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नूतन शिव

नूतन शिव

by डॉ. स्वर्णलता भिशिकर भिशिकर
in कहानी, नवम्बर- २०१२, सामाजिक
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स्वामी विवेकानंद जी का जन्म पौष कृष्ण सप्तमी 12 जनवरी, 1863 के दिन सुबह ब्राह्म मुहूर्त में हुआ । मकर संक्रमण का पवित्र दिन था वह, उनके जन्म के पूर्व भुवनेश्वरी देवी ने ऐसा सपना देखा था कि भगवान शिव उनके गर्भ से पुत्र के रूप में अवतरित होंगे। उनका नामकरण वीरेश्वर भगवान शिव के नाम से किया गया। रोजाना व्यवहार में उनका नाम नरेंद्र था, लेकिन सभी उन्हें लाड-प्यार से ‘बिले’ नाम से पुकारा करते थे। युवावस्था में ही संन्यास धारण करने वाले नरेंद्र के दादा दुर्गाप्रसाद के साथ नरेंद्र का काफी बड़ा आत्मीय संबंध था, ऐसा उस जमाने के लोग कहा करते थे। उससे यह भी किसी दिन विरागी वृत्ति से घर छोड़ चला जाएगा, इससे माता को चिन्ता लगी रहती। नरेंद्र बचपन में ऐसा शरारती था कि माँं खीझकर कहा करती, ‘‘भगवान शिव मेरे पुत्र रूप में जन्म लें, इस हेतु मैंने प्रार्थना की तो उन्होंने अपने उधमी भैरवों में से ही किसी एक को भेज दिया ऐसा लगता है।’’ उसका अल्हड़पन जब बेहद बढ़ जाता था, तब भुवनेश्वरी देवी उसे उठाकर सीधे पानी की टोटी के नीचे ले जाकर बिठाती और ‘शिव, शिव’ ऐसा नामोच्चारण किया करती थीं, तब जाकर यह बालक शांत हुआ करता। स्वामी जी की शिव भक्ति की बड़ी ख्याति थी। एक बार मठ में से संन्यासी बंधुओं ने उन्हें शिव रूप में सजाया था और सही माने में भगवान शिव का अविर्भाव ही हुआ हो, ऐसे स्वामी जी लगते थे। श्री रामकृष्ण के गृहस्थ शिष्य श्री नाग महाशय स्वामी जी को शिव का अवतार ही मानते थे। स्वामी जी व्याख्यान के दौरान बीच-बीच में ‘शिव शिव’ नामोच्चारण किया करते थे।

‘मैं जादूगर ही तो हूँं

ब्रिटिशों की ‘सिरॅपिस’ नाम की एक युद्ध नौका कोलकाता बंदरगाह में आकर खड़ी थी, उसे लेकर सभी के मन में कौतूहल था। उसे देखने-निरखने के लिए प्रवेश पत्रिका उपलब्ध कराई जाती थीं। उस युद्ध नौका को देखने के इरादे से अपने दोस्तों के साथ नरेंद्र प्रवेश पत्रिका-प्राप्त करने गया। एक छोटा सा लड़का आया देखकर रक्षकों ने उसे रोका। फिर भी उस कार्यालय के पिछवाड़े में एक दरवाजा था और गोल सीढ़ी से ऊपरी मंजिल पर उस कार्यालय में जाना आसान था। नरेंद्र ने उस रास्ते से जाकर प्रवेश पत्रिका हासिल कीं, उन्हें लेकर वहाँ से लौटते समय सुरक्षारक्षकों ने उसे रोककर पूछा, ‘‘तुम्हें ऊपर जाने के लिए किसने छोड़ा?’’ उस पर मुस्कुराते हुए नरेंद्र ने जवाब दिया, ‘‘ऐसे ही गया, जादूगर ही तो हूँ।’’

खबरदार! फिर से हाथ लगाया तो….

नरेंद्र अध्यापकों का प्यारा था। परंतु एक बार ऐसा हुआ कि एक अध्यापक किसी छात्र को डाँट रहे थे, तब नरेंद्र हँसने लगा। यह देखकर उस अध्यापक का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। उन्होंने नरेंद्र का कान जोर से मरोड़ा, जिससे उनका कान फट गया और उससे खून बहने लगा। दु:ख और क्रोध से नरेंद्र की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने चिल्लाकर कहा, ‘‘मेरा कान मत मरोड़िए। मुझे मारने का आपको अधिकार ही कैसे? खबरदार! फिर से हाथ लगाया तो…’’ ठीक उसी समय बंगाल के महान सुधारक शिक्षाविद ईश्वरचंद्र विद्यासागर वहाँ आए। उन्होंने नरेंद्र को दिलासा दिया जो कुछ भी हुआ, उसे लेकर पूछताछ की। फिर बड़े तीखे स्वर में उन्होंने उस अध्यापक को सुनाया, ‘‘मैंने सोचा था कि, तुम आदमी हो, लेकिन तुम तो निरे पशु ठहरे!’’ विद्यासागर जी ने उस विद्यालय में शारीरिक दंड पर प्रतिबंध लगा दिया। नरेंद्र के माता-पिता नाराज होकर अपने बेटों का उस विद्यालय से नाम हटाने की सोचने लगे। अध्यापक के विरोध में कानूनी कार्रवाई करने के बारे में भी उन्होंने सोचा था, परंतु नरेंद्र ने वैसा करने से उन्हेंं रोका।

सराहना किसलिए?

स्वामी जी का अंग्रेजी भाषा पर प्रभुत्व था, उसकी पूरी दुनिया में सराहना हुई। फिर भी आरंभ में अंग्रेजी विदेशियों की भाषा अपने ऊपर गुलामी थोपने वालों की भाषा, ऐसा सोचकर अँग्रेजी सीखने से उनका विरोध था। उस समय अँग्रेजी की पाठ्य पुस्तकें भी बिल्कुल साधारण दर्जे की हुआ करती थीं । आगे चलकर अमेरिका में अपने एक भाषण में स्वामी जी ने निर्देश किया है कि अँग्रेजी के अध्ययन के दौरान उन्होंने एक पुस्तक में एक कहानी पढ़ी। बहुत मेहनत करके एक लड़के ने पैसे कमाए और उनमेंं से कुछ अपनी बूढ़ी माँ को दिये, उसे लेकर पूरे तीन-चार पन्नों में उसकी सराहना की गई थी। स्वामी जी कहना चाहते हैं, ‘‘इस कहानी का किसी हिन्दू बालक को आकलन होना संभव न था, क्योंकि ऐसा करना तो किसी भी लड़के का धर्म ही तो है। इससे अलग कुछ बर्ताव उसका होगा ही नहीं, ऐसी हिन्दू संस्कृति की धारणा है। बंगाल में जाने – अनजाने मातृभूमि के बारे में गौरव भावना के हो रहे जागरण का नरेंद्र के बाल-मानस से उठा वह हुंकार था। इन ब्रिटिशों के विरोध में बंगाल में और समूचे भारत में जो असंतोष का भाव उमड़ रहा था, उसका नरेंद्र को भान था। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मी, तात्या टोपे जैसे वीर धराशायी हुए। यह घटना तो नरेंद्र के जन्म के इने-गिने छह वर्ष पहले हुई थी।
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