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मोह-भंग

मोह-भंग

by राजेंद्र परदेसी
in अक्टूबर-२०१२, कहानी
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मंगरुवा और समय चाहे जहां रहे, लेकिन रात को खाने के समय थाली लेकर जरूर पहुंच जाता था। कौशल्या भी जानती थी इसलिए दो-चार रोटियां उसके लिए जरूर सिकवा देती। मगरुवा जिस दिन ताड़ी पीकर दिन भर गायब रहता, उन्हें बहुत गुस्सा आता, वह जब खाना मांगने पहुंचता, तो अंदर से ही कह देती, ‘आज खाना नहीं बनाया है?’ कौशल्या को अधिक गुस्सा न आता तो खाना लाकर दे जाती, अन्यथा गुस्से का पुन: प्रदर्शन करती हुई कहती-‘एक बार कह तो दिया, आज खाना नहीं बना।’ इन सब बातों को सुनने का अभ्यस्त मंगरुवा पूछता, ‘तबियत तो ठीक न है भौजी, शंकुतला कहां है?’

कौशल्या क्या जवाब देती, वह जानती थी कि खाना तो उसकी बेटी शंकुतला ही बनाती है, उसका काम तो मात्र व्यवस्था तक ही सीमित है। पहले प्रकाश की बहू बनाती थी, वह जब से प्रकाश के साथ चली गयी, शकुंतला ही बना रही है। मंगरुवा यह सब जानता है। जानता भी क्यों नहीं? घर से बाहर तक कोई भी काम होता, वही करता था। एक बाल्टी पानी भी जरूरत होती तो शंकुतला बाल्टी और डोर मंगरुवा के सामने लाकर रख देती और कहती ‘मंगरु काका, एक बाल्टी पानी ला दो, थाल घोकर मैं अभी तुम्हारे लिए भोजन लाती हूँ।’

मंगरुवा समझता था कि शंकुतला को पानी की जरूरत किसी और कार्य के लिए होगी, लेकिन बहाना बना रही है, थाली धोने का। इसीलिए बाल्टी-डोर उठाते हुए उलाहना देता, भाई, इतना बड़ा अफसर बन गया है, यह नहीं होता कि उससे कहकर घर में एक चापाकल (हैंडपाइप) लगवा लें। सोचती है, मंगरुवा तो है ही फिर क्यों भाई का पैसा खर्च कराएं। शकुंतला चुपचाप उसकी बातें सुनकर अपने काम में लग जाती और मंगरुवा बुदबुदाते हुए आत्माराम के कुएँ से पानी लाकर दे जाता। बोलती- ‘ले पिछले जनम में तेरा भी कर्ज खाये थी, सो ही भर रही हूँ।’ कौशल्या की तीखी बातें मंगरुवा को सालती थी कि नहीं, यह तो वही जानता, लेकिन यह जरूर था कि अगर उसकी जगह कोई दूसरा होता तो शायद ही दशरथ सिंह के यहाँ रूकता। मंगरुवा की सेहत पर उसका असर न पड़ता, उल्टा वह कहता, भौजी अगले जनम में हमने कोई बहुत बड़ा पुण्य किया था, जो आज आप लोगों की कृपा हो गई। नहीं तो…भौजी।’ यह सब सुनते ही कौशल्या का गुस्सा काफूर हो जाता और बोलती, ‘अच्छा जा चुपचाप खा।’
खाना लेकर मंगरुवा दुआर पर बैठकर खाने लगता, अगर दुआर की चौकी पर दशरथ सिंह बैठे मिलते तो खाने के साथ-साथ मंगरुवा कहता-भईया! लगता है, भौजी! आज मुझसे बहुत नाराज़ हैं।’ दशरथ सिंह ऐसी बातों का क्या जवाब देते, चुप रहते। दशरथ सिंह को चुप देखकर मंगरुवा फिर बोलता, ‘लगता है आप भी मुझसे नाराज़ हैं।’ दशरथ सिंह को आखिर बोलना ही पड़ता, ‘नहीं रे। हम क्यों नाराज होंगे?’

‘तो फिर बोलते क्यों नहीं?’
‘क्या बोलूँ।’
‘चातरवाले खेत में इस साल अगर आर.आर.21 बोया जाए तो खूब होगा, लेकिन, खाद-पानी का प्रबंध किए कैसे होगा।?’‘तो प्रकाश को लिख नहीं देते कि वह खेत में पंपसेट लगवा दें, उसके लिए तो यह कोई बड़ी बात नहीं हैं।’ ‘उसके लिए तो नहीं है, लेकिन मेरे लिए तो है न।’ दशरथ सिंह एक उच्छ्वास छोड़कर बोले। कहा, ‘चुपचाप खा। तुझे कितनी बार समझाया कि खाना-खाते समय बोला नहीं जाता।’ ऐसे मौके पर मंगरुवा समझ जाता कि दशरथ सिंह की कोई दु:खती नस दब गयी है, तभी ऐसी बातें बोल रहे हैं, वह बात की रूख को मोड़ देता, ‘शकुंतला का ब्याह तो इस साल करेंगे न।’
‘सोच तो रहा हूँ।’ वार्ता में भाग लेते हुए दशरथ सिंह उत्तर देते।

‘तो कहीं निकलते क्यों नहीं? अब तो दशहरा बीत गया। दशो दुआर खुल जाते हैं, ‘जिधर जाएं, कोई हरज नहीं रहता।’ वह तो ठीक।’ दशरथ ने उसकी बातों का समर्थन किया तो मंगरुवा का उत्साह बढ़ गया। बोला, ‘शिवपुर वाले लड़के का क्या हुआ? आप कह रहे थे कि लड़का तथा परिवार सब ठीक है…न हो, तो आप जाकर उसी को क्यों नहीं ठीक कर लेते?’ अपनी जिम्मेदारी को जताते हुए मंगरुवा बोला, ‘यहाँ की चिंता आप न करें… हम तो हैं ही जानवरों को देखने के लिए।’ ‘सो तो ठीक है, लेकिन, पहले एक बैल खरीदना जरूरी है, उसके बिना चार दिन बाद जुताई-बुआई कैसे होगी? दबी आवाज में दशरथ ने अपनी समस्या रखी, तो मंगरुवा ने तुरंत समाधान प्रस्तुत कर दिया-प्रकाश को लिख क्यों नहीं देते।’?

जहाँ मंगरुवा हर समस्या का समाधान प्रकाश के पास ढूँढ़ता था, वहीं दशरथ हर समस्या के मूल में प्रकाश को ही पाते थे, इसीलिए प्रकाश का नाम आते ही खींझकर चुप हो जाते थे, लेकिन इतना सब होने पर भी उनका दिल यह मानने को तैयार न था कि प्रकाश इतना बदल जायेगा, विश्वास करने का वे जब-जब प्रयास करते, तब-तब उनके मानस पटल पर वह दृश्य उभर आता, जब प्रकाश छोटा था और उन्हें कभी उदास देखता तो कितने भोलेपन से कहता, ‘बापू! क्यों उदास हो? समझ गया…बहुत काम करना पड़ता है न…इसीलिए थक जाते होंगे, घबराओं नहीं…हम जब बड़े हो जाएंगे, तो तुम्हें कोई भी काम करने नहीं दूँगा और देखना, इतनी बड़ी कोठी बनाऊँगा कि लोग दूर से ही देखकर कहेंगे, वह देखो दशरथ सिंह की भव्य कोठी।’
बेटे की भोली बातों को सुनकर दशरथ सिंह अपनी पीड़ा भूल जाते। जब मैं आपके लिए सोनपुर के मेले से एक घोड़ी ला दूँगा, फिर उसी से आया-जाया करना पैर भी नहीं थकेंगे। बेटे को पिता की पीड़ा कितनी सालती थी, वह कहता था, ‘बापू, ऐसा करना-सबसे पहले एक बैल और जरूर खरीद लेना…अच्छा नहीं लगता, जो तुम चौधरी से बैल मांगते हो, पता नहीं चौधरी अपने आपको क्या समझते हैं, जो इतना नखरा दिखाते हैं? वह पिता की समस्याओं को हल करने का विचार ही नहीं रखता था, बल्कि सलाह देते हुए चेतावनी भी देता था- देखो बापू! बैल लाना तो चौधरी को कभी मत देना…कितना भी मांगें।’ बेटे की बातों को सुनकर कभी-कभी हंसी आ जाती तो प्रकाश टोकते हुए कहता, ‘बापू, तुम हंस रहे हो। देखना मैं पढ़कर कितना बड़ा आदमी बनता हूँ।’ कौन पिता नहीं चाहता कि उसका पुत्र बड़ा होकर नाम कमाए? दशरथ सिंह ने कभी विद्यालय का मुँह नहीं देखा था, तो भी उन्होंने प्रकाश को पढ़ाने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। शायद, पिता की निष्ठा और पुत्र के फर्ज का फल था कि प्रकाश सदैव प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होता चला गया, जब उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाने की बात आई तो दशरथ ने अपने पूर्वजों की धरोहर को भी दांव पर लगा दिया था। लोगों ने सलाह भी दी थी, ‘पागल हो गए हो क्या? बेटे को विदेश भेजने के लिए अपने परिवार के सभी सदस्यों के पेट पर लात मार रहे हो। पढ़-लिखकर प्रकाश कहीं,वहीं रह गया और तुम्हें नहीं पूछा तो तुम्हें जीवन काटना मुश्किल हो जाएगा।’ बेटे के भविष्य को संवारने के लिए दशरथ इतने आतुर थे

कि उन्हें किसी की भी सलाह रत्ती भर नहीं भाती थी, ऐसे में भूला सिंह की यह बात उन्हें और विह्वल बना देती कि दशरथ सिंह अगर प्रकाश लिख-पढ़कर लायक हो जाएगा तो कितनी ही जमीन खरीद देगा? मान लो, तुम्हारे लिए, कुछ नहीं करेगा, तो लोग यह कहेंगे ही कि देखो, दशरथ सिंह का लड़का कितना बड़ा आदमी बन गया है? यह सोचकर दशरथ ने पूर्वजों से प्राप्त जमीन में से मात्र दो बीघा छोड़कर शेष सब जमीन बेंच दी थी। भविष्य की उज्ज्वल आशा में समय बीत गया। प्रकाश विदेश से पढ़कर आया तो शहर में ही एक बड़ा अधिकारी बन गया।

नवीनता की चमक में कुछ दिनों तक सभी मौन थे, लेकिन धीरे-धीरे गांव जवार के लोग यह चर्चा करने लगे कि प्रकाश तो एकदम नालायक निकला। भूल ही गया कि गांव में उसके मां-बाप भी मौजूद हैं। दशरथ भी अपने मन को समझाने का प्रयास कर रहे थे, उनका मन इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं था कि प्रकाश इतना बदल जायेगा, वे अगर ऐसा जानते तो शायद भूलकर भी शहर नहीं जाते, वे जाना भी नहीं चाहते थे, उनकी पत्नी कौशल्या जब जिद करती तो कहते, जीवन भर तो गांव रहे…अब शहर जाकर क्या होगा? परंतु पति की पीड़ा और बेटे की मानसिकता से अनभिज्ञ कौशल्या ने जिद की तो दशरथ पत्नी को साथ लेकर शहर चल दिये।

मकान ढूँढ़ने में अधिक परेशानी नहीं हुई। गेट पर ही चपरासी मिल गया, उसी से पूछा ‘प्रकाश चंदर का मकान यही है।’ एक अजनबी देहाती को साहब का नाम इस तरह से लेते हुए देख चपरासी रौब से बोला-‘किसको ढूढ़ रहे हो।’
‘प्रकाश चंदर की कोठी यही है’,
‘हाँ, कहो क्या है?’ चपरासी लापरवाही से बोला।

दशरथ सिंह बिना किसी औपचारिकता के बोले-‘हम उनके पिता है। गांव से मिलने आये हैं।’ दशरथ और उनकी पत्नी कौशल्या की दीन-हीन दशा को देखकर चपरासी को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ, लेकिन फिर सोचा अगर सच्चाई यही हो तो उसकी स्थिति दयनीय हो जाएगी, इसीलिए उनको बरामदे में रखी कुर्सियों की ओर इशारा करके बैठने को कहा और स्वयं अंदर चला गया।

समाचार मिलते ही प्रकाश बाहर आया, माता-पिता की स्थिति देखकर उसे चपरासी के सम्मुख बहुत ग्लानि हुई, लेकिन सच्चाई को ही निगल जाये, इतना साहस उसमें नहीं था, वह चुपचाप खड़ा हो गया, अब तक यही होता था कि प्रकाश जब भी गांव जाता, अपने मां-बाप के पैर अवश्य छूता, चाहे वे लोग जहाँ भी मिले, लेकिन आज उसी काम को चपरासी के सम्मुख दोहराने में उसे लज्जा की अनुभूति हो रही थी। दशरथ भी बेटे की मानसिकता को परख रहे थे, लेकिन मौन थे, अब और अधिक मौन रहना, जब प्रकाश को असह्य हो गया तो स्वयं ही बोला, ‘बिना चिठ्ठी-पत्री दिये आप लोग कैसे आ गये? गांव में सब ठीक तो है न।’

बेटे के अंदर आए परिवर्तन को देखकर दशरथ यह अंदाजा लगा चुके थे कि प्रकाश के सम्मुख उनके अस्तित्व का कोई महत्त्व नहीं है, फिर भी अपनी पीड़ा को छुपाते हुए बोला, ‘क्या बताऊँ, रात में तुम्हारी मां ने सपने में तुम्हें देखा, सुबह होते ही शहर चलने की रट लगाते लगी। मैंने बहुत समझाया कि प्रकाश कोई बच्चा है, जो इतना परेशान हो रही हो? अगर कुछ होता तो खबर न भेजता? लेकिन जब तुम्हारी मां को कुछ समझ में न आया, तो यहाँ आना पड़ा।’ वह कुछ देर मौन स्थिति का विश्लेषण करते रहे, फिर बोले, ‘अब तो तुम लोगों

को देख ही लिया सोंचता हूँ-‘दोपहर वाली गाड़ी से ही वापस लौट जाऊं। किरण डूबते-डूबते पहुँच जाऊँगा, वहाँ शाम होते ही जानवर राह जोहने लगते हैं।’ अपने मंतव्य को पूरा होते देखकर प्रकाश बीच में ही बोल पड़ा, ‘आप लोग, अभी तो गांव से आ रहे हैं, थक गये होंगे, मेरी राय है कि आज आप लोग आराम करें, कल लौट जाइएगा। वहाँ तो मंगरुवा है ही।?’

‘मंगरुवा का क्या भरोसा, कहीं ताड़ी पीकर सो गया तो जानवर रात भर भूखे रह जाएंगे।’ प्रकाश कुछ बोले, इसके पहले ही दशरथ पत्नी की ओर मुखातिब होकर बोले, ‘आओ चलें, अभी गाड़ी मिल जाएगी। शाम तक गांव पहुँच जाएंगे। पति को लौटते देख कौशल्या भी उनका अनुकरण करते हुए लौट पड़ी, उसी तरह जिस तरह दिन भर भटकने के पश्चात शाम होते ही पंक्षी अपने नीड़ की ओर लौट पड़ते हैं।
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