवक चाहिए। हर विभाग में पड़ती है इनकी आवश्यकता। बिना इनके कोई काम आगे ही नहीं बढ़ता।

मैंने ईमानदारी के कई लंबरदारों की टें-टें सुनी हैं। बेचारे जीवन भर भार वाहक चतुष्पाद ही बने रहे, उन्हें ‘‘न लीपने के, न पोतने के’’ सद्गुणी होने के कारण किसी ने कभी घास नहीं डाला। किसी भी मरदूद ने उनकी टेबिल पर जाकर नमस्कार नहीं किया, वे लंच समय में बिना तेल की भाजी का अपना ही टिफिन खाते रहे, सूखे होठों पर राम नामी जीभ से ईमानदारी का कसैला स्वाद चाटते रहे। इश्कबाज समझता है कि कौन इश्क के काबिल है, वह वहीं जाल फेंकता है। बेईमान समझता है कि देश का कौन वीर सिपाही दड़ेगम बेईमान है। वह उसी से हाथ मिलाता है। भाई, हमको हिनहिनाती बोतल चाहिये, तो हम बोतल की दुकान पर ही जाते हैं, गीता प्रेस की दुकान पर नहीं।

अब उस दिन हमारे पड़ोस के पंडित जी लटका हुआ चेहरा लेकर सामने आ खड़े हुए, उनका दुःख यह था कि उनका लड़का निपट ईमानदार है। पुलिस में नौकरी करता है। एम. ए. पास कर बहुत दिन तक सड़कों पर चप्पल चटकाता रहा। एक दिन दांव लग गया। घुस गया पुलिस में। बाप भले ही कहता रहा- ‘‘अरे जब पाप उदय होते हैं, तो आदमी पुलिस में जाता है।’’ आज तो उसके पुण्य उदय हो गए, अब वह उसके साहब से रोज सुनता है, ‘‘जब आदमी के पाप उदय होते हैं, तो वह ईमानदार बनता है, उसके पुण्य उदय होने पर वह दे-लेकर पुलिस में घुस जाता है।’’ सुनता तो रोज है, परन्तु पंडिताऊ घर में पिलाई गई बालघूटी जोर मारती रही और बेचारा दस बरस के बाद भी साहब की भैंस को रातिब ही डालता रहा। भैंस पुष्ट होती रही। बेईमान होता तो आधा रातिब खुद खा जाता। भैंस दुबली हो जाती तो नौकरी चली जाती, वह जानता था कि साहब का जानवर आदमी से अव्वल होता है, उसकी ईमानदारी के रातिब से बेईमानी की भैंस पुष्ट होती गई। वह सिपाही बना था। आज भी सिपाही है, जो पीछे से घुसे थे, वे बड़े सिपाही बनकर डंडा ठोक रहे हैं।

पंडित जी बोले- ‘‘भाई साहब, इस लड़के को आई.जी. साहब के पास ले जाकर बड़ा सिपाही तो बनवा दीजिये। हमारे परिवार पर आपका उपकार होगा। सुना है बड़े साहब आपके दोस्त हैं। इस उपकार के बदले दो-तीन कथाओं में मुझे मिलने वाली दक्षिणा मैं आपको प्रस्तुत कर दूँगा।’’

पंडित जी की विनम्रता ने मुझे उनके प्रति संवेदनशील बना दिया। हम दोनों पड़ोसी थे। संवेदना जाग गई। अच्छे पड़ोसी होने का धर्म जाग गया। वैसे मेरा धरम सोता रहता है, पर दक्षिणा मिलने पर एकदम मचल उठता है। मेरा धरम भी मचल गया। घोड़े को दाना दिख गया। टपटपाने लगा, उसने पंडित की ईमानदारी को कसमसाते देखा। दया आ गयी। आज मैंने साहब के पास जाकर बेईमानी की पुण्यात्मा को झकझोरने का साहस किया। सिपाही को साथ लेकर आई.जी. साहब की संवेदना जगाने चल दिया।

सामने शानदार कुर्सी पर बैठे मुस्कराते साहब और सामने खड़ा था कांपता हुआ अधमरा नवजवान पंडित सिपाही। प्रश्नोत्तर का सत्र प्रारंभ हुआ।

‘‘क्यों रे, प्रमोशन क्यों नहीं मिला अभी तक? परीक्षा दी थी? पास हुआ था?’’
‘‘जी हुजूर, दी थी। पास-फेल नहीं मालूम। हुजूर सुना है कि मलखाने से पेपर ही गायब हो गए।
‘‘अबे ओ कनखजूरे, ऐसी गंदी बात सुनता है? अपनी ही जांघ उघाड़ता है? शर्म नहीं आती। पुलिस में रहना है, तो कान बंद रख। आँख बंद रख। केवल माल गटकने लायक मुँह खुला रख। अरे, गाँधी जी के जीवित बंदरों की तो शरम कर।’’
‘‘जी हुजूर, गलती हो गई।’’
‘‘तूने अभी तक कुछ चोर-उचक्के पकड़े कि नहीं?’’
‘‘हाँ साहब, पकड़े थे। बड़े साहब ने छोड़ दिए, वे उनके दोस्त निकले।’’
‘‘कभी जूते वाले, सब्जी वाले, ठेले वाले, फुटपाथ वालों से हफ्ता वसूली की?’’
‘‘हुजूर की थी, उनसे साहब की भैंस का रातिब वसूलता था।’’
‘‘कभी भ्रष्टाचार में, दुराचार में, माल लूटने में, बदमाशों से दोस्ती बढ़ाने में कोई वार्निंग मिली कि नहीं?’’
‘‘हुजूर मिली थी। मैं माल नहीं लूटता था, इसलिए मिली थी। मैं लोगों को नहीं फंसाता था, इसलिए मिली थी, पर हुजूर, बड़े दयावान हैं हमारे साहब। हर बार वार्निंग देते हैं, पैसे लेते हैं और फाड़ देते हैं।’’
‘‘कभी दंगे फसाद में तूने किसी निरपराध का सिर फोड़ा हो, हड्डी तोड़ी हो तो कुछ तो बता?’’
‘‘इस काम में, सर, हमारे साथी हमारी मदद कर देते थे, वे पैसे भी लेते थे और सिर भी तोड़ते थे। मैं घायलों को एम्बुलेंस में चढ़ा देता था।’’ अब, साहब चिढ़ गया। कुर्सी से खड़ा होकर चिल्लाकर बोला-
‘‘अबे ओ ईमानदार की औलाद, जब तूने किसी का सिर नहीं तोड़ा, हफ्ता नहीं वसूला तो तू पुलिस में क्या घंटी हिलाने घुसा था? पुलिस वाला होकर भी आदमी जैसा रहता है? तू तो हम पर लानत मार रहा है। भाग यहाँ से, तुम पुलिस के काबिल ही नहीं हो। हम तुम्हें नौकरी से निकाल रहे हैं। आया बड़ा प्रमोशन लेने वाला।’’

वह रोता हुआ निकल गया। आई. जी. साहब ने माथा ठोक लिया। मुझ से बोले- ‘‘यार व्यास जी, आप भी किस बेवकूफ की सिफारिश लेकर आ गए, इसे पुलिस में नौकरी करने का तमीज ही नहीं है। ये तो ईमानदार आदमी जैसे रहना चाहता है, ऐसा ही करना था तो कोई कवि बन जाता। स्साला कल्पना का डंडा लिए आडी-टेढ़ी प्रेयसी के पीछे भरी दोपहरी में भागता रहता। फिर झूठ बोलकर लाऊडस्पीकर पर सबको सुनाता, उस बाई को जन्नत की हूर बनाता। भरी दोपहरी को चाँदनी रात बताता। व्यास जी, इसको अब समझा दो कि पुलिस के वेद-पुराण अलग होते हैं। यहाँ सामवेद नहीं चलता, यहाँ दामवेद चलता है। यहाँ मार्कण्डेय पुराण नहीं चलता, यहाँ मारडंडे पुराण चलता है। आज की नौकरियों में बेईमानी और ईमानदारी की मिली-जुली चाट चलती है। दिल्ली में खूब चलती है, वह स्वादिष्ट होती है, अच्छी लगती है। भ्रष्टाचार की तीखी नमकीन सेव हो, माल लूटने के मूंगफली दाने हो, ऊपर वालों को बाँटने की पपड़ी हो और उस पर दिखावे के लिये मीठी चटनी का छिड़काव हो, इसका मतलब यह है कि खूब लूटो, खाओ, खिलाओ और ईमानदार दिखते रहो। ईमानदारी गाते रहो। ये जनतंत्र के विकास सूत्र हैं। हम सफल जनतंत्र के कर्मठ पहरेदार हैं। जन और तंत्र दोनों हमारे कब्जे में हैं।’’

देश के उज्ज्वल चरित्र पर गर्व करते हुए मैं बाहर आ गया और देश के विकास के प्रति आश्वस्त हो गया। इन वेद-शास्त्रों से भी जो आश्वस्त न हो, उसे क्या आप भारतीय कहेंगे?

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