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भारतीय फिल्में गंभीरता से हो-हंगामे तक का

भारतीय फिल्में गंभीरता से हो-हंगामे तक का

by दिलीप ठाकुर
in अक्टूबर-२०१२, फिल्म
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फिल्म के संबंध में दर्शक वाचक किस तरह की खबरें देखना या पढ़ना पसंद करते है? ऐसी जो ये जानकारी दे कि फिल्म निर्माण में कथा से लेकर पोस्टर तक और ध्वनिमुद्रण से लेकर संकलन तक कई घटक एक दूसरे में समाहित होते हैं। या जो ये बताये कि कटरीना कैफ अपनी उम्र से काफी बडे सलमान से शादी कब कर रही है या दीपिका पादुकोण किसे अपना दोस्त मानती है। सिद्धार्थ माल्या को या रणवीर कपूर को? सिनेमा कैसे देखा जाये? उसमें क्या देखना चाहिये? उसे कितने वर्गों में विभाजित करना चाहिये? आदि बुद्धि पर जोर देने वाले प्रश्नों अधिक रुचिकर लगेंगे या फिर योगिता दांडेकर ने अपने मादक शरीर पर किस तरह तिरंगा बनवाया? या पूनम पांडे क्यों हमे ‘सेक्सी और हॉट’ फोटोशूट के लिये इतनी उतावली क्यों रहती है? इस तरह की चटपटी खबरोें में मजा आयेगा?

मुन्नाभाई एम. बी. बी. एस., लगे रहो मुन्नाभाई, जिन्दगी न मिलेगी दोबारा आदि फिल्मों से समाज प्रबोधन के साथ-साथ मनोरंजन हुआ है। इस बात को महत्वपूर्ण माना जाये या राउडी राठौड़, बोलबच्चन, एक था टायगर, ने कुछ ही दिनों में सौ-सवा सौ करोड़ का बिजनेस कर दिया।

इन सवालों के पहले भाग में किसी को भी रुचि होगी ऐसा नहीं लगता। फिल्म का संकलक आधा निर्देशक होता है आदि बातें जाने के लिये कोई उत्सुक नहीं होगा। इसकी जगह अगर बताया जाये कि प्रियंका चोपडा के घर एक सुबह सुबह आयकर विभाग ने छापा मारा और उस वक्त वहां शाहिद कपूर मौजूद थे तो लोगों की उत्सुकता बढ जायेगा लोगों की नजर और सोच को इस ओर किसने घुमाया? अवश्य ही प्रसार माध्यमों ने। इस तरह की चटपटी गरमा-गरम खबरों के लिये उत्सुक होना योग्य है। या अयोग्य इस प्रश्न का उत्तर मिलना बहुत कठिन है। फिल्मो के जन्म से ही प्रसार माध्यमों ने हमेशा ही उनकी खबरे रखी हैं। कलाक्षेत्र में क्या-क्या हो रहा है इसकी जानकारी हमेशा ही प्रसार माध्यमो ने दी। परंतु इन्ही प्रसार माध्यमों ने सिनेमा को किस नजर से देखा जाये उसका भरपूर आनंद कैसे उठाया जाऐ यह बताने की जगह फिल्मवालों की धनाढ्य-पार्टीबाज-लफडेबाज लोगों का समूह जैसी प्रतिमा बना दी ही। पहले फिल्मी पत्रकारिता में गंभीरता ज्यादा और गॉसिप कब थे जैसे खाने में आचार।

फिल्म के मुहूर्त से लेकर प्रदर्शन तक हर कदम पर खबरें फिल्म का विस्तारपूर्ण विवेचन, बदलते ट्रेण्ड पर टिप्पणी, कुछ लेख, फिल्मों की तकनीकी प्रगती, उसके विशेषज्ञ इन बातों के चारो ओर फिल्मी पत्रकारिता घूमती थी। महबूब खान ने ‘औरत’ के रीमेक ‘मदर इंडिया’ को अधिक प्रभावशाली कैसे बनाया? ‘कागज के फूल’ को सिनेमास्कोप के रूप में दर्शकों के सामने लाने के पीछे गुरुदत्त की क्या दृष्टि थी? राज कपूर इतना कम उम्र में इतने कल्पनाशील निर्देशक कैसे बने? इन सवालों को फिल्मी पत्रकारिता में पहला स्थान था। और इनपर लेख लिखने वाले फिल्मी पत्रकार भी उतने ही सक्षम थे हालांकि वहां भी गॉसिप (अचार जितन) था ही। बडे और यशस्वी लोगो जिंदगी में क्या चल रहा है यह जानने के लिये सभी हमेशा ही उत्सुक रहते हैं। फिल्मी कलाकार किसी दूसरी दुनिया के होते है, उन जीवनशैली दुनिया से अलग होती है, आम नागरिकों की जिंदगी वे नहीं जीते ये सारी बातें दर्शक ‘राजा हरिश्चन्द्र’ ‘आलम आरा’ के जमाने से सोचते आ रहे हैं। इनकी बातों को लोगों तक पहुचाने का काम बरसे से फिल्मी पत्रकारों द्वारा किया जा रहा है। राज कपूर विवाहित और तीन बच्चो के पिता होने के बावजूद नर्गिस उनके प्यार में पागल कैसे हुई? हिन्दु देव आनंद और मुुस्लिम सुरैया की प्रेम कथा वैसे आगे बढी? दिलीप कुमार और प्रेमनाथ दोनों गहरे दोस्त होने के बावजूद एक साथ मधुबाला की ओर कैसे आकर्षित हुए? गुरुदत्त को वहीदा रहमान कैसे पसंद आयीं आदि निजी बातो पर पत्रकारों ने ‘फोकस’ डालना शुरु किया। इसमे कितनी सच्चाई है और कितना झूठ यह जानने की कोशिश किसी ने नही की। इस प्रकार के गॉसिप ने ‘अजरामर कलाकृति’ का मूल्य कभी कम नहीं होने दिया। इसीलिये अंदाज बरसात, श्री 420, गंगा-जमुना, दो आंखे बारह हाथ, मदर इंडिया, मुगल-ए-आजम, गाइड, कोहिनूर, ज्वेल थीफ के कलाकार हमेशा ‘टॉप’ पर ही रहे। कलाकारो के झूठे-सच्चे रिश्तों की जगह सिनेमा को ही महत्व दिया गया।

सत्तर के दशक में इस परंपरा को पहला सांस्कृतिक धक्का लगा। इसका श्रेय बेधडक फिल्मी पत्रकार देवयानी चौबल को देना चाहिये। कोई भी वस्तु अधिक समय तक एक ही। जगह पर स्थिर रहने के कारण उसमें एक तरह की जडता आ जाती है। हर क्षेत्र में आये नये मोड की ओर नई पीढ़ी आकर्षित होती है। यह वह वक्त था जब फिल्मी पत्रकारिता में ‘पार्टी कव्हरेज’, ‘अफेयर्स और ब्रेक अप’ आदि का ‘इस्टमनकलर’ शुरु हुआ। ऐसी कहानियों को बढा चढा कर बताने वाली चिकने कागज वाली रंगीन पत्रिकाएं भी इसी दौर में शुरु हुई। फिल्म निर्माण के विषय में खबरें आने के साथ एक नया प्रकार ‘कैम्पेन’ शुरु हुआ। ‘सपनो का सौदागर’ से पदार्पण करनेवाली हेमा मालिनी को इसी कैम्पेन के दौरान ‘ड्रीम गर्ल’ की उपाधी मिली। ‘सावन भादों’ की रेखा को लोगो ने ‘काली कलूटी’ कहां। ‘सच्चा-झूठ’ की कामयाबी ने राजेश खन्ना को सुपरस्टार बना दिया। प्रत्येक कलाकार के गुणों को इस कैम्पन ने स्थिरता प्रदान की। फिल्मी कलाकारों के प्रेम प्रकरणों का भी इस दौरान भरपूर डोस पिलाया गया। हेमा मालिनी का विवाहित धमेन्द्र से, अंजू महेन्द्र से प्यार की खिचडी पकानेवाली राजेश खन्ना का अचानक डिंपल कपाडिया से विवाह और उनके बंगले आशीर्वाद पर आये दिन होने वाली लडाई? चैन्नई में किनारा फिल्म की शूटिंग के दौरान जितेन्द्र और हेमामालिनी के द्वारा विवाह करने की तैयारी और उसे रोकने के लिये धमेन्द्र द्वारा किये गये प्रयास, संजय दत्त का साथ छोडकर राजेश की जिन्दगी में अपनी जगह हासिल करनेवाली टीना मुनीम, ‘लंबू’ अमिताभ को अपनी मुट्ठी में करनेवाली रेखा, अमिताभ के साथ और सलाह के कारण रेखा में आये अमूलाग्र परिवर्तन, रेखा की जिंदगी में विनोद मेहरा (कुछ समय तक पति-पत्नि) किरण कुमार, शैलेन्द्र सिंह आदि पुरुषों का आना-रुकना-जाना, रेख के पति उद्योगपति मुकेश अगखाली की आत्महत्या जैसी अन्श कई बातों को कमाल का महत्व मिलने लगा। पाठकों को इेसी खबरें पसंद है। और इनसे ही मैगजीन अर्थात पत्रिकाओ को व्यवस्था चलता है इसे ही सच मान लिया-गया। इन गॉसिप मैगजित की भाषा और प्रस्तुतिकरण अत्यंत उन्मुक्त था। अत: रेखा ने ऐसी ही कुछ पत्रिकाओं का बहिष्कार किया था। अमिताभ बच्चन ने भी (शायद रेखा को खुश करने के लिये) यही मार्ग अपनाया था। धमेन्द्र ने भी अपना गुस्सा उतारते हुए देवयानी चौबल और कृष्णा को खूब खरी-खोटी सुनाई। महालक्ष्मी के टर्फ क्लब में बंगाल के बाढ़ ग्रस्त लोगों को मदद पहुंचाने के उद्देश्य से हो रही एक बैठक के बाद धर्मेन्द्र की नजर उन दोनो पर पडी और उन्होने आना आपा खो दिया। एक मराठी अखबार ने इस घटना को अपने मुखपृष्ठ पर जगह दी।

इस तरह की पत्रकारिता ने फिल्मी पत्रकारिता को कुछ हद तक मुख्यधारा से अलग कर दिया। परंतु पुुरानी फिल्मी पत्रकारिता ‘फ्लॅशबैक’ पद्धति के कालम, ‘भुवन शोम’ द्वाराव शुरु की गई समांतर फिल्मों की शृंखला, ‘रजनी गंधा,’ ‘छोटी सी बात’, ‘चितचोर’, जैसे साफ-सुथरे चित्रपट आदि से पूर्ववत रही।

परंतु कलाकारों की निजी जिंदगी और उनके अफेसर्स के बारे में जानने के अंग्रेजी फिल्मी पत्रकारिता की छाया प्रादेशिक अखबारों पर भी पडी और पत्रकार कहने लगे कि फिल्म की अभ्यासपूर्ण समीक्षा क्यो लिखना है। इसे कौन पढ़ेगा इसकी जगह परबीन बाबी, जीनत अमान के अफेयर्स की चर्चा की जाये। आजकल लोगों को यही पसंद है। इसके कारण फिल्मी पत्रकारिता ने अपना दर्जा खो दिया। फिल्म केवल ऊपर से देखने का विषय है ऐसी धारणा बन गई और वह आज भी कायम हे अब तो सहार हवाई अड्डे पर विदेश से आये कलाकारों के फोटो को ‘न्यूज फोटो’ के रूप में महत्व मिलने लगा। कुछ दिन पहले आदित्य चोपडा और रानी मुखर्जी को साथ लौटते देखकर उन्होने शायद गुपचुप शादी कर ली ऐसी चर्चा होने लगी।

आजकल अखबारों और पत्र पत्रिकाओं के साथ-साथ चैनल और वेबसाइड भी एक सशक्त माध्यम बन गये हैं। फिल्मी पत्रकारिता योग्य और अभ्यासपूर्ण विश्लेषण के द्वारा फिल्मों और फिल्मवालों दोनों का दर्जा सुधार सकती है। परंतु लगता है कि फिल्म वाले ही इस माध्यम के विस्तार और ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं। फिल्म के प्रदर्शन की तारीख तय होते ही फिल्म की बडाई करते हुए कई बडे-बडे कलाकार साक्षात्कार बांटते फिरते है। आमिर खान जैसा कलाकार भी राह चलते हर पत्रकार को फिल्म की प्रशंसाभरी साक्षात्कार देता फिरता है तो क्या कहना। फिल्मी पत्रकारिता आजकल फिल्म का प्रचार माध्यम बन गई है अत: पत्रकारिता में फिल्मी पत्रकारिता को सबसे निचला दर्जा प्राप्त हो गया है बडे-बडे स्टार भी अपनी फिल्म के लिये स्वयं अखबारों के कार्यालयों में जाकर स्वयं साक्षात्कार देते हैं। कुछ बडे अखबार समूह बडे कलाकारो की ‘पेड न्यूज’ भी छापते हैं। इन सभी के बीच फिल्मी पत्रकारिता के लिये कुछ अभ्यास करना पडता है। फिल्म का इतिहास पता चलना चाहिये आदि बातें लोग भूल चुके हैं। कई फिल्मी पत्रकारों को भी कटरीना कैफ पार्टी में क्या पहन कर आयी है, उसने कौन से सौन्दर्य प्रसाधन उपयोग किये है, राखी सावंत बेधडक क्या बोली, आदि में ही अधिक रूचि है। और उनका यह विश्वास है कि इसे, ही फिल्मी पत्रकारिता कहा जाता है।

इन सबके बीच सिनेमा की ओर गंभीरता से देखनेवाले पत्रकारो की दुविधाएं बढ गईं हैं। फिल्मों में प्रयोग किये जाने वाले गये तंत्रज्ञान, कलाकारों के आपसी रिश्ते, फिल्म के यश या अपयश का विश्लेषण फिल्म देखने की बदलती पद्धतियां (बायोस्कोप से लैपटाप), फिल्म जगत की बदलती मानसिकता। जैसे कई गंभीर मुद्दे है। जिन्हे जानना आवश्यक है। परंतु आस-पास की फिल्मी पत्रकारिता इन बातो पर ध्यान ही नहीं देने देती ‘एक था टायगर’ ने ढेड़ सौर करोड कमाने की चर्चा सभी ओर है परंतु उसमें निर्माण खर्च, प्रमोशन, मार्केटिंग स्टंट का खर्च, मनोरंजन कर और आयकर आदि में खर्च हुए रुपयों को घटाने के बाद केवल दस करोड का फायदा होता है। यह गणित समझने को कोई तैयार नही है। दिखाने पे मत जाओं’ जैसे स्लोगन फिल्मी पत्रकारिता पर फिर नहीं बैठते।

अत्यंत निचले स्तर तक पहुंच चुकी फिल्मी पत्रकारिता क्या फिर से पहले जितना गौरव और सम्मान प्राप्त कर सकेगी? दर्शकों को नई पीढ़ी सुशिक्षित है इसलिये देर से ही सही पर फिल्मी पत्रकारिता में सुधार जरुर होगा ऐसी उम्मीद की जा सकती हैं।

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