सिनेमा देखने का बदलता स्वरूप

पुराने जमाने में आराधना (1969), जंजीर (1973), शोले (1975) आदि कई ‘सुपर हिट’ फिल्मों को देखने के लिये चार दिन पहले से दो घंटे लाइन में खडे रहने में लोग अपने आप को धन्य मानते थे और जब उन्हें अपनी मनचाही फिल्म की टिकिट मिल जाती थी तो ऐसी खुशी होती थी मानो कोई ईनाम मिल गया हो। जिस दिन फिल्म देखने जाना होता था उस दिन सुबह से ही मन सिनेमा घर की ओर दौडता रहता था। शाम को जब परिवार के साथ फिल्म देखने के लिये निकलते तो साथ में कुछ नाश्ता-नमकीन, पानी की बोतल जैसी तैयारियां होती थीं। अपने पास फिल्म के टिकिट होने का गर्व चेहरे पर आने लगता और सिनेमा घर पहुंचने से पहले सभी के मन में फिल्म शुरु भी हो जाती। फिल्म देखते समय बाहर की दुनिया को भूलकर सब फिल्म में एकरूप हो जाते थे। परदे पर चलने वाली फिल्में भी लोगों के दुख, दर्द, तनाव आदि को भुला देनेवाली होती थी। फिल्म देखकर आने के बाद मन इतना ज्यादा कुलांचे भरता रहता था कि आस-पडोस के लोगों, मित्रों, रिश्तेदारों को बताये बिना चैन नहीं मिलता था। एक बार फिल्म पसंद आने के बाद बार-बार उस फिल्म को देखने का मन होता था। कभी उसी दिन वह फिल्म दुबारा देखी जाती तो कभी ‘रिपीट रन’ में कुछ दिनों के बाद। कभी-कभी तो वही फिल्म एक-दो सालों के बाद सुबह ग्यारह बजे मैटिनी शो में भी देखी जाती थी।

बहुत सारी फिल्मों के साथ इस तरह के वाकिये होते थे। दर्शकों पर जादू करनेवाले फिल्मों के वे सुनहरे दिन थे।
यह था एक सुखद ‘फ्लैशबैक’। आज की ई-कामर्स पीढ़ी को यह सब अतिरंजित लग सकता है। एक फिल्म के लिये इतना पैसा, समय, शक्ति, भावना खर्च करने की क्या जरुरत है? बार-बार देखने लायक ऐसा इन फिल्मों में होता क्या है? मराठी-हिन्दी-भोजपुरी या अन्य किसी भी प्रादेशिक फिल्म को देखने की जगह ‘वैश्विक फिल्में’ देखनी चाहिये। ये इंटरनेट से आसानी से उपलब्ध होती हैं। विश्व में विभिन्न देशों में कई अच्छी-अच्छी फिल्में बन रहीं है। इसमें एक सामान्य कथा को प्रभावी ढंग से बताया जाता है। हर दस-पंधरह मिनिट में कोई गाना नहीं होता। पौने दो घंटे की फिल्म में ‘सब कुछ’ और हर कोई अपना काम करने के लिये फुरसत। क्या हमारे पास और कोई काम नहीं कि हम देखी हुई फिल्म पर चर्चा करते रहें या पसंदीदा हीरो की बातें छेड कर बहस करते रहें? खाली समय मिलने पर मल्टीप्लेक्स में जाना चाहिये। वहां कभी भी जाने पर या तो कोई फिल्म शुरु होती है या खत्म। एक परदा सिनेमाघर की तरह यहां तीन, छ:, नौ बजे की शर्त नहीं होती है। अब फिल्म देखते समय मोबाइल पर बात भले ही न कर सकते हों परंतु एसएमएस भेजने और पढ़ने की शुरुवात हो जाती है। अगर फिल्म का ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ देखा जा रहा है तो उस पर तुरंत प्रतिक्रिया भी दी जा सकती है। उसके लिये फिल्म को सिर माथे पर चढ़ाने की जरूरत नहीं है। आजकल टी.वी. चैनल पर फिल्म के इतने प्रोमो और गाने दिखाये जाते हैं कि सारी कहानी समझ में आ जाती है और केवल फिल्म का अंत देखने के लिये सिनेमाघरों में जाना जरूरी हो जाता है।

ये सारे बदलाव दो दशकों में हुए हैं। शुरु में तो ये बदलाव नजर आये परंतु हम कब इन बदलावों के आदी हो गये पता ही नहीं चला।

पहले फिल्म देखने के लिये सिनेमा घर ही एक मात्र साधन था। शहर में हजार-बारह सौ-सत्रह सौ कुर्सियोंवाले सिनेमाघर ही विशेषता थी। ये सिनेमाघर हाऊसफुल होते थे। फिल्मों में हीरो की दमदार एण्ट्री और उसके संवादों पर खूब तालियां बजती थीं। सिनेमाघर का माहौल ही अलग होता था। उसमें उत्साह निर्माण करने की क्षमता होती थी। तहसील, ग्राम स्तर पर बिलकुल साधारण सिनेमाघर होते थे। कई जगह इनका नाम ‘मंदिर’ होता था। उदाहरणार्थ अलीबाग के महेश सिनेमागृह को ‘महेश चित्र मंदिर’ कहा जाता था। सिनेमागृह को मंदिर केवल हमारे यहां ही कहा जाता है। गावों में ‘टूरिंग टॉकीज’ हुआ करते थे। चुंकि उनमें छप्पर भी नहीं होता था इसलिये बारिश में ये अक्सर बंद होते थे। फिर विदेश की देखादेखी तंबू थियेटर की शुरुवात हुई जो आज भी कायम है। भगवान के दर्शन के लिये निकलना और दर्शन करने के बाद फिल्मों का आनंद उठाना। हमारे देश जैसी सिनेमा संस्कृति संपूर्ण विश्व में और कहीं भी नहीं होगी। श्री गणेशोत्सव और अन्य कुछ उत्सवों के अवसर पर ‘गल्ली चित्रपट’ भी काफी प्रचलित थे।

सन 1967 में दिल्ली में ‘टेलीविजन’ के आने से पूर्व फिल्मों के प्रदर्शन के लिये आकाशवाणी,नाटक, मेले, व्याख्यानमाला, सर्कस, जादू के प्रयोग, आदि स्थान थे। उन दिनों लोक-कला, लोक-संगीत आदि मनोरंजन के साधन भी काफी लोकप्रिय हुआ करते थे। इन साधनों से मनोरंजन के साथ-साथ संस्कार भी दिये जाते थे। सिनेमा भी इन सभी में साथ देने लगा। फिल्में देखते समय लोग आपस के मतभेद भूल जाते थे। परंतु दुख इस बात का है कि फिल्मों को कभी इस नजरिये से देखा ही नहीं गया।
मुंबई में 2 अक्टूबर 1972 को ‘टेलीविजन’ का आगमन हुआ और धीरे-धीरे यह माध्यम अन्य शहरों, कस्बों, गावों तक पहुंचने लगा। जिन शहरों में बिजली थी वहां इसका प्रसार जल्दी हुआ। बाकी शहरों में तो बिजली ही नहीं पहुंची थी। परंतु ‘टेलीविजन’ ने अपने साथ-साथ बिजली को भी लोगों तक जल्दी पहुंचाने का कार्य किया। हालांकि आज भी (आशुतोष गोवारीकर की फिल्म स्वदेस के अनुसार) पांच हजार गांवों में बिजली नहीं पहुंची है। कई वर्षों तक ‘टेलीविजन’ के लिये‘दूरदर्शन’ ही एकमेव माध्यम था। यह सरकारी होने के कारण सरकार का प्रचार करने वाला परंतु विश्वसनीय माध्यम रहा। मनोरंजन के लिये इस पर छायागीत (फिल्मी गानों का कार्यक्रम), कलाकारों के साक्षात्कार का कार्यक्रम ‘फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन’, शनिवार को प्रादेशिक भाषा की फिल्म और रविवार को हिंदी फिल्म दिखाई जाती थी। काफी समय तक शाम को छ: से दस बजे तक ही इसकी प्रसारण अवधि रही। हालांकि टेस्ट क्रिकेट मैच इसका अपवाद होता था। मैच के दिनों में दिन भर अर्थात जब तक मैच चलता था तब तक उसका प्रसारण होता रहता था।

सन 1982 में एशियाड के समय देश में रंगीन टी.वी. का आगमन हुआ। टी.वी. के बाद धीरे-धीरे व्हीडियो भी आया और परिस्थितियां बदलने लगीं। इसके बाद व्हीडियो कैसेट के जरिये परदे पर दिखने वाली फिल्म लोगों की मुट्ठी में आ गयी। ये कैसट लोगों को किराये पर मिलती थी। सिर्फ दस रुपये में चौबीस घंटे फिल्म देखी जा सकती थी।

इसके बाद पदार्पण हुआ विडियो-थियेटर का। देखते ही देखते संपूर्ण देश में दो लाख वीडियो थियेटर का निर्माण हो गया। कई प्रकार की असुविधाओं वाला वीडियो थियेटर कनिष्ठ मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग के बीच खासा लोकप्रिय हुआ। यह उनके लिये नया और आसान तरीका था। परंतु इसके साथ ही अधिकृत कैसेट की तुलना में अनधिकृत कैसेट का बाजार बढ़ने लगा। तीस सालों में इस पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं था जिसके कारण सरकार को बडे पैमान पर मनोरंजन कर प्राप्त नहीं हुआ फिल्म उद्योग को भी करोड़ों का नुकसान हुआ। फिल्म उद्योग की हंसती-खेलती, मनमौजी प्रतिमा होने के कारण सरकार ने इस चोरी की ओर कभी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। लगभग एक दशक के बाद सन 1992 में देश में उपग्रह चैनलों का आगमन हुआ और परिस्थितियों में तेजी से बदलाव हुआ। अब घर बैठे चौबीस घंटे मनोरंजन होने लगा। देखते-देखते इन चैनलों की संख्या और स्वरूप बदलता गया। मनोरंजन चैनल, फिल्मी चैनल, संगीत चैनल, क्रीडा चैनल, समाचार चैनल, प्रादेशिक और विदेशी चैनल आदि इनके बहुरंगी स्वरूप दिखाई देने लगे। जानकारी, मनोरंजन, और समाज प्रबोधन के लिये नये आयाम मिलने लगे। इसका सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि विभिन्न स्तरों पर दूरगामी परिणाम हुआ। यह परिणाम होना अत्यंत स्वाभाविक भी था क्योंकि हमारा संपूर्ण समाज काफी संवेदनशील है।

इसमें अब कंप्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल भी अहम भूमिका निभा रहे हैं। इस तरह के अन्य माध्यम उपलब्ध होने के कारण सिनेमाघरों की आवश्यकता और उनके भविष्य पर प्रश्नचिन्ह खडा हो गया है। हालांकि समय इन सभी बदलती परिस्थितियों को सटीक उत्तर देता है।

राजश्री प्रोडक्शन ने 1994 में जब ‘हम आपके है कौन’ रिलीज की तब उसने तीन सूत्रों को ध्यान में रखा। चकाचक सिनेमाघर, महंगी टिकिटें, और भव्य पारिवारिक मनोरंजन इन तीनों सूत्रों के कारण फिल्म भी खूब चली। प्रोडक्शन ने यह भी ध्यान दिया कि कोई इस फिल्म की अनधिकृत कॅसेट न बना सके और फिल्म को व्यावसायिक दृष्टि से कोई नुकसान न हो। ‘हम आपके है कौन’ ने यह साबित कर दिया। कि दर्शक अभी भी सिनेमाघरों की ओर रुख कर सकते हैं।

कुछ सालों में देश का पहला मनोरंजन संकुल, अर्थात मल्टिप्लेक्स अहमदाबाद में खुला।इसकी रचना और कल्पना कुछ इस प्रकार थी चार मध्यम आकार के सिनेमाघर, साथ में कुछ वीडियो गेम और कुछ खानेपीने की दुकानें। विदेशों में खासकर इंग्लंड और अमेरिका में इस तरह के संकुल बहुत बडी मात्रा में खुल रहे थे। भारत में अहमदाबाद के बाद बडौदा में इस प्रकार का संकुल खुला। इसे यहां पर भी यश मिला और मुंबई में भी इसकी शुरुवात हुई। इस दशक में देश के सभी छोटे बडे शहरों में इस प्रकार के मल्टिप्लेक्स शुरु हो चुके थे। कहीं पर मॉल के साथ मल्टिप्लेक्स खुल रहे थे तो कहीं पुराने सिनेमाघरों की इमारतों को गिराकर मल्टीप्लेक्स बनाये जा रहे थे।

मल्टिप्लेक्स ने धनाढ्य और उच्चवर्गीय लोगों की मौज-मस्ती शुरु कर दी और उनके क्रेडिट कार्ड के लिये एक दिन की पिकनिक होने लगी। फिल्म देखते-देखते समोसा,पॉपकार्न और पानी की बोतल की आदत न जाने कब लग गई परंतु दोनों हाथ इसी में व्यस्त रहने के कारण किसी अच्छे संवाद या दृश्य पर ‘ताली’ देने का मजा नहीं रहा।

मल्टिप्लेक्स की बढ़ती संख्या और बढ़ते शो अर्थात रात नौ बजे और मिडनाइट मेटिनी शो रात को साढ़े ग्यारह बजे के कारण ‘बडी फिल्में कमाई के बडे कीर्तिमान स्थापित करते लगी।’ ‘डॉन-2’ के द्वारा स्थापित किया गया 15 करोड का कीर्तिमान ‘रा-वन’ ने 18 करोड कमाकर तोड दिया। ‘बॉडीगार्ड’ ने पहले ही दिन 21 करोड कमाये तो ‘एक था टायगर’ ने पहले दिन 30 करोड कमाने का कीर्तिमान स्थापित किया। शो की बढ़ती संख्या और महंगी टिकिटों की वजह से ये कीर्तिमान स्थापित होने लगे हैं। परंतु फिल्मों के ‘दर्जे’ पर फोकस नहीं रहा। ‘गुणवत्ता’ की जगह ‘आर्थिक कमाई’ ने ले ली जो फिल्म जगत के विकास के लिये घातक है।

पैसे कमाने के उत्तम जरिये के रुप में अब मल्टिप्लेक्स को देखा जा रहा है। इसके कारण, फिल्में उच्चवर्गीय लोगों के मनोरंजन का माध्यम बनकर रह गयीं है। इन्हीं फिल्मों की अनधिकृत सीडी घट लाकर घर पर ही फिल्में देखने का मध्यमवर्गीयों का रुझान बढ़ने लगा और अपने परिवार के साथ सिनेमाघरों में जाकर फिल्में देखने का आनंद खो गया। मल्टिप्लेक्स के महंगे टिकिट मध्यमवर्गीयों की जेबों पर भारी पड रहे हैं। मल्टिप्लेक्स ने दर्शक वर्ग में फूट डाल दी है जो समाज का बहुत बडा नुकसान है। समाजशास्त्रियों को इस विषय पर ध्यान देकर कोई आवश्यक निष्कर्ष निकालना चाहिये।
फिल्म का अर्थ केवल गुजरा हुआ जमाना के रूप में याद किया जानेवाला (और वह भी केवल 1965 तक) काल, या इस काल का मजाक बना कर गौसिप करना ही नहीं है। इसके आगे भी बहुत कुछ है और हो सकता है इस दृष्टिकोण को भी ध्यान में रखना चाहिये।

अब तो फिल्में देखने के तरीकों में भी बदलाव आ गया है। होम थियेटर, वीडियो, थियेटर, डीवीडी, कंप्युटर पर डाउनलोड करके लॅपटॉप और मोबाइल स्क्रीन, हवाई जहाज, और गाडी की स्क्रीन पर फिल्में देखना आसान हो गया। अब जहां एक ओर लोगों की भीड में फिल्में देखी जाती हैं वहीं दूसरी ओर अकेले भी फिल्म का मजा लिया जा सकता है।

इन सारे बदलावों में फिल्में संस्कार भी देती है। आज लोग इसे भूल गये हैं और उनके लिये फिल्में केवल कुछ घंटों का मनोरंजन बनकर रह गयी हैं। आज ‘स्टार’ अर्थात नायक-नायिकाओं के बल पर फिल्में चलती हैं। इसे फिल्मों की प्रगति कैसे कहा जा सकता है। एक महत्वपूर्ण बात यह जरुर है कि समाज के प्रत्येक स्तर तक अपनी पैठ बना चुके विभिन्न टी.वी. चैनलों की प्रतियोगिता और अंधी दौड में भी सिनेमा अपनी पहचान बनाये हुए है। अब तो फिल्म निर्माताओं इन्ही चैनलों को अपनी फिल्मों के प्रोमो और पूर्ण प्रसिद्धि हेतु उपयोग करना शुरु कर दिया है। डेली सोप से लेकर समाचार चैनलों तक, रेसिपी के कार्यक्रमों से रियलिटी शो तक सभी कार्यक्रमों में नयी फिल्म का प्रमोशन किया जाता है। इस तरह के प्रमोशन के कारण इन कार्यक्रमों का असली मजा खतम हो जाता है। और ये शो भी इस तरह के (अवैध) आगमन को अस्वीकार नहीं करते। पहले कलाकारों के साक्षात्कार के लिये पत्रकारों को अपनी मेहनत और प्रयत्नों से सेट पर पहुंचना होता था परंतु अब तो जैसे ही किसी फिल्म के प्रदर्शन की तैयारी शुरु होने लगती है मंदिर के प्रसाद की तरह साक्षात्कार बांटे जाते है। इसके कारण साक्षात्कार की गंभीरता और माधुर्य दोनों ही खत्म हो रहा है। ये साक्षात्कार भी फिल्म के प्रमोशन के लिये होते है अत: इन्हे कोई गंभीरता से नहीं लेता। इससे भविष्य में फिल्म जगत के नुकसान की आशंका ही ज्यादा है।

चैनलों की संख्या बढ़ने के कुछ सामान्य और अच्छे परिणाम भी हुए। कौन बनेगा करोडपति जैसे कार्यक्रमों के कारण सामान्य ज्ञान का महत्व बढ़ा। कभी खत्म होंगे या नहीं ऐसे ‘क’ धारावाहिकों के कारण सौंदर्य प्रसाधनों, सुंदर साडियों और आलीशान घरों का दर्शन हुआ और कुछ लोगों ने इसका अनुकरण भी किया। रेसिपी शो के जरिये विभिन्न देशी-विदेशी व्यंजनों का स्वाद समझ में आया। हर प्रदेश की अपनी खाद्य संस्कृति भी होती है यह बात सामने आई। पर्यटन से संबंधित कार्यक्रमों के द्वारा यह ज्ञात हुआ कि ऐसे कई पर्यटन स्थल हैं जहां जाना काफी रमणीय होगा। आरोग्यविषयक कार्यक्रमों के द्वारा यह सूचना प्राप्त होती है कि हमारी सेहत के लिये क्या सही है क्या गलत। समाचार चैनल केवल अफवाह फैलाते है यह शंका उत्पन्न हो सकती हैं परंतु शासकीय चैनल इसका अपवाद हैं। अशासकीय चैनल तो इसी होड में रहते हैं कि किस खबर को वे ‘सबसे पहले हमारे चैनल पर’ दिखा सके। खेल चैनलों को क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों का महत्व भी बढ़ाना चाहिये। ओलम्पिक में हमारा देश पीछे क्यों है इस मुद्दे पर चर्चा करते रहने के बजाय उनकी ‘स्पॉट रिपोर्टिग’ करनी चाहिये। चैनलों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ अगर उनकी शोधक दृष्टि भी बढ़ी होती तो अच्छा होता। उन्हे पारंपरिक लोकप्रिय फिल्मों के मसाले की ही आवश्यकता होती है। इसीलिये नृत्य-संगीत-और गीतों के रियलिटी शो काफी लोकप्रिय होते हैं। संगीत चैनल को नई जान मिली और प्रोमो-ट्रेलर भी कमाल करने लगे। परंतु क्या पूमन पांडे, सनी रिओकी जैसी अभिनेत्रियों ने समाचार चैनलों की मदद से ही अपनी ‘सेक्सी इमेज’ बरकरार नहीं रखी है? क्या, नेता लोग एक घंटा साक्षात्कार देकर इन समाचार चैनलों का ‘उपयोग’ नहीं कर रहे हैं? क्या न्यूज चैनल देखकर ऐसी शंका उत्पन्न नहीं होती है कि अधिकतर न्यूज ‘पेड’ अर्थात खरीदी हुई है? इस सभी प्रश्नों के उत्तर के लिये एक बहुत बडी ‘बायपास सर्जरी’ आवश्यक है।

चैनलों पर चौबीस घंटे समाचार देखने के बावजूद भी लोगों के दिलों में समाचार पत्रों-पत्रिकाओं के प्रति विश्वास कायम है। इसका कारण है कि समाज में एक बहुत बडा घटक ऐसा है जो यह मानता है कि समाचार पत्रों में जो भी छपा है वह सत्य है। दिमाग की खुराक के रुप में यह वाचक वर्ग लेखों और विश्लेषणों का उपयोग करता है। कुछ वाचक भले ही समाचार पत्रों से समाचार पढ़कर उन्हें अलग रख देते हों परंतु उनके दिमाग में विचार चक्र शुरु रहता है। चैनलों पर क्रिकेट का सीधा प्रसारण देखने के बावजूद भी वह अखबारोे में उसका वर्णन पढ़ता है। चैनल सीधे घटना स्थल पर पहुंचते है और क्या चल रहा है या हो चुका है इसका वर्णन करते हैं। बम विस्फोट, दंगे, दुर्घटना, अत्यधिक बारिश जैसे मुद्दों के लिये दर्शक उत्सुक रहते हैं। परंतु घटनास्थल के प्रतिनिधि घटना की केवल जानकारी देते हैं। न ही उसका विश्लेषण करते हैं न ही उसके कारणों की जांच करते हैं। तात्पर्य यह है कि हमारे समाचार चैनलों को अभी बहुत विकास करना पडेगा। परंतु इसके लिये किस प्रकार का प्रशिक्षण आवश्यक है यह किसी को पता नहीं है।

सौ बातों की एक बात यह है कि हम कई दोषों के साथ प्रगतीपथ पर बढ़ रहे हैं। इन सभी के बीच किसी को भी इसकी परवाह नहीं है कि हमें किस दिशा में कब और कितने कदम बढ़ाने हैं।

फिल्म और चैनलों में हो रहे परिवर्तन को ऊपर-ऊपर से देखने की जगह उनका गहरा विश्लेषण करना आवश्यक है यही विश्लेषण उन्हें परीक्षा में उत्तम अंक दिलायेगा।

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