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सामाजिक समझ पैदा करने वाला गणेशोत्सव

सामाजिक समझ पैदा करने वाला गणेशोत्सव

by अमोल पेडणेकर
in सामाजिक, सितंबर- २०१२
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धर्म का समाजशास्त्र से जुड़ाव अगर समझना है तो महाराष्ट्र में हो रहे सार्वजनिक गणेशोत्सव का उदय तथा विकास को समझना जरूरी है।

भगवान गणपति का धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक महत्व बहुत ज्यादा है। सभी धार्मिक ग्रंथों के शुभारंभ में भगवान गणेश का स्मरण किया जाता है, इतना ही नहीं, किसी उद्योग, नवनिर्माण के शुभांरभ के समय गणेश की आराधना का विशेष महत्व है। प्रारंभ के लिए श्री गणेश शब्द का उच्चारण हम सहज रूप से करते हैं। भारतीय लोगों के धार्मिक जीवन में गणेश का स्थान ध्यान में रखते हुए लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश की स्थापना उत्सव के मंडप में की। जिस तरह धर्म का समाज शास्र होता है, वैसा ही मानसशास्त्र भी होता है। समाज की इस धार्मिक मनःस्थिति को बार-बार प्रफुल्लित करके नए इतिहास का सृजन करने के अनेक प्रमाण इतिहास के पृष्ठों में दिखाई देते हैं। इसी कारण अनेक धार्मिक शक्ति, स्थान, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्तियों को प्रेरणा देती रही है। लोकमान्य तिलक के कारण भगवान गणेश सामाजिक, राजनीतिक रूप में सभी के प्रेरणास्थल बन गए। गणेशोत्सव के दस दिन का अर्थ है उत्साह, तथा उमंग।

लोेकमान्य तिलक ने जब सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू किया था, उस समय इस धार्मिक उत्सव के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोकभावना जागृत करना ही मुख्य उद्देश्य था, लेकिन भारत को आजादी मिले 65 वर्ष बीत जाने के बावजूद सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थिति मे गणेशोत्सव का रिश्ता समाज में आज भी कायम है। दिनों-दिन गणेशोत्सव में सर्वसामान्य तथा मध्यमवर्गीय समाज की सहभागिता बढ़ती जा रही है, इसका बिल्कुल ताजा-तरीन उदाहरण लें तो

महाराष्ट्र भर के हजारों गणेशोत्सव मंडलों ने देश के सामने उत्पन्न समस्याओं तथा भ्रष्टाचार, मंहगाई, अण्णा हजारे का आंदोलन, भ्रूण हत्या, महिला उत्पीड़न जैसे विषयों पर झाकियां बनाने अथवा प्रबोधन करने का निर्णय लिया है। गणेशोत्सव मंडल के कार्यकर्ताओं का यह मानस है कि देश तथा समाज को प्रभावित करने वाले विषयों को उत्सव के माध्यम से जनता के समक्ष ले जाना चाहिए। इस तरह से तत्कालीन सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थिति पर त्वरित टिप्पणी करने वाला दूसरा और कोई लोकोत्सव वर्तमान में इस विश्व में नहीं है। इस गणेशोत्सव का स्वरूप इतना लचीला है कि इसमें धर्म, जन-संस्कृति, परंपरा, रहन-सहन, प्रबोधन, आंदोलन, राजनीति, अनेक प्रकार की कलाएं, संगीत, नेतृत्व प्रशिक्षण ये सभी जाने-अनजाने में सम्मिलित हैं।

इस तरह के गणेशोत्सव को जन्म देने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की दूर-दृष्टि के बारे में जब विचार आते हैं तो आश्चर्य होता है। पिछले शतक से इस गणेशोत्सव को आनंद के असंख्य रंग, लोक जन-जागृति के असंख्य प्रवाह में लाकर छोड़ने वाला पिछला शतक भारत के अधिकांश कार्यकर्ता की कार्यकुशलता भी चकित करने वाली ही है।

समाज के अंतिम तबके का समूह ही इस उत्सव के सच्चे कार्यकर्ता होते हैं। इस गणेशोत्सव में इन कार्यकर्ताओं के समर्पित कार्यभाव से ही भविष्य में कुशल सामाजिक तथा राजनीतिक नेतृत्व समाज को मिलता रहा है।

इन सभी बातों से सामाजिक उथल-पुथल की जो प्रक्रिया शुरू होती है, उसका असर आम आदमी को समझ में नहीं आता है। गणेशोत्सव का आयोजन भले ही दस दिवसीय हो, पर इस उत्सव की तैयारियां काफी पहले से शुरू हो जाती है। गणेशोत्सव के बाद उसके बारे में चर्चाएं भी काफी समय तक चलती रहती हैं। इन सभी बातों से समाजिक बदलाव की जो प्रक्रिया शुरू होती है, उसका बहुत ज्यादा असर भले ही दिखाई न दे, पर उनका परिणाम अनेक सामाजिक तथा राजनीतिक व्यक्तित्व के निर्माण से होता रहता है। सार्वजनिक गणेशोत्सव के माध्यम से निर्माण होने वाली समझ, संवेदना और संस्कार से युवकों का जीवंत संपर्क होता है। युवकों में प्रखर सामाजिक सूझ-बूझ तथा जनजागृति पैदा करने में गणेशोत्सव का योगदान अहम रहा है। इसी कारण के चलते लोकमान्य तिलक जी ने तो एक छोटा सा पौधा लगाया था, उसे गणेशोत्सव को आज विराट रूप प्रदान हुआ है।

समाज को एकत्रित करने के लिए शुरू किए गए इस गणेशोत्सव को अब राजनीतिक स्वरूप मिल गया है। हर सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल किसी न किसी राजनीतिक पार्टी से संबंद्ध है, इस कारण केवल शहर ही नहीं, गांव-गांव में जितनी गलियां, उतने सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल भी हैं। इस कारण इस उत्सव में एक-दूसरे से स्पर्धा करने वाले,परस्पर विरोधी विचार रखने वाले असंख्य कार्यकर्ता, नागरिक शामिल होते हैं, उनके निरंतर मंथन, वाद-विवाद तथा संवाद से ही गणेशोत्सव को साकार किया जाता है, जिनको राजनीतिक-सामाजिक समझ है, ऐसे व्यक्ति किनारे पर न बैठकर उत्सव के माध्यम से प्रवाह में आते हैं।

गणेशोत्सव सच्चे अर्थों में लोगों द्वारा लोगों के लिए आयोजित किया जाने वाला उत्सव है और इसी कारण अकेले महाराष्ट्र में 50 हजार से ज्यादा गणेशोत्सव मंडल हैं। भविष्य में इन गणेशोत्सव मंडलों की संख्या में और वृद्धि होगी। इस उत्सव में कुल मिलाकर लगने वाली निवेश राशि 600 करोड़ तक पहुंच चुकी होगी। इस धनराशि से रोजगार के अवसर ब़ढ़ेंगे। साथ ही साथ इस उत्सव से समाज के लिए निर्मित होने वाले छोटे- मोटे सेवा कार्यो के उपक्रमों की ओर दृष्टि दौड़ाई जाए तो ज्ञात होगा कि ये गणेशोत्सव मंडल कईं सामाजिक उपक्रमों का कुशलता पूर्वक संचालन भी कर रहे हैं। विद्यार्थी, रोगी, निराश्रित बच्चे, बुजुर्गों के लिए अनेक सेवा प्रकल्प शुरू करने वाले ये गणेशोत्सव मंडल जन-जागरण के कार्यों में भी अहम योगदान अदा कर रहे हैं। कुछ गणेशोत्सव मंडलों ने तो करोड़ों रुपए खर्च करके बाढ़, वर्षाकाल तथा भूकंप में तबाह हुए गांवों को फिर से आबाद किया है, वहीं कुछ गणेशोत्सव मंडल ऐसे भी हैं, जिन्होंने चिकित्सा की स्थायी व्यवस्था ही कर दी है।

बड़े तथा धनाढ्य मंडलों के पदचिन्हों पर चलते हुए कुछ ऐसे भी गणेशोत्सव मंडल अस्तित्व में हैं, जो सामाजिक उपक्रमों के नाम पर जनता को गुमराह करते हैं। श्री गणेश की मूर्ति पर 40-50 किलो सोने के आभूषण अर्पित करने वाले मंडलों की भी अच्छी खासी संख्या है। ऐसे मंडलों के कार्यक्षेत्र में अनेक नागरी समस्याएं मुंह बाये खड़ी होने के वाबजूद मंडल से संबंध पदाधिकारियों का ध्यान इस ओर नहीं जाता। पिछले बीस सालों में आर्थिक उदारीकरण तथा उसके बाद आए कार्पोरेट जगत के विस्तार की हवा भी गणेशोत्सव मंडलों को प्रभावित कर रही है। मंडलों का आर्थिक व्यवहार, उसका विवरण, मीडिया में बढ़ता वर्चस्व भी गणेशोत्सव में दिखाई देता है। इसके अलावा कम बजट, प्रचार से परहेज करने वाले अनेक छोटे-छोटे गणेशोत्सव मंडल भी हैं। श्रमशील कार्यकर्ता खुद ही मंडप की सजावट करते हैं, रात-रात जागकर मंडप के आस-पास के गढ्ढ़े पाटते हैं, मंडप बांधते हैंं, घर-घर जाकर चंदा मांगते हैं, नवोदित कलाकारों के कार्यक्रम का मंच उपलब्ध करा देते हैं, मंडप को अनोखे अंदाज में साकार करते हैंं। इन सब प्रक्रियाओं से समाज से अपना नाता बताने वाला कार्यकर्ता स्वयं ही अस्तित्व में आ जाता है। इसी माध्यम से उसकी सामाजिक समझ जाने-अनजाने में ही विकसित हो जाती है। प्रत्येक व्यक्ति में अभिव्यक्ति की भारी अथवा सुप्त स्तर पर आकर्षण तो होता ही है। युवकों में यह भावना ज्यादा होती है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। युवकों की इस अभिव्यक्ति को अर्थपूर्ण तथा सुंदर बनाने वाला गणेशोत्सव एक सोशल इवेंट ही है।

इस विलक्षण तथा बहुद्देशीय सामाजिक उत्थान में आज का बाजारीकरण सबसे बड़ा धोखा है।
लोकमान्य तिलक ने यह गणेशोत्सव सार्वजनिक जनजागृति तथा समाज प्रबोधन का सबसे बड़ा साधन है, ऐसा स्पष्ट करके समाज एकत्रित हो, इसके लिए प्रयत्न किए। राजनीतिक तथा बाजारीकरण की प्रवृत्ति रखने वाले लोगों ने इस उत्सव को भीड़तंत्र का स्वरूप दे दिया, इस कारण गणेशोत्सव के माध्यम से लोकमान्य तिलक की मंशा के अनुरूप आज इस उत्सव में दिखाई दे रहा है क्या? यह प्रश्न तो आज उठाया ही जा रहा है। प्रत्येक वस्तु, अवसर, उत्सव को बाजार में अत्यंत खूबी से रूपांतरित करना आज के पूंजीपतियों का खेल ही बन गया है। अभी-भी समय हाथ से नहीं गया है। गणेशोत्सव केवल भीड़, या-हंगामे का उत्सव बनकर न रहे। चंदे से मिली धनराशि राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग में न लाकर उसे जनोपयोेगी कार्यों के लिए प्रयोग में लाया गया तो निश्चित रूप से गणेशोत्सव अधिक आनंददायी, मंगलदायी होगा। सामाजिक एकता, ही इस उत्सव की मूल धारणा है, वह फिर से जागृत हो, यही श्री गणेश जी के चरणों में हमारी प्रार्थना है।
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