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प्रेम और भक्ति के लिए मीरा का प्रतिरोध

प्रेम और भक्ति के लिए मीरा का प्रतिरोध

by अलोक भट्टाचार्य
in नवम्बर- २०१२, संस्कृति, सामाजिक
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रचनात्मकता विद्रोह की मशाल बनकर सारा अंधकार दूर करते हुए आगे की राह रोशन कर देता है। इतिहास में ऐसे विद्रोह दर्ज हैं, जिन्होंने देश को अन्याय-अत्याचार के घने अंधकार से मुक्त करके न्याय-विकास के प्रकाश से प्रकाशित किया है। अपनी रचनाओं से जिन्होंने साहित्य को तो आलोकित किया ही है, अपने अटल विद्रोह से जिन्होंने समाज को न्याय, समता, निष्ठा और अदम्य साहस की उजली राह दिखायी।

आइये, दीपावली के प्रकाश-पर्व पर उस आलोक पुंज संत कवयित्री मीराबाई के अद्भुत प्रतिरोध को समझने-जानने की कोशिश करें। हिंदी के वरिष्ठ कवि, ‘अनुत्तरयोगी’ के सफल रचनाकार स्व. वीरेंद्र कुमार जैन ने एक बार मुझसे कहा था कि सच्चे प्रतिरोध का कारण हमेशा ही सच्चा प्रेम होता है। आप अपने समाज से, भाषा से या किसी विशेष विचारधारा से या व्यक्ति से सच्चा प्रेम करते हैं और जब पाते हैं कि उसके प्रति अन्याय हो रहा है, तो आप प्रतिकार की कोशिश करते हैं, प्रतिकार नहीं होता तो अपने उस प्रेमास्प्रद को न्याय दिलाने के लिए आप उसके प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध कर देते हैं। श्रीकृष्ण के प्रति अपने पूर्ण समर्पित प्रेम की आकुल कर देने वाली गहन और आर्त अभिव्यक्ति से ओत-प्रोत पदों-भजनों की अमर संत रचनाकार भक्त गायिका मीराबाई ने भी यही किया। श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम की अभिव्यक्ति में उन्हें जहां-जहां नई बाधाएं आयीं, मीरा ने पहले तो शालीन और विनम्र प्रतिकार की कोशिशें कीं, फिर भी प्रतिकार न होने पर खुला विद्रोह कर दिया। हम पाते हैं कि मीरा ने एक श्रीकृष्ण के प्रेम पक्ष में समाज की कई रूढ़ियों के खिलाफ बार-बार विद्रोह किया। मीरा को ‘प्रेम-दीवानी’ कहा जाता है, चिर-विरहिणी कहा जाता है, मीरा ने स्वयं अपने-आप को ‘अचल सुहागन’ कहा, लेकिन सामाजिक तौर पर देखा जाये, तो मीरा दरअसल विद्रोहिणी थीं। मीरा विचार एवं कर्म दोनों से विद्रोहिणी थीं। विद्रोह का खामियाजा विरोध और अत्याचार के रूप में मीरा को सहना पड़ा। उनके नारी होने की अस्मिता पर हमले हुए। उन्हें ‘बिगड़ी’ कहा गया, बावरी कहा गया। बार-बार उनकी हत्या की कोशिशें हुईं। उन्हें महल में नजरबंद रखा गया। लेकिन मीरा न झुकीं, न टूटीं। हर नये अत्याचार के साथ उनका संकल्प और-और दृढ़ होता गया। हर क्षेत्र में मीरा का विद्रोह सफल हुआ। स्वयं कृष्ण आज ‘मीरा के प्रभु गिरिधर नागर’ के रूप में जाने जाते हैं, जबकि जिन लोगों ने मीरा पर अत्याचार किये, आज कोई उनके नाम तक नहीं जानता।

मीरा का विद्रोह बहुत ही रचनात्मक था, क्योंकि उसके पीछे प्रेम की रक्षा, प्रेमी की अभिव्यक्ति थी, भक्ति थी। मीरा का प्रतिरोध सहज-स्वाभाविक भी था, वह राजनीतिक नहीं था। वह था तो व्यक्तिगत ही, लेकिन उसका व्यापक सामाजिक प्रभाव पड़ा। यह इतना अधिक रचनात्मक और सहज था कि बिना अत्यंत सूक्ष्म विवेचना और तीक्ष्ण दृष्टि के उनके प्रतिरोध को जाना भी नहीं जा सकता। दो साल की उम्र में माता कुसुम कुंवरि का देहांत हो गया, पिता राव रत्न सिंह हमेशा इस या उस युद्ध में व्यस्त रहते, महलों के भीतर और बाहर हमेशा युद्ध, राजनीति, विश्वासघात, वीरता-शूरता आदि के खेल चलते रहते, उन दिनों की प्रथा के अनुसार लड़की होने के बावजूद घुड़सवारी और अस्त्र-शस्त्र संचालन तथा युद्ध-विद्या का प्रशिक्षण राजघरानों की बेटियों को लेना ही पड़ता, सत्ता-संघर्ष, वर्चस्व की लड़ाई- चौबीसों घंटे के ऐसे माहौल में रहने के बावजूद नन्ही मीरा ने अगर श्रीकृष्ण की एक सुंदर-सी, छोटी-सी मूर्ति को घोड़ा, तलवार, हीरे जड़े गहनों-कपड़ों की तुलना में कहीं अधिक महत्व दिया, तो उस नन्ही बच्ची का यह विद्रोह ही तो था- घृणा, हिंसा के खिलाफ। मीरा के इन सूक्ष्म लेकिन सर्वोच्चस्तरीय विद्रोही को समझने की जरूरत है।

समाज-परिवार के प्रचलित तौर-तरीकों और चाल-चलन के बिलकुल विपरीत व्यवहार करने की मीरा को उस छोटी-सी उम्र में भला कैसे सूझी?सबसे अलग अपनी बिलकुल अलग ही चाल। मीरा ने आगे चलकर कहा भी है –

‘भावै कोई निंदौ, भावै कोई बंदौ, चलसी चाल अनूठी।’
अर्थात- (कोई निंदा करे या प्रशंसा, मैं तो अपनी अलग ही चाल चलूंगी।)

सोने-चांदी के ढेरों में पलने वाली राजनंदिनी यदि मिट्टी की एक मूर्ति को ही अपने गले का हार, अपना सर्वस्व मान बैठी, तो यह उसकी ‘अनूठी चाल’ ही तो थी! मर्जी के खिलाफ शादी मान ली- यह उसके उच्च संस्कारों की निशानी थी, वरना तो उसने अपनी आध्यात्मिक शादी अपने गिरिध नागर से कर ली थी, उसके गिरिधर उसे दुल्हन बनाने के लिए छप्पन करोड़ बारातियों के साथ आये थे-

‘माई म्हाणो सुपणामा परण्या रे दीनानाथ।
छप्पन कोटा जणा पधार्‍या दूल्हो सिरी ब्रजनाथ।
सुपणा मा तोरण बंध्यारी, सुपणामा गह्या हाथ
सुपणा ना म्हाणे परण गया, पाया अचल सुहाह।’

कृष्ण जिसके वर हों, उसका सुहाग तो अचल होगा ही, फिर उसे ऐसी शादी क्यों करनी हो, जिसमें सुहाग के छिन जाने का डर हो। कृष्ण जिसके वर हों, कोई मनुष्य उसका वर कैसे हो सकता है? लेकिन ‘अचल सुहागन’ मीरा ने भौतिक सांसारिकता का सम्मान किया। राणा कुंभा के पौत्र, राणा सांगा के पुत्र भोजराज से अपने पिता-चाचा-ताऊ एवं राणा सांगा की मर्जी को मानकर शादी कर ली और शादी को पूर्ण समर्पण के साथ निभाया भी। यह मीरा के चरित्र की निर्मलता थी। वरना सपने में आकर जब श्रीकृष्ण ने मीरा का हाथ थामा, उसके भी बहुत पहले मीरा ठान चुकी थीं-

‘झूठा सुहाग जगत करही सजनि, होय होय मटि जासी
मैं तो एक अविनासी वरूंगी, जाहे काल न खासी।’

मीरा ने दासी-सखी ललिता से बहुत पहले ही कह दिया था कि जगत तो शादी के नाम पर झूठा सुहाग करता है, सुहाग होता है और मिट जाता है, यानि शादी के बाद कभी न कभी तो पति मर ही जाते हैं, पत्नी का सुहाग उजड़ जाता है। लेकिन मैं तो ऐसे पति को वरूंगी, जो अविनाशी हों, जिन्हें काल न खा सके। जाहिर है, मीरा के ये अविनाशी वर श्रीकृष्ण ही थे।

ससुराल आयीं। ससुराल चितौड़ का प्रसिद्ध घराना था, राणा सांगा का। सास ने कुलदेवी मां काली को पूजने को कहा, तो नयी बहू ने कहा – ‘क्षमा करें मांजी, मेरे तो इस कुल, उस कुल, दोनों कुलों और तीनों लोकों के एक ही देवता हैं, एक ही आराध्य, यह मेरे गिरिधर गोपाल। मैं इनके अलावा किसी को नहीं जानती, तो मानूं कैसे? यह चरम निष्ठा का तो प्रमाण था ही, परम साहस का भी प्रमाण था। सास की आज्ञा, ससुराल की कुलदेवी-मीरा की कृष्ण-निष्ठा को कोई डिगा नहीं सका। सास ने मीरा की सच्चाई को समझा, पति ने भी समझा। महल में अलग से कृष्ण-मंदिर बना और ‘मगन भरी मीरा!’ लेकिन पति भोजराज को पूरा सम्मान, पूरा प्रेम, पूरा सुख दिया। दांपत्य-धर्म का पूरा निर्वाह किया। कृष्ण आध्यात्मिक अविनाशी पति, भोजराज सांसारिक-व्यावहारिक पति। कृष्ण में मीरा मगन और मीरा में पति भोजराज। पूजा-अर्चना-भक्ति तथा पत्नी-धर्म सब बिलकुल ठीक।

लेकिन यह सुख पांच ही साल रहा। मुगलों से निरंतर होने वाले एक युद्ध में पति भोजराज वीरगति को प्राप्त हो गए । तब तक मीरा के तौर-तरीकों से पति और ससुर के अलावा ससुराल वाले शेष सभी लोग असंतुष्ट हो गये थे। ससुराल वाले थे मेवाड़ नरेश और उनके परिवार के लोग। चित्तौड़ का उच्चकुलीन प्रसिद्ध सिसौदिया वंश। परम अभिजात, ऐसे समाज-परिवार की नयी बहू मीरा महल के अपने कृष्ण मंदिर में जब गिरिधर गोपाल की भक्ति में डूबी अपनी ही रची किसी रचना को अपनी अत्यंत सुरीली, बेहद मीठी आवाज में गा उठतीं और विभोर कर देने वाला उनका वह स्वर। पति ने समझाया, अपने प्रेम का वास्ता दिया, ससुर ने स्नेह का, लेकिन मीरा के नेह तो कृष्ण से लगे थे, कानों में बस एक ही स्वर गूंजता था। कृष्ण की बांसुरी का। मीरा की धुन घनीभूत होती गयी, दिन-रात एक ही टेर। सास, ससुर ने स्नेहवश, पति ने प्रेमवश मान लिया था। आखिर कृष्ण की भक्ति ही तो करती है बहू। लेकिन महल और घराने के दूसरे सभी लोगों को प्रबल आपत्ति थी। मंदिर में जाने किन-किन साधुओं-संतों, गवैयों-बजैयों को बिठा लेती है। भजन के नाम पर उनकी सुनती है, अपनी उन्हें सुनाती है। राम-राम, सबके बीच अपने पांवों में घुंघरू बांधकर नाचती भी है। सारी मर्यादाएं तोड़ दी। पराये लोगों के साथ उठना-बैठना, गाना-बजाना, नाचना। सो लोग नाराज तो थे ही, ऐसे में पति का स्वर्गवास हो गया। उन दिनों की प्रथा के अनुसार सती होना था, लेकिन मीरा भी तो राजपुतानी थीं, कुप्रथा और कुसंस्कार के खिलाफ विद्रोह कर दिया। सती नहीं होऊंगी :

‘गिरिधर गास्यां सती न होस्यां, मन मोह्यो धन नामी।’
मेरे पति तो अविनाशी हैं। मेरा सुहाग तो अचल है। मैं तो अमर वधू हूं। मैं क्यों सती होऊं?
‘मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।‘
अर्थात- मेरा तो पति वही मोर-मुकुटवाला है। वह क्या कभी मरता है?
‘जेठ बहू नहीं राणाजी, मैं सेवक हूं स्वामी’

अर्थात- मैं किसी की बहू नहीं, कोई मेरा जेठ नहीं। मैं तो सिर्फ अपने स्वामी की सेवक हूं।

‘चोरी करां नहिं जीव सतावां, कांई करे गो
म्हारो कोई।’

मैंने न तो चोरी की है, न किसी जीव को सताया है। मेरा कोई क्या बिगाड़ेगा?

‘लख चौरासी रो चूड़लो, पैरयो मैं कई बार
वा तो पति देह को संगी, मों पति सिरजणहार।
जनम-जनम की या पति केता, विषयां ते
नर-नार मैं तो राची रंग रंगी, गोविंद हरि भरतार।’

चौरासी बार विभिन्न शरीर मैंने धरे हैं, हर बार कोई न कोई एक तो पति रहा ही होगा, वे सब सिर्फ देह के संगी रहे, विषयों में आसक्त। मेरा असली पति तो गोविंद हैं, हरि ही मेरे भर्तार हैं।

उस युग में सती न होने की घोषणा करना बहुत बड़ा विद्रोह था। मीरा ने यह किया। ऐसा जल मरने के डर से नहीं, अविनाशी पति, अचल सुहाग के प्रति अपने समर्पित प्रेम की वजह से। न जाति-पाति मानां, न छुआछूत, न ही ऊंच-नीच, न अमीर-गरीब का भेदभाव माना। न राजकुल के घमंडी तौर-तरीके माने, न आभिजात्य का दिखावा। गुरु माना तो चर्मकार जाति के संत रविदास (रैदास) को। ससुरालियों ने रोका, तो महलों की दीवारें फांदकर गुरु के दर्शनों के लिए मलीन बस्तियों में गयीं। न जहर के प्याले से डरीं, न सांप के पिटारे से। मीरा ने तो अपने अप्रतिम सौंदर्यशाली रूप से भी विद्रोह किया।

साधु-संतों की संगत को ससुरालियों ने ‘पर पुरुषों की संगत’ कहकर मीरा को लोक-लाज का हवाला दिया। न मानीं, तो नजरबंद कर दिया-

‘पहरो भी राख्यौ, चौकी बिठायौ, ताला दियो जड़ाय।’
लेकिन विद्रोहिणी ने कोई बाधा नहीं मानी। साफ-साफ कहा-
‘साधु संगत में नित उठ जातां, दुर्जन लोकां दीही।’
लेकिन मीरा को न मानना था, न ही वह मानीं। उन्होंने कहा-
‘छांड़ि दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई
संतन संग बैठि-बैठि लोक-लाज खोई।’

कहा-

‘साजि सिंगार बांध पग घुंघरू, लोकलाज तजि नाची।’

आखिर श्रीकृष्ण से बढ़कर और कौन पुरुष है, जिससे मीरा पर्दा करतीं। न प्रबल प्रतापी राणा विक्रमादित्य यानि अपने देवर से, न ही नारी मुख-दर्शन न करने के संकल्प वाले वैष्णव संत जीव गोस्वामी से और जिन साधु-संतों के बीच कृष्ण गुणगान की अपनी रचनाएं अपने मधुर कंठ से गाती थीं, उनसे भी भला क्या पर्दा।

कहा जाता रहा है कि नारी बालपन में पिता या भाई, यौवन में पति और वृद्धावस्था में पुत्र यानि जीवन भर किसी न किसी की छत्र-छाया में रहे, तभी सुरक्षित है। मीरा ने इस लोक विश्वास को भी नहीं माना। 26 साल की उम्र में वह परम सुंदरी, कुलीन राजपूतानी, राजकुमारी और राजरानी के गढ़ चितौड़ के उस महल को ठुकरा कर धूल भरी राहों में उतर पड़ीं, साथ में अपने गिरिधर गोपाल की वही छोटी-सी मूर्ति, तंबूरा और करताल, बाल सखी ललिता। पैदल-पैदल गांव-गांव, नगर-नगर होती हुई अजमेर, पुष्कर-मथुरा-वृंदावन होकर द्वारका।

यह भी कहा जाता है कि स्त्री को अपने प्रेम के बारे में कुछ बोलना नहीं चाहिये। मीरा ने कृष्ण को भगवान के तौर पर कम, प्रेमी-पति के तौर पर ज्यादा चाहा है और अपने इस प्रेमी-पति के साथ अपने प्रेम की खुली घोषणा की है, उन्मुक्त वर्णन के साथ :

‘ऊंची अटरिया लाज किवड़िया
निरगुन सेज बिछी
सेज सुखमण सेज बिछी
सेज सुखमण मीरा सोहे
सुभ है आज घरी।’
‘मद की हस्ती समान फिरत प्रेम लटकी
सब ही कर सीस घरी, लोक-लाज पटकी।’
‘झटक्यो मेरो चीर मुरारी।
गागर रंग सिर ते झटक्यों
बेसर मुरि गई सारी।)
घुटी अलक कुंडल ते उलझी
झड़ गयी कोर-किनारी।
मनमोहन रसिक नागर भये
हो अनोखे खिलारी।’
‘साधु संग मोहि प्यारा लागे
लाज गयी घूंघट की।’

मीरा ने साफ-साफ कह दिया कि अब वह किसी की नहीं सुनेंगी, किसी के रोके नहीं रुकेंगी –

‘तेरो कोई न रोकणहार, मगन हुई मीरा चली।
लाज-सरम कुल की मर्यादा सिर सौं दूर करी।’

यदि रोज नहाने से ही हरि मिलते हों, तो मैं जल का ही होई जीव बनूं। फल-मूल खाने से मिलते हों तो बंदर बन जाऊं। घास-फूस खाने से हरि मिलते हों तो हिरन और बकरी क्या कम हैं? स्त्री त्याग ने से ही हरि मिलते हों तो हिजड़ों की क्या कोई कमी है? समाज-व्यवस्था की, कर्मफल की आड़ में, मीरा ने खिल्ली उड़ायी-

‘करमन की गति न्यारी।
मूरख को तुम राज दियत हो,
पंडित फिरे भिकारी!’

जीवन के अधूरेपन के खिलाफ, जीवन में अपनी इच्छाओं की अनापूर्ति के खिलाफ, अपनी मर्जी के माफिक जी पाने के खिलाफ मीरा का यह चरम विद्रोह था। चरम विद्रोह था ईश्वर के भी खिलाफ, जो मीरा को उनकी चाहना के अनुसार अंतत: नहीं ही मिले। मीरा के ये सारे ही विद्रोह सफल भी हुए, क्योंकि मीरा के इन विद्रोहों ने वृहत्तर समाज को दूर तक प्रभावित करते हुए कई प्रकार के दुराग्रहोेंं एवं अंधविश्वासों से मुक्त करके विकास और उन्नति की राह दिखायी। धर्म-आध्यात्म-भक्ति को पाखंड से मुक्ति दिलायी।
—–

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