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चतुर्मास में तांबा-पीतल का महत्त्व

चतुर्मास में तांबा-पीतल का महत्त्व

by हिंदी विवेक
in सामाजिक, सितंबर- २०१२
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भारतीय संस्कृति में हर दिन का अपना-अपना विशेष महत्त्व है। हर माह की पूर्णिमा, अमावस्या, चतुर्थी, एकादशी का अपना एक स्थान है। इसी को त्यौहार या उत्सव कहते हैं। इस दिन को की जाने वाली विधि, कुलाचार, पूजा सुनिश्चित है। सदियों से चली आ रही यह परंपरा आज भी टिकी हुई है। समय के अनुसार उसका स्वरूप अवश्य बदल गया है, पर इस परंपरा का मूल है ईश्वर के विभिन्न रूपों की आराधना करना, पूजन करना, वह आज भी कायम है।

पर आषाढ़ माह की शुद्ध एकादशी से लेकर कार्तिक शुद्ध एकादशी तक यह काल जिसे चतुर्मास कहा जाता है, इसमे तो पर्वों की तो धूम लगी रहती है। ऐसा माना जाता है कि इस काल में भगवान विष्णु सो जाते हैं। इसीलिए आषाढ़ी शुद्ध एकादशी देवशयनी एकादशी और कार्तिक एकादशी दो देवोत्थान एकादशी ऐसा भी कहा जाता है। भगवान के शयनस्थ होने के कारण आसुरी शक्तियों का प्रभाव बढ़ जाता है। इस लिए व्रत-पूजा से आध्यात्मिकता बढ़ाकर सभी इन शक्तियों पर मात करें यही इस का उद्देश्य है।

इस कालावधि में तरह-तरह के व्रत-उपवास करने की परंपरा है। प्रकृति की समीपता साधना, उसका पूजन करना इस काल मेें होने वाले उत्सव त्योहारों की विशेषता है जैसे कि नागपंचमी के दिन सर्प का पूजन, संवर्धन, श्रावण-पूर्णिमा के दिन सागर को नारियल अर्पण कर जल-देवता का पूजन, मंगलागौरी, सोमवार व्रत, हरितालिका पूजन में तरह-तरह की वनस्पतियों के पत्ते अर्पित करके उनकी औषधि गुणों का लाभ उठाना, ऐसे कई प्रकार से प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना और उससे आरोग्य प्राप्ति करवाना इसका मुख्य उद्देश्य है।

इन सभी पूजाविधियों मेें एक समान चीज है तांबा-पीतल की पूजा सामग्री। अपनी संस्कृति में पूजा सामग्री में अन्य धातुओं के बजाय तांबा-पीतल को प्राथमिकता देने के पीछे आध्यात्मिक और वैज्ञानिक ऐसेे दोनों तरह के कारण हैं। देवपूजा में मंत्र और साधना का जितना महत्त्व है, उतना ही साधन शुचिता का भी है। पूजाविधि मेेें उपयोग में लायी जाने वाली साधन सामग्री, उपकरण और उनकी रचना इन सब चीजों का बहुत बड़ा प्रभाव रहता है। परंपरागत रूप से पूजाविधि के सभी उपकरण या तो तांबे के या पीतल के होते हैं। पूजा घर में रखी हुई भगवान की मूर्तियाँ भी तांबा पीतल या चांदी की होती है। तांबा और पीतल के उपयोग के पीछे विशेष अभ्यास है। प्रत्येक धातु हमें भू-गर्भ से ही प्राप्त होता है और विविध क्रिया प्रक्रियाओं के बाद सिद्ध रूप में हम उसका उपयोग कर सकते हैं। अर्थात् पृथ्वी, आप, तेज, वायु और आकाश इन पंच महाभूतों के गुण धर्मों का एकत्रीकरण प्रत्येक धातु में रहता है। पंच महाभूतों के गुण धर्मों के प्रमाण में प्रत्येक धातु के अनुसार अंतर होता है और इसी प्रमाण के आधार पर, उसमेें विद्यमान तत्त्वों के प्रबलता के अनुसार, उस धातु का प्रभाव सिद्ध होेता है। अभ्यास के उपरांत यह सिद्ध हुआ है कि तांबे और पीतल में पृथ्वी और आप (जल) इन तत्त्वों का प्रमाण अधिक है, जो मनुष्य मात्र शरीर की दृष्टि से अतिशय लाभदायी होता है। उसी तरह सत्व, रज और तम इन त्रिगुण लहरों को ग्रहण करने की क्षमता तांबा और पीतल में अधिक है। इन उपकरणों के दर्शन मात्र से ही मन को जो प्रसन्नता होती है, वह इसी कारण। इसके साथ ही यह बात भी सही है कि तांबा और पीतल एक सामान्य व्यक्ति के लिये किफायती भी है। स्टैनलेस स्टील जैसी धातु भले ही किफायती हो, लेकिन उनमें सात्विकता ग्रहण करने की क्षमता बहुत ही कम है। इसलिए इनसे भावजागृति नहीं होती, जो कि देवपूजा के लिए आवश्यक है।

इस भावजागृति या उपकरणाेंं से निर्माण होने वाले स्पंदनों को अब अत्याधुनिक वैज्ञानिक तकनीक द्वारा देखा और नापा जा सकता है। यह एक अति आधुनिक संगणकीय सॉफ्टवेयर है। इसे वीडियो कैमेरे से जोड़कर अलग-अलग फिल्टरों द्वारा ऊर्जा वलय देखे जा सकते हैं। केवल पूजा उपकरण ही नहीं, व्यक्ति आध्यात्मिक स्थान, क्षेत्रों से निकलने वाले ऊर्जावलयों का अध्ययन कर उन पर उपाय किये जा सकते है। सर्वाश्रम वैश्विक आध्यात्मिक ऊर्जा संशोधन केंद्र, पुणे (संपर्क- सौ. मयूरा जोशी-9422772244) में यह सुविधा उपलब्ध है।

प्राचीन भारतीय परंपरा में अध्यात्म एवं विज्ञान दोनोंं परस्पर पूरक संकल्पनाएंँ मानी गई है। प्रत्येक आध्यात्मिक संकल्पना को एक वैज्ञानिक दृष्टि का आधार है। इसी तरह तांबा पीतल के उपयोग के पीछे भी केवल आध्यात्मिकता ही नहां, बल्कि एक वैज्ञानिक तत्त्व भी है।
आयुर्वेद के ‘रसरत्नसमुच्चय’ नामक ग्रंथ के पाँचवें अध्याय के 46 वें श्लोक में किये गए वर्णन के अनुसार तांबे के बर्तन में पीने का पानी यदि भरकर रखा जाये तो तांबे के गुण उसमें उतरते हैं और इसका सेवन करने से रुधिराभिसरण अच्छी तरह से होकर हृदय एवं पूर्ण शरीर स्वस्थ रहता है। इसीलिये पुराने जमाने मे पीने का पानी हमेशा तांबा या पीतल के बर्तनों में रखा जाता था। आयु के अनुसार शरीर में होने वाली रक्तदोष, बवासीर, पांडुरोग, पित्त प्रकोप जैसी बीमारियों में तांबे के गुण धर्मों का अच्छा उपयोग होता है।

केवल प्राचीन आयुर्वेद ही नहीं, बल्कि आधुनिक विज्ञान ने भी इसे मान लिया है। एक गणमान्य संस्था द्वारा अनुसंधान करने पर यह दिखाई दिया कि पानी में रहने वाले से जीवाणुओं मे ‘इ-कोलि’ नामक जो एक जिद्दी जीवाणु होता है, वह भी तांबे के गुण धर्मों से नष्ट हो करके केवल दो घंटे में पानी निर्जंतुक हो गया।

पीतल 70 प्रतिशत तांबा और 30 प्रतिशत जस्ते के संयोग से बनता है। जस्ते से शरीर की रोग प्रतिकारक शक्ति बढ़ती है। प्रोटीन, तांबे और पीतल का उपयोग चाहे आध्यात्मिक कारण से हो या स्वास्थ्य की दृष्टि से, उसका साफ और चमकीला होना उतना ही अति आवश्यक है। इस वातावरण में रहने वाली आर्द्रता के कारण तांबा और पीतल की सतह पर ऑक्साइड की परत जमा हो जाती है। इसको निकालना आवश्यक होता है, उसके बगैर तांबा-पीतल के गुण-धर्मों का उपयोग नहीं होता।

पुराने जमाने में इन बर्तनों की सफाई के लिए इमली, नींबू, राख, छास जैसे आम्लधर्मी पदार्थों का या मिट्टी का उपयोग किया जाता था। किंतु इन पारंपरिक पदार्थों से पुराने या जिद्दी दाग साफ नहीं हो पाते और राख या मिट्टी जैसे खुरदरे पदार्थों से बर्तनों पर खराश आती है और वैसे भी यह पदार्थ अब आसानी से उपलब्ध भी नहां हो पाते, इसके बजाय आजकल बाजार मेंं मिलने वाली, तांबा-पीतल चमकाने वाले खास पाउडर का उपयोग किया जाये तो यह समस्या भी खत्म हो जाती है, साथ ही बर्तन सफाई से जगमगा उठते हैं॥

आज की भागादौड़ वाली जिंदगी में व्रत-पूजाविधियों को अक्सर भुलाया जाता है, पर इसके पीछे जो आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और पर्यावरण रक्षक बातें हैं, उनका महत्त्व समझ कर उनका संवर्धन और प्रसार करना अत्यावश्यक है। इनका लाभ उठाकर सभी को अपना जीवन आनंदमय और स्वस्थ्य बनाना चाहिए।

 

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